रविवार, 17 नवंबर 2013

गुरू नानक देव की जयंती पर शुभकामनायें ...विशेष आलेख


गुरू नानक देव की  जयंती पर शुभकामनायें ...विशेष आलेख 
गुरु नानक जी का जन्म कार्तिक पूर्णिमा को सन् १४६९ ईसवी ( संवत् १५२६ विक्रमी ) को हुआ था |

इनकी माता का नाम तृप्ता था | यह पंजाब के जिला लाहौर , तहसील शकरपुर तलवंडी में पैदा हुए थे | तलवंडी अब नानकाना के नाम से मशहूर है |

जब इन्हें पाठशाला में पढने भेजा गया तब इन्होने कहा कि जिस ने भी इस संसार का हिसाब किताब पढ़ा है उसने बहुत दुःख उठाये हैं | मैं तो मालिक का नाम पढने आया हूँ |

जब इन्हें संस्कृत पढ़ने भेजा गया तब उल्टे इन्होने पंडित को ऐसे ऐसे वचन सुना दिए कि पंडित जी इनके पैरों में गिर पड़े |

इनके पिताजी ने तब इन्हें गाय भैंस चराने का काम सौंपा | इस काम में भी इनका मन नहीं लगता था , यह बच्चों के संग खेल कूद में लग जाते थे और गाय भैंसें इधर उधर घूमती रहतीं थीं | जब इनकी उम्र सात साल की थी तभी से इन्हें घर पर जो भी खाने को मिलता था , यह साधू संतों में बाँट देते थे | पिताजी ने घबराकर बाला नाम के एक आदमी के साथ रुपये देकर इन्हें कारोबार के लिए लाहौर भेज दिया | रास्ते में कुछ साधू मिले , इन्होने उन पैसों से भंडारा कर दिया | खाली हाथ तलवंडी आ गए पर घर नहीं गए | एक पेड़ के नीचे बैठ गए | यह पेड़ ''तंबू साहब'' के नाम से जाना जाता है |

इनके पिताजी ने फिर इन्हें इनकी बहन नानकी और बहनोई लाला जैराम के पास भेज दिया | वहां इन्होने आटा और सामान तोलना शुरू किया जो कि नवाब साहब के घर जाता था | जितना ये तोलते थे उसका दुगुना साधू संतों में बाँट देते | एक दिन आटा तोलते समय तेरह बोलते बोलते 'तेरा , तेरा ' बोलने लगे और सारा आटा तोल दिया , उसके बाद यह काम भी छोड़ दिया | कोई कुछ पूछता था तो यह कहते थे कि '' न कोई हिन्दू है न मुसलमान '' | इस तरह उनके शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी | मरदाना मीरासी उनका एक सच्चा शिष्य था | बहुत से हिन्दू और मुसलमान इनके चरणों में आ गिरे | यह बात काजी और मुल्ला लोगों से सहन नहीं हुई | उन्होंने कहा कि हम इन्हें तब मानें जब यह हमारे साथ मस्जिद में नमाज पढें | मस्जिद में जाकर नानक साहब एक कोने में बैठ गए | सबने कहा कि यह कपटी है |

तब नानक ने कहा कि जिनका मन ठिकाने नहीं है उनके लिए नमाज पढना या न पढना बराबर है | नवाब साहब तो काबुल में घोड़े खरीद रहे थे और काजी साहब का मन घोड़े के बच्चे की रखवाली में था कि कहीं वह अस्तबल के कुएं में न गिर जाए | दोनों नानक के चरणों पर गिर पड़े और बोले कि आप सच्चे वली-अल्लाह हैं | नानक ने कहा कि पांच नमाजें सदा पढ़ा करो ,''पंज नमाज वक़्त पंज ''|

जब बहुत भीड़ होने लगी तब इन्होने बाला और मरदाना को साथ लेकर सुल्तानपुर छोड़ दिया | यह लोग लाहौर आये जहाँ सिकंदर लोधी के गुरु वली सैयद अहमद से इनकी चर्चा हुई | फिर सियालकोट होते हुए हरिद्वार में कनखल पहुंचे | वहां से यह दिल्ली आये | दिल्ली से अलीगढ होते हुए वृन्दावन , मथुरा और आगरा गए | फिर कानपुर , अयोध्या होते हुए काशी पहुंचे | एक बगीची में आराम किया जिसे '' गुरु का बाग़ '' कहते हैं |

कबीर साहब जब काशी लौट रहे थे तब रास्ते में गुरु नानक जी से मिले | इनकी चर्चा को ''कबीर गोष्टी '' कहते हैं | कई लोग इसे नहीं मानते | वह कहते हैं की यह दोनों महापुरुष कभी मिले ही नहीं | ''कबीर कसौटी '' में लिखा है कि कबीर साहब १४५५ संवत् (१३९८ ई ) को प्रकट हुए थे और गुरु नानक जी का जन्म सन् १४६९ ई (संवत् १५२६ विक्रमी ) में हुआ था | दोनों की ख्याति दूर दूर तक फैली थी इसलिए दोनों आपस में मिलने को जरुर इच्छुक रहे होंगे | कोई कहता है कि कबीर साहब के शरीर त्यागने के बाद नानक जी पैदा हुए थे |

काशी के बाद यह पटना होते हुए गया पहुंचे | १५०८ ई में आसाम पहुंचे | फिर कलकत्ता होते हुए पुरी पहुँच गए |यह पिंड दान के सख्त खिलाफ थे | उसके बाद यह दक्षिण की तरफ चल पड़े | रामेश्वर से समुन्दर पार कर सिंगला दीप में पहुंचे | वहां भाई मनसुख जो कि नानक का पाठ रटता था , उसने वहां के राजा को कई बातें बताई थीं---

जैसे कि पत्थर का बुत पूजना बेकार है | उससे फल प्राप्ति करना बेकार है | थोडा खाना और थोडा सोना तो गुरुजनों का रोज़ का काम है , तुम तो एकादशी का व्रत १५ दिन में एक बार करते हो | रात्रि के प्रहर रहते स्नान करना चाहिए , इसका फल सोने के तुलादान जितना होता है | यह संसार एक पेड़ है जिसके शिखर पर मुक्ति का फल लगा है | जिन्हें मालिक का सहारा मिल जाता है वह यह फल आसानी से प्राप्त कर लेते हैं वर्ना इसे प्राप्त करना बहुत ही मुश्किल है | राजा जिसका नाम शिवनाभ था वह गदगद हो गया था और नानक के दर्शन को तरसने लगा था | नानक अन्तर्यामी थे , वह राजा के पास आये और उसे दर्शन दिए |

फिर वह मालाबार आये और फिर नील्गिर , रत्नागिर पहुंचे | अंत में सुल्तानपुर लौट कर इन्होने करतारपुर नाम का नगर बसाया | पंजाब के लोग जो कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही थे , वह इनके उपासक बन गए | १५१८ ई में यह बाला और मरदाना के साथ बलूचिस्तान होते हुए मक्का पहुंचे | काबा की तरफ पैर करके रात भर सोते रहे | सुबह एक आदमी ने गुस्से में इनकी टांगों को पकडा और चारों तरफ घसीटा ,परन्तु उसे मक्का भी चारों तरफ घूमता नज़र आया | काजी के साथ इनकी लम्बी बातचीत हुई | फिर यह मदीना गए और इमाम के साथ वार्तालाप किया | फिर रूम चले गए | बग़दाद होते हुए इरान के शहर तूरान आये जहाँ पानी का एक चश्मा निकला जो अब भी '' चरण गंगा '' कहलाता है |

फिर यह पेशावर होते हुए हसन अब्दाल की पहाड़ी पर पहुंचे जहाँ एक कंधारी फकीर रहता था | उसने प्यासे मरदाना को पानी नहीं दिया | जल कुंड खुद चल कर इनके पास आ गया | वली ने गुस्से में एक बड़ा पत्थर इनके ऊपर मारना चाहा | नानक ने उसे हाथों से रोक लिया | उस शिला पर नानक के पंजों के निशाँ आज तक मौजूद हैं | जो कि मिटाए नहीं मिटते | इस जगह को '' पंजा साहब' कहते हैं |

हमें चाहे फकीरों , दरवेशों और संतों की बातों का यकीन हो या न हो लेकिन कुछ प्रमाण हमें सोचने पर मजबूर कर देते हैं |

फिर यह कश्मीर होते हुए सियालकोट आये | बाकी का समय करतारपुर में रहकर बिताया |

यह सुबह मुंह अँधेरे ही वक़्त पर उठ जाते थे | स्नान करके सबके भोजन का प्रबंध करते थे | तभी तो आज भी इतने भंडारे और लंगर चलते हैं | गुरु नानक जी ने सन् १५३८ ई (संवत् १५९५ ) को ६९ बरस १० माह और दस दिन की उम्र में अपने शरीर का त्याग किया |

गुरु नानक की गद्दी पर अंगद बैठे | कबीर साहब और इनके सिधारने के बाद का दृश्य एक सा है | सिर्फ एक चादर ही हिन्दू और मुसलामानों के हाथ लगी जिसे दोनों ने बाँट लिया और मकबरा तथा डेरा बनाया |





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