सोमवार, 29 अप्रैल 2013

ये भी खूब! पति को मायके ही ले आती हैं पत्नियां

ये भी खूब! पति को मायके ही ले आती हैं पत्नियां

अशोकनगर।अशोकनगर से लगे आदिवासी ग्राम टकनेरी में लड़कियां विवाह के बाद ससुराल में जाकर नहीं बसतीं, बल्कि अपने पति को ही मायके ले आती हैं। इस परंपरा के चलते 6 परिवारों का यह गांव 20-25 साल में ही 300 परिवारों की बस्ती बन चुका है।

गांव की जनसंख्या 690 है, जहां सभी एक-दूसरे के रिश्तेदार हैं। गांव में महिलाओं की संख्या 60 फीसदी है। ग्राम टकनेरी जिला मुख्यालय से मात्र 2 किमी की दूरी पर है। आदिवासियों की यह एक अजीब परंपरा कई सालों से चलती आ रही है।


गांव की जिस भी लड़की की शादी होती है, वह एक या दो बार ही अपने ससुराल जाती है। उसके बाद वह अपने पति के साथ गांव में ही बस जाती है। गांव के प्रताप (65) पुत्र गंपू आदिवासी ने बताया कि पहले यहां कुल छह घर थे और अब करीब 300 घर हैं। शादी के साल-छह माह बाद ही यहीं आ जाती हैं, जिससे गांव के दामादों की संख्या बढ़ती जा रही है।

मूलभूत सुविधाओं दूर


जपं अध्यक्ष मलकीतसिंह गांव से करीब एक किमी दूर ग्राम पंचायत के ही दूसरे गांव पंवारगढ़ में रहते हैं। इसके बाद भी गांव के आदिवासी मूलभूत सुविधाओं को तरस रहे हैं। यहां 6 में से मात्र 1 हैंडपंप चालू हैं। करनसिंह ने बताया कि यह भी 15-20 दिन में बंद हो जाएगा।

आ रहे बिजली के बिल


गणेशराम आदिवासी ने बताया कि बिजली विभाग का लाइनमैन करीब 4-5 साल पहले तार काट गया था। इसके बाद भी बिल हर महीने आ रहा है। जिस घर में मीटर नहीं है, उसके नाम से भी बिल आ रहा है। बिजली मिलती नहीं है और मिलती भी है तो वोल्टेज कम आता है। हमने 19 हजार का बिल भी जमा किया था, फिर भी तार नहीं जोड़े गए।


टकनेरी की जिस लड़की की शादी होती है वह ससुराल में न रहकर मायके में ही आकर बस जाती है। लड़कियों के दबाव के कारण लड़के यहां आकर रहने लगते हैं। लड़कियां कहती हैं कि तुम यहां रहोगे तो हम यहां रहेंगे नहीं तो नहीं रहेंगे। गांव में मुख्यमंत्री आवास मिशन से 70 कुटीरें, एक खेल का मैदान व सभा भवन भी बनाया जाएगा। - ज्ञानजीत कौर, सरपंच ग्राम बरखेड़ा


परंपरा के अनुसार विदाई के बाद एक-दो बार और जाती हैं, फिर वापस यहीं आकर बस जाती हैं। रज्ोबाई, आदिवासी।

हम भांडरी के रहने वाले हैं। शादी को बीस साल हो गए हैं। दूसरी विदाई के बाद से यहीं आकर बस गए। मेरे ससुर भी यहीं के दामाद हैं। सिरनाम सिंह आदिवासी।


हमारे ससुर भी यहीं के दामाद हैं और हम भी। यहां मजदूरी अधिक मिलती है, इसलिए यहां आकर रहने लगते हैं। रघुनंदन पुत्र देवचंद आदिवासी।

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