शनिवार, 5 जनवरी 2013

छात्रा के दोस्त ने बताया : हम सड़क पर तड़प रहे थे और पुलिस आपस में उलझी थी कि ये किस थाने का केस है


छात्रा के दोस्त ने बताया : हम सड़क पर तड़प रहे थे और पुलिस आपस में उलझी थी कि ये किस थाने का केस है

दिल्ली दुष्कर्म केस के एकमात्र चश्मदीद ने घटना से लेकर पुलिस थाने और अस्पताल तक की खौफनाक कहानी सुनाई


नई दिल्ली . दिल्ली दुष्कर्म पीडि़त छात्रा का दोस्त पहली बार सामने आया। शुक्रवार को इस एकमात्र चश्मदीद ने समाचार चैनल जी न्यूका के जरिये सिलसिलेवार बताया कि १६ दिसंबर की रात क्या हुआ था। उसी की जुबानी इस कहानी में हमने यह ध्यान रखा है कि पीडि़ता की पहचान जाहिर न हो और पीडि़त पक्ष और अदालत में चल रहे मुकदमे पर कोई नकारात्मक असर न पड़े। हम इसे गंभीरत के साथ इसलिए छाप रहे हैं क्योंकि देश के लिए यह जानना जरूरी है कि किन लोगों की लापरवाही के चलते पीडि़ता को समय पर मदद नहीं मिली।

'बस में सवार छह लोगों ने हमें बेरहमी से मारा। बस के शीशों पर काली फिल्म चढ़ी थी और पर्दे लगे थे। लाइटें भी बंद थीं। हम एक-दूसरे को बचाने की कोशिश कर रहे थे। शोर भी मचाया। मेरे दोस्त ने पुलिस को फोन करने का प्रयास भी किया। लेकिन गुंडों ने उनका मोबाइल छीन लिया। मेरे सिर पर रॉड मारी गई। फिर मैं बेहोश हो गया।

होश आया तो देखा-वे बस को यहां से वहां दौड़ा रहे हैं। कोई दो-ढाई घंटे तक ऐसा चलता रहा। उसके बाद महिपालपुर फ्लाईओवर के नीचे हम दोनों को फेंक दिया। वे मेरी दोस्त को कुचलना भी चाहते थे, लेकिन किसी तरह मैंने उन्हें खींचकर बस के नीचे आने से बचाया। हमारे पास कपड़े नहीं थे। शरीर से खून बह रहा था। हम इंतजार करते रहे कि कोई तो मदद करेगा। कई गाडिय़ां पास से गुजरीं, मैंने हाथ हिलाकर रुकने को कहा... ऑटो, कार वाले स्पीड स्लो करते लेकिन रुका कोई नहीं। मैं चिल्लाता रहा कि कोई कपड़े तो दे दो, लेकिन किसी ने कपड़े नहीं दिए। 20-25 मिनट तक हम मदद के लिए लोगों को पुकारते रहे। १५-२० लोग वहां खड़े थे। कोई कह रहा था कि लूट का मामला होगा। डेढ़-दो घंटे हम वहीं पड़े रहे। वे चाहते तो पीसीआर, एम्बुलेंस का इंतजार करने के बजाय हमें अस्पताल ले जा सकते थे। फिर किसी ने फोन किया। तीन पीसीआर वैन आई। लेकिन पुलिस वाले आपस में ही उलझे रहे। कोई आधा घंटे तक वे बहस करते रहे कि ये किस थाने का केस है? इसके बाद उन्होंने हमें सफदरगंज अस्पताल पहुंचाया। महिपालपुर से पास के अस्पताल नहीं ले गए। पहले एम्स ले जाने वाले थे। इसमें ढाई घंटे लग गए। वहां भी किसी ने मदद नहीं की। किसी ने कंबल तक नहीं दिया। सफाईवाले से मदद मांगी। कहा पर्दा ही दे दो। ठंड लग रही है। लेकिन किसी ने नहीं दिया।

मेरे हाथ-पैर से खून बह रहा था। मैं हाथ भी नहीं उठा पा रहा था। पैर में फ्रैक्चर था। लेकिन घटना की रात से अगले तीन-चार दिन थाने में ही रहा। मैंने भी पहले सोचा कि मामले को छिपाया जाए। मैंने सबसे कहा, एक्सीडेंट हुआ है। घटना वाली रात को ही मैं पुलिस थाने आ गया था। वहां से मैंने दोस्तों को फोन लगाकर एक्सीडेंट की ही जानकारी दी। यह केस बहुत बड़ा हो गया था। इस वजह से शिकायत दर्ज हो पाई। एसडीएम के सामने बयान होना था। सभी ने कहा कि मैं मौजूद रहूंगा तो दोस्त कान्फिडेंट रहेगी। मैं हॉस्पिटल पहुंचा। वह वेंटिलेटर पर थी। ऑक्सीजन मास्क लगा था। बोलने के लिए मास्क हटाना पड़ता था। फिर भी उन्होंने बयान दर्ज कराया। तीन-चार पन्ने के स्टेटमेंट पर सिग्नेचर भी किए। उस दौरान बहुत सी ऐसी बातें भी सामने आईं जो मुझे भी पता नहीं थी। इतनी क्रूरता तो जानवर भी नहीं कर सकता। वह भी शिकार को गला दबाकर मार डालता है। यहां तो जिंदा इंसान के साथ ऐसा किया कि मैं घटना के बारे में कह भी नहीं सकता। अगले दिन पता चला कि एसडीएम ने पुलिस पर दबाव डालने का बयान दिया है। जबकि वह सही स्टेटमेंट था। मेरी दोस्त की कोशिश बेकार गई। मेडिसिन देने का समय हो गया था, लेकिन वह डॉक्टरों के टोकने के बावजूद बयान देती रही थीं। मेरी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। मैं सो भी नहीं पा रहा था। जिनके साथ आप रहते हैं, आपकी दोस्त हैं, तो उसकी तस्वीर आपके सामने आती है। आप अपने आपको ब्लेम करते हो। आप गए ही क्यों? वही बस क्यों ली? ये क्यों नहीं किया? दो हफ्ते तक तो मैं बात भी नहीं कर पा रहा था। कोई कुछ पूछता भी था तो इरिटेशन होता था।

लोग पूछते हैं कि आपने जान बचाने की सोची क्या? मैंने जवाब दिया-नहीं। ऐसा तो जानवर भी नहीं सोचता होगा। आपका दोस्त मुश्किल हालात में है तो उसे छोड़कर भागने की सचा ही नहीं जा सकता। ऐसा करता तो आज मैं पागल हो जाता। मैं जी भी नहीं पाता। होश रहने तक कोशिश की। कम से कम मुझे इस बात का खेद नहीं है कि मैंने कोशिश नहीं की, लेकिन सोचता हूं कि काश मैं बचा पाता।

मुझे सरकार की ओर से किसी ने संपर्क नहीं किया है। हिदायत मिलती थी कि आप लोगों से संपर्क न करें। आप कुछ बोलते हैं तो केस बिगड़ सकता है। यदि मेरी दोस्त को शुरू से अच्छे हॉस्पिटल में ट्रीटमेंट मिलता तो तस्वीर कुछ और बनती। शायद वो हमारे बीच होती। मुझे लगा कि प्रेशर के मुताबिक फैसले लिए गए। प्रोटेस्ट को ध्यान में रखकर सिंगापुर भेजा। प्रदर्शन को देखते हुए फैसले लिए गए।



आम आदमी को कानून या फिर प्रोसीजर से कोई मतलब नहीं होता। उसे रिजल्ट से मतलब होता है। कानून बना रहे हो तो फॉलो करा रहे हो या नहीं। पुलिस या कोर्ट ही उन्हें फॉलो कराते हैं। कानून बन जाते हैं लेकिन उन्हें फॉलो कोई नहीं कराता। क्या गारंटी है कि उनको फॉलो करे। पुलिस में जज्बा पैदा करे। सब कुछ ऐसा चल रहा था कि पीछे लात मारो तो ही चलेगा। पुलिस आपस में ही उलझी रही। एक महिला थी। कह रही थी कि घर पर आटा-पानी खत्म है। दो दिन से घर नहीं गई। घरवालों की शक्ल नहीं देखी। वह मेरा केस देख रही थी, इसलिए मुझे सुना रही थी। एक पुलिसवाला अपनी ड्यूटी कर रहा हूं। वह क्यों चाहता है कि उसकी सराहना की जाए। आपने सभी को पकड़ लिया तो अपनी पीठ क्यों थपथपा रहे हो। यह आपका काम है। ड्यूटी है।

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मेरे घरवाले नहीं होते। मेरे पिता और अन्य लोग, वकील मेरी मदद नहीं करते तो मेरी हेल्प देर से होती या नहीं भी होती। पुलिस आदमी को देखकर एक्शन करती है। आम आदमी है तो वह शायद आपसे मिले ही नहीं। फलां अफसर नहीं है। कल आना। दूसरे दिन जाने पर हो सकता है कि वे कहे कि दो दिन बार आएं।



मैं मानता हूं कि पुलिस एक आदमी नहीं बल्कि सिस्टम है। उसका सबसे बड़ा रखवाला भी है। वह सिस्टम में है। सिस्टम यदि काम नहीं कर रहा तो उसे भी नैतिक आधार पर महसूस होना चाहिए। हट जाना चाहिए। खाकी वर्दी में ठीक से काम नहीं कर पा रहा है तो दूसरे के पास वर्दी होनी चाहिए। वे कुछ दिनों के लिए पेट्रोलिंग बढ़ाएंगे। आप उनके पास जाएंगे तो रोना रोते हैं। फोर्स कम है। वीआईपी ड्यूटी में लगे हैं।

बिना परमिट के बस इतने दिनों तक कैसे चलती रही? इतनी चीजें होने के बाद भी वह कोई कार्रवाई नहीं करते। उन्हें खुद ही नैतिक जिम्मेदारी महसूस होनी चाहिए। उन्हें लगना चाहिए कि मेरे रहते यह हुआ है। मैंने अच्छे से काम नहीं किया है। उन्हें खुद ही महसूस करना चाहिए।

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किसी की हेल्प करने की स्थिति में हैं तो इनकार मत कीजिए। उस दिन एक व्यक्ति भी मेरी मदद करता तो तस्वीर कुछ और होती। बदलाव व्यक्तिगत स्तर पर होगा। सिस्टम बनाने वाले और उसे चलाने वालों में जरा भी अंदर कुछ बचा हो तो उन्हें कुछ करना चाहिए। बहुत हो चुका। अब बस। हम प्रोटेस्ट करते रहेंगे। वे बहाने ढूंढते रहेंगे कि कैसे प्रोटेस्ट खत्म हो। कोई मर गया, तो उसका आरोप लगाएंगे। मेट्रो बंद कर देंगे। इसकी जरूरत नहीं है। हमारा विश्वास जीतने की जरूरत है। ताकि प्रदर्शन करने की जरूरत ही न पड़े।

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समिति में जस्टिस जेएस वर्मा, जस्टिस लीला सेठ, गोपाल सुब्रमण्यम हैं। मैं तीनों से रिक्वेस्ट करूंगा कि हमारे पास काफी कानून है। लेकिन आम पब्लिक को एफआईआर से जुड़ी समस्याओं और डर का सामना करना पड़ता है। पुलिस वाला एफआईआर करेगा या नहीं करेगा। यदि करता भी है तो कानूनी पचड़े में आम आदमी फंसना नहीं चाहता। एक घटना को लेकर फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की कोशिश की जा रही है। क्यों न कुछ ऐसा किया जाए जो फास्ट ट्रैक या नॉर्मल ट्रैक बनाने की जरूरत ही न पड़े।

इस केस की बात करें तो शायद मुझसे बेहतर कोई हो ही नहीं सकता। मैंने इस पल को जीया है। मैंने फेस किया है। मैंने जो देखा है, वह दूसरा कोई महसूस नहीं कर सकता। मैंने जो जीया है, वह मैं ही बता सकता हूं। मेरे सामने जो गुजरी है, वह मैं ही बता सकता हूं।

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