रविवार, 3 जून 2012

आचार्य महाश्रमण मरने की कला

आओ हम जीना सीखें  

मरने की कला

बालोतरा जीने की कला की भांति मरने की भी कला होती है। मृत्यु की कला को वही व्यक्ति जान सकता है जो जीवन की कला से अनभिज्ञ होता है। भगवान महावीर कला मर्मज्ञ थे। उन्होंने जैसे जीने की कला का दर्शन दिया, वैसे ही मृत्यु की कला को भी विश्लेषित किया। महावीर के दर्शन में जीने और मरने का महत्व नहीं है। महत्व संयम और समाधि का है। असंयम मय जीवन भी काम्य नहीं है, मृत्यु भी काम्य नहीं है। मृत्यु एक ऐसा शब्द है जिसके नाम से प्राणी भय खाता है। मृत्यु की अनिवार्य सच्चाई को जानते हुए भी व्यक्ति की चाह रहती है कि मृत्यु उसके पास न आए। भले वृद्धावस्था ने उसकी देह को जर्जरित कर दिया हो, भले बीमारी ने उसे क्षीणकाय कर दिय हो, भले ही वह जीवन की अंतिम सांसें ही क्यों न गिन रहा हो। जैसे-तैसे मौत को दूर धकेल सौ वर्ष जीने की चाह बनी रहती है। इस चाह से प्रेरित व्यक्ति अपनी उम्र को जानने के लिए कभी ज्योतिषियों की चरणरज जुहारता है, कभी देवी-देवताओं की मनौतियां करता है, कभी सिद्ध पुरुषों से वरदान की याचना करता है।




प्रकृति के नियम




प्रकृति मनुष्य की चाह के अनुसार नहीं, अपने नियम से चलती है। वह कब, किसे, कहां से उठाती है प्राय: खबर तक नहीं लगने देती। वह न बालक पर अनुकम्पा करती है न जवान पर। मृत्यु के आगे व्यक्ति के सारे प्रयत्न विफल हो जाते है। उसे मृत्यु की गोद में सोना ही पड़ता है। किसी कवि ने इस तथ्य को चार पंक्तियों में बहुत सुंदर प्रस्तुति दी है-




स्वर्ण-भस्म के खाने वाले इसी घाट पर आए,




दाने बीन चबाने वाले इसी घाट पर आए।




गगन-ध्वजा फहराने वाले इसी घाट पर आए,




बिना कफन मर जाने वाले इसी घाट पर आए।।




यह घाट और कोई नहीं, श्मशान घाट अथवा मृत्यु घाट ही है। जहां प्राणी ऐहिक शरीर से सदा के लिए सो जाता है। मृत्यु चूंकि एक अनिश्चितकालीन घटना है। भगवान महावीर ने एक सूत्र दिया- समयं गोयम! मा पमायए।




गौतम! तुम क्षण भर भी प्रसाद मत करो। गौतम के प्रतीक बनाकर महावीर ने प्राणी मात्र को जागरूकता का संदेश दिया। उन्होंने कहा कि यह जीवन पके हुए वृक्ष की तरह कभी भी झड़ सकता है। ओस बिंदु की भांति हवा के हल्के से झोंके से कभी भी मिट्टी में मिल सकता है इसलिए इस जीवन को सफल बनाने के लिए हर क्षण जागरूक रहो।




वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो लगता है कि मनुष्य भौतिक सुख-सुविधाओं को जुटाने में जितना जागरूक है अध्यात्म के प्रति उतना ही अधिक लापरवाह है। वह पदार्थों की प्रचुरता में सुख और पदार्थों की अल्पता में दुख की कल्पना करता है। इस कल्पना के आधार पर वह येनकेन प्रकारेण अधिक से अधिक धन संग्रह करने में प्रयत्नशील रहता है। उसका यह प्रयत्न तब तक चालू रहता है जब तक उसके शरीर की शक्ति चूक न जाए। धार्मिक आचरण करने व अपने आपका जानने-समझने के लिए उसके पास समय नहीं होता है अथवा बहुत कम होता है। जब धर्माचरण के संबंध में संतजनों की ओर से व्यक्ति को प्रेरित किया जाता है तो कभी-कभी उसका उत्तर होता है कि धर्म अभी क्यों करें ? जिंदगी बहुत बाकी है। अभी तो पैसा कमाने के और ऐशो-आराम से जिंदगी बसर करने के दिन है। धर्म तो तब करेंगे जब रिटायर हो जाएंगे। इसी तथ्य को उजागर करने वाला एक सुंदर व्यंग्य है जो इस मानवीय दुर्बलता को चित्रित करता है।




आगम में कहा गया है- कल का भरोसा तीन व्यक्ति ही कर सकते है। एक वे, जो मौत के साथ अपनी दोस्ती मानते हैं। उन्हें भरोसा होता है कि दोस्ती के नाते मौत उन्हें नहीं ले जाएगी। दूसरे वे व्यक्ति होते है जो अपने आपको कुशल धावक मानते है। उन्हें विश्वास होता है कि मौत इस रास्ते से आएगी तो मैं उस रास्ते से पलायन कर जाऊंगा। तीसरे वे व्यक्ति होते है जो अपने आपको अमर मानते है। उनके मन में दृढ़ निश्चय होता है कि मौत उन्हें कभी आएगी ही नहीं। पर काल का अंतहीन प्रवास इस बात का साक्षी है कि मृत्यु ने आज तक न तो किसी के साथ दोस्ती की है, न कोई पलायन करने में सफल हुआ है और न कोई अमर बना है।




आचार्य महाश्रमण




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें