हरियाणा के पिंजौर के जंगलों में एक खास चीज पर काम चल रहा है। जंगल के बीच एक छोटी सी इमारत में सीसीटीवी छवियों के ज़रिए उनकी प्रत्येक हरकत पर नजर रखी जा रही है. जिसकी सभ्यता में कई राज छुपे हैं। यह ऐसा काम है, जो एक प्राचीन दाह संस्कार के भविष्य की सुरक्षा में मददगार साबित हो सकता है।
ये काम है गिद्धों को संख्या को बढ़ाना और उनकी प्रजनन में सहायता करना। हरियाणा फोरेस्ट विभाग और मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के साझा प्रयास से गिद्धों का वल्चर कंजरवेशन ब्रीडिंग सेंटर 2001 में खोला गया है। डॉक्टरों की टीम पूरी मेहनत से गिद्धों की जनसंख्या में बढ़ाने में लगी हुई है।
उनके इस काम से न केवल प्रकृति में संतुलन आएगा, बल्कि जीवों के सड़े हुए शवों के तुरंत निबटान के लिए भी मददगार साबित होगा और विश्व के एक सबसे पुराने धर्म के लोगों को भी उम्मीद बंधेगी। 80 के दशक तक गिद्धों के संख्या 40 मिलियन थी। 2007 तक इनकी संख्या में 99 फीसदी कमी आने से इनकी संख्या 100000 रह गई।इस परियोजना को शुरू होने में और आगे बढ़ने में अभी वक्त लगेगा। गिद्ध धीमे प्रजनन करते हैं और लंबा जीवन जीते हैं। यहां 30 गिद्धों ने 2007 से 60 जोड़ी बच्चों को जन्म दिया। शिशु गिद्धों में से 16 को कृत्रिम ऊष्मायन से पैदा किया गया है। गौरतलब है कि गिद्ध 60 वर्ष तक जी सकते हैं।
वो जब पांच और छह वर्ष के हो जाते हैं, तो प्रजनन शुरू करते हैं और साल में केवल एक बार अंडा देते हैं. हालांकि, अगर उनके घोंसले से अंडा निकाल दिया जाए, तो गिद्ध एक हफ्ते के अंदर फिर से अंडा देती है. प्रत्येक अंडे की सफलता दर 50 फीसदी है, लिहाज़ा कृत्रिम ऊष्मायन के लिए घोंसले से अंडा हटाकर (और पक्षी को पुन: अंडा देने के लिए प्रोत्साहित करना) ये सुनिश्चित करते हैं कि प्रत्येक वर्ष एक पक्षी दो अंडे दे सके।
प्रजनन केंद्र में 127 गिद्ध (55 व्हाइट बैक्ड, 55 लांग बिल्ड और स्लेंडर बिल्ड 15 और दो हिमालयन ग्रिफोन) मौजूद हैं। ध्यान रहे कि गंभीर खतरे वाली इन प्रजाति के गिद्धों की बड़ी संख्या पूरी दुनिया में सिर्फ यहीं पर मौजूद हैं। क्यों गायब होने लगे गिद्धएक खास डिक्लोफेनाक दवा के इस्तेमाल से गिद्धों की संख्या में भारी कमी आई। डिक्लोफेनाक का इस्तेमाल पशुओं के स्तन में सूजन और इंसानों में सूजन को कम करने के लिए किया जाता है। एशियाई गिद्धों के लिए उन शवों को खाना प्राणघातक होता है। 2008 में डिक्लोफेनाक दवा पर सरकार ने प्रतिबंध लगाया।
3000 हजार साल पुरानी प्राचीन प्रथा पर गहराया संकट
1990 के दशकों में दूषित मांस खाने की वजह से गिद्धों की जनसंख्या में काफी गिरावट आई है। करीब तीन हजार सालों से पारसी या भारत के बाहर जोरास्ट्रियंस समाज के लोग अंतिम संस्कार जिसे 'दोखमेनाशिनी' कहा जाता है, इसके लिए पूरी तरह से गिद्धों पर निर्भर हैं। जिसमें मृतक के शरीर को पक्षी खाते हैं। ऐसे में शवों के पक्षी भक्षण के लिए 'टॉवर्स ऑफ साइलेंस' के सुपुर्द करने की पारसी परंपरा खतरे में है। शवों को सुखाने के लिए सौर सकेन्द्रक के उपयोग और उनके मांस को अन्य पक्षियों जैसे चील और कौव्वे के लिए छोड़ने वाली तमाम प्रक्रियाएं, गिद्धों के बगैर अधूरी हैं। ज्यादातर पारसी लोग अपनों के शव को टॉवर ऑफ साइलेंस में रखे जाने का चयन किया, क्योंकि उनका धर्म उन्हें सिखाता है कि दाह संस्कार और ज़मीन में दफनाए जाने से तत्व दूषित होते हैं. लेकिन कुछ सुधारवादी लोग दाह संस्कार या कब्रिस्तान में दफनाए जाने की दलील देते हैं, लेकिन ये बात कई परंपरावादी पारसियों के गले नहीं उतरती। उनका कहना है कि हम ये नहीं कह सकते, क्योंकि यहां गिद्ध नहीं हैं, इसलिए इस व्यवस्था को खत्म किए देते हैं। यह एक मुस्लिम को कुछ ऐसा कहना होगा कि आप दफनाने को भूलकर दाह संस्कार क्यों नहीं करते।
2001 में, भारत में 69,601 पारसी थे, लेकिन एक दशक पश्चात हुई ताज़ा जनगणना में यह माना जा रहा है कि यह आंकड़ा 60,000 तक पहुंच गया है. इससे एक ही सवाल उठता है कि ये प्राचीन दोखमेनाशीनी व्यवस्था, समुदाय और गिद्ध तीनों ही लुप्त हो जाएगें
ये काम है गिद्धों को संख्या को बढ़ाना और उनकी प्रजनन में सहायता करना। हरियाणा फोरेस्ट विभाग और मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के साझा प्रयास से गिद्धों का वल्चर कंजरवेशन ब्रीडिंग सेंटर 2001 में खोला गया है। डॉक्टरों की टीम पूरी मेहनत से गिद्धों की जनसंख्या में बढ़ाने में लगी हुई है।
उनके इस काम से न केवल प्रकृति में संतुलन आएगा, बल्कि जीवों के सड़े हुए शवों के तुरंत निबटान के लिए भी मददगार साबित होगा और विश्व के एक सबसे पुराने धर्म के लोगों को भी उम्मीद बंधेगी। 80 के दशक तक गिद्धों के संख्या 40 मिलियन थी। 2007 तक इनकी संख्या में 99 फीसदी कमी आने से इनकी संख्या 100000 रह गई।इस परियोजना को शुरू होने में और आगे बढ़ने में अभी वक्त लगेगा। गिद्ध धीमे प्रजनन करते हैं और लंबा जीवन जीते हैं। यहां 30 गिद्धों ने 2007 से 60 जोड़ी बच्चों को जन्म दिया। शिशु गिद्धों में से 16 को कृत्रिम ऊष्मायन से पैदा किया गया है। गौरतलब है कि गिद्ध 60 वर्ष तक जी सकते हैं।
वो जब पांच और छह वर्ष के हो जाते हैं, तो प्रजनन शुरू करते हैं और साल में केवल एक बार अंडा देते हैं. हालांकि, अगर उनके घोंसले से अंडा निकाल दिया जाए, तो गिद्ध एक हफ्ते के अंदर फिर से अंडा देती है. प्रत्येक अंडे की सफलता दर 50 फीसदी है, लिहाज़ा कृत्रिम ऊष्मायन के लिए घोंसले से अंडा हटाकर (और पक्षी को पुन: अंडा देने के लिए प्रोत्साहित करना) ये सुनिश्चित करते हैं कि प्रत्येक वर्ष एक पक्षी दो अंडे दे सके।
प्रजनन केंद्र में 127 गिद्ध (55 व्हाइट बैक्ड, 55 लांग बिल्ड और स्लेंडर बिल्ड 15 और दो हिमालयन ग्रिफोन) मौजूद हैं। ध्यान रहे कि गंभीर खतरे वाली इन प्रजाति के गिद्धों की बड़ी संख्या पूरी दुनिया में सिर्फ यहीं पर मौजूद हैं। क्यों गायब होने लगे गिद्धएक खास डिक्लोफेनाक दवा के इस्तेमाल से गिद्धों की संख्या में भारी कमी आई। डिक्लोफेनाक का इस्तेमाल पशुओं के स्तन में सूजन और इंसानों में सूजन को कम करने के लिए किया जाता है। एशियाई गिद्धों के लिए उन शवों को खाना प्राणघातक होता है। 2008 में डिक्लोफेनाक दवा पर सरकार ने प्रतिबंध लगाया।
3000 हजार साल पुरानी प्राचीन प्रथा पर गहराया संकट
1990 के दशकों में दूषित मांस खाने की वजह से गिद्धों की जनसंख्या में काफी गिरावट आई है। करीब तीन हजार सालों से पारसी या भारत के बाहर जोरास्ट्रियंस समाज के लोग अंतिम संस्कार जिसे 'दोखमेनाशिनी' कहा जाता है, इसके लिए पूरी तरह से गिद्धों पर निर्भर हैं। जिसमें मृतक के शरीर को पक्षी खाते हैं। ऐसे में शवों के पक्षी भक्षण के लिए 'टॉवर्स ऑफ साइलेंस' के सुपुर्द करने की पारसी परंपरा खतरे में है। शवों को सुखाने के लिए सौर सकेन्द्रक के उपयोग और उनके मांस को अन्य पक्षियों जैसे चील और कौव्वे के लिए छोड़ने वाली तमाम प्रक्रियाएं, गिद्धों के बगैर अधूरी हैं। ज्यादातर पारसी लोग अपनों के शव को टॉवर ऑफ साइलेंस में रखे जाने का चयन किया, क्योंकि उनका धर्म उन्हें सिखाता है कि दाह संस्कार और ज़मीन में दफनाए जाने से तत्व दूषित होते हैं. लेकिन कुछ सुधारवादी लोग दाह संस्कार या कब्रिस्तान में दफनाए जाने की दलील देते हैं, लेकिन ये बात कई परंपरावादी पारसियों के गले नहीं उतरती। उनका कहना है कि हम ये नहीं कह सकते, क्योंकि यहां गिद्ध नहीं हैं, इसलिए इस व्यवस्था को खत्म किए देते हैं। यह एक मुस्लिम को कुछ ऐसा कहना होगा कि आप दफनाने को भूलकर दाह संस्कार क्यों नहीं करते।
2001 में, भारत में 69,601 पारसी थे, लेकिन एक दशक पश्चात हुई ताज़ा जनगणना में यह माना जा रहा है कि यह आंकड़ा 60,000 तक पहुंच गया है. इससे एक ही सवाल उठता है कि ये प्राचीन दोखमेनाशीनी व्यवस्था, समुदाय और गिद्ध तीनों ही लुप्त हो जाएगें
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