राजेन्द्र स्वर्णकार
इक रात को यादों के क़ासिद ने कुंडा दिल का खटकाया !
चहकता बचपन, महकता आंगन, हंसता-खेलता जीवन था !
क्या ख़ुशहाली थी ! वो घर इक जन्नत था, हसीं चमन था !
फिर… शहनाई थी, मातम था, …और आंसू थे, अफ़साने थे !
फिर… मिलन-जुदाई की घड़ियां थीं, …और बेबस दीवाने थे !
वही हज़ारों रात से लंबी रात अभी तक जारी है !
न होंगे ख़त्म ख़ुतूत कभी …कॅ इनका आना जारी है !
दिल का दर्द भी जारी है ! अभी ज़िंदगी जारी है !
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