मंगलवार, 29 मई 2012

पगमार्क मिले, रास्ता नहीं

सिरोही/माउंट आबू। वन्यजीव गणना के लिए 1999 का वर्ष माउण्ट आबू के लिए खुशखबर वाला था। लेकिन, इसके बाद न तो यह पगमार्क दिखे और न ही भविष्य में इन टाइगर्स को यहां दिखने की संभावना है। यहां पर टाइगर का आई विटनेस और फुटमार्क दोनों मिले थे। इस कारण इसे रेकॉर्ड में भी दर्ज किया गया। लेकिन, एक चीज आज भी सवाल बनी हुई है कि आखिर यह आया कहां से था? वन विभाग के कर्मचारियों ने इसका ट्रांसपास ढूंढ़ने की कोशिश की लेकिन, सफलता हाथ नहीं लगी। ऎसे में भविष्य में माउण्ट आबू वन खण्ड को किसी अन्य जंगल के साथ कॉरीडोर बनाकर टाइगर्स को यहां लाने की संभावनाएं भी क्षीण ही हैं।
rajasthan 
2001 की सेंसस में गुजरात में टाइगर को पूरी तरह से विलुप्त माना गया है। लेकिन, गुजरात के वन विभाग के दस्तावेजों में 1997 में राजस्थान बॉर्डर पर टाइगर के पगमार्क मिलने और दिसम्बर 1991 से जनवरी 1992 के बीच में टाइगर के मृत मिलने का जिक्र है। वैसे सिरोही से सटे बनासकांठा के जंगलों में 1950 तक टाइगर के अस्तित्व होने का रेकर्ड भी है। यह माना जा रहा है कि नब्बे के दशक मे गुजरात व राजस्थान में नजर आए टाइगर के पगमार्क मध्यप्रदेश के जंगलों से पलायन करे किसी टाइगर के हो सकते हैं। ऎसे में दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान के इन जंगलों को मध्यप्रदेश के जंगलों से जोड़ने के लिए कॉरीडोर विकसित करने की संभावनाएं भी नजर आती हैं।


10 कॉरीडोर चिह्नित


फिलहाल भारत में डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने टाइगर्स के एक टेरीटरी से दूसरी टेरीटरी में जाने के लिए दस कॉरीडोर चिह्नित किए हैं। इनमें मध्यप्रदेश में काम चल रहा है। वहीं मेघालय के सिजु वाइल्ड लाइफ सेंचुरी और रिवाक रिजर्व फॉरेस्ट के बीच हाथियों के लिए सिजु-रिवाक कॉरीडोर विकसित करके सुरक्षित भ्रमण मार्ग बनाने के बाद वल्र्ड ट्रस्ट लैण्ड और वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया केरला में तिरूनली-कुडरकोट कॉरीडोर विकसित कर रही है। वैसे माउण्ट आबू-सुंधा माता कॉरीडोर विकसित करके भालुओं के लिए एक सुरक्षित विचरण मार्ग उपलब्ध करवाने की संभावनाएं सिरोही और जालोर में हैं।


शिकारगाहें गवाह


माउण्ट आबू में राजस्थान और गुजरात के विभिन्न राजघरानों की शिकारगाहें इस बात की गवाह हैं कि यहां पर पहले बाघों का अस्तित्व था। जानकारी के अनुसार वर्ष-1950 तक दर्जनों बाघ यहां देखे जा सकते थे, लेकिन बाद में इनकी संख्या घटती गई और एक समय आया कि वे विलुप्त हो गए। लंबे अंतराल के बाद 1999 में बाघ फिर देखा गया। वन विभाग के सूत्रों के अनुसार 1999 में गुरूशिखर व उतरज के बीच वन्यक्षेत्र में तत्कालीन कैटल गार्ड लक्ष्मण सिंह ने रिपोर्ट दी थी कि उसने सफेद व पीले रंग के बीच काली धारियों वाला पेंथर जैसा लेकिन उससे बड़ा और भिन्न प्रकार का बेहद फुर्तीला जानवर देखा है।

जो अचपुरा के वन्यक्षेत्रों की ओर कूच कर गया। इसकी सूचना तुरंत तलहटी रेंज को दी गई। जहां से अचपुरा बीट तत्कालीन प्रभारी वनरक्षक देवाराम को क्षेत्र में बाघ की उपस्थिति का पता लगाने के निर्देश दिए गए। देवाराम ने अन्य सहयोगियों के साथ वनक्षेत्र में बाघ ढंूढ़ने की निरंतर कोशिश की। इस दौरान कई जगह उन्हें बाघ के पगमार्क नजर आए। जिससे क्षेत्र में बाघ की उपस्थितिका इंद्राज विभाग रेकार्ड में दर्ज किया।



इनका कहना है...


प्रत्यक्ष देखे जाने व पगमार्को के आधार पर वन्यजीव गणना रिकार्ड में बाघ की उपस्थिति होना दर्ज है, लेकिन यह बता पाना कठिन कार्य है कि वर्तमान में बाघ वनमंडल क्षेत्र में है अथवा नहीं।जी.के. वर्मा वन्यजीव, वनमंडल अघिकारी,
माउंट आबू


1999 में बाघ की यहां उपस्थिति दर्ज तो है लेकिन वह कैसे और किन परिस्थितियों में यहां आया इसका कोई जिक्र नहीं है। उसके बाद वह कहां गया कुछ कहा नहीं जा सकता। अर्जुनदान चारण सहायक वन सरंक्षक, माउंट आबू


हर वन्यजीव के पगमार्क अलग होते हैं। अगर पगमार्क को पीओपी के माध्यम से सही ढंग से ट्रेस किया गया हो तो इनसे जानवर व उसके सैक्स के बारे में जानकारी मिल जाती है। कई बार रणथम्भोर में वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के एक्सपर्ट्स को इसी तरह से पगमार्क के माध्यम से टाइगर्स की पहचान के लिए बुलवाया जाता रहा है। आकांक्षा चौधरी डिप्टी कंजरवेटर फॉरेस्ट (वाइल्ड लाइफ), जोधपुर।



पगमार्क बताते हैं प्रजाति और लिंग



जानवरों के पगमार्क भी एक तरह के नहीं हो सकते। हर जानवर के पगमार्को की विशिष्टता होती है। दुनिया में कैट फेमिली में 41 प्रजातियां हैं। इनमें बिग कैट की प्रमुख पांच प्रजातियों में बाघ आता है। इन सभी प्रजातियों के पगमार्क यहां तक कि नर और मादा की पहचान भी पगमार्क से की जा सकती है। कई बार तो इनकी उम्र भी पगमार्क बता देते हैं। यह जरूरी है कि जानवर के पगमार्क को सही तकनीक से उठाया गया हो। भारत में 1972 में टाइगर्स की सेंसस के लिए इस पद्धति का इस्तेमाल शुरू किया गया।

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