शनिवार, 26 मई 2012

आचार्य महाश्रमण मन को संस्कारी बनाया जाए


मन को संस्कारी बनाया जाए
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बालोतरा मन लोभी मन लालची, मन चंचल मन चोर।मन के मते न चालिए, पलक-पलक मन ओर।।इस पद्य में मन को निकृष्ट और हेय बताया गया है। चिंतन का यह एक पक्ष है। दूसरी दृष्टि से विचार करें तो मन अच्छा भी है। मन से ही भगवान का स्मरण किया जाता है। मन के द्वारा ही किसी के हिताहित का चिंतन किया जाता है। मन के माध्यम से समस्याओं का समाधान भी पाया जा सकता है। मन हमारा नौकर है पर कभी-कभी नौकर भी मालिक को परेशान कर देता है। अपेक्षा है मन को संस्कारी बनाया जाए, संयत बनाया जाए और उसे अच्छी सोच में नियोजित किया जाए। प्रश्न होगा-सोच को सम्यक् कैसे बनाया जाए? अध्यात्मविदों ने सोच की प्रक्रिया की प्रस्तुति दी। उनके अनुसार व्यक्ति मित, हित और, ऋत (यथार्थ) चिन्तन करे। इस त्रिपदी के प्रयोग से वह वैयक्तिक, पारिवारिक और सामूहिक दृष्टि से विकास के नए कीर्तिमान स्थापित कर सकता है।

मित चिन्तन: कैसे सोचें? यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। हर कार्य को करने का अपना एक तरीका होता है, एक शैली होती है। सोचने का भी तरीका होता है। योजनाबद्ध कलात्मक तरीके से किया गया प्रशस्त चिन्तन लाभदायक होता है। प्रशस्त सोच का पहला बिन्दु है, मित चिन्तन। मित चितंन अर्थात् सीमित चिन्तन। सीमातिरिक्त सोचना मनुष्य का स्वभाव सा बन गया है। वह निष्प्रयोजन सोचता रहता है। लक्ष्य प्रतिबद्ध होकर आदमी सोचे तो बात समझ में आती है पर बिना प्रयोजन दिमाग में विचारों की उधेड़बुन चलती रहती है। आदमी सोता है विश्राम के लिए, पर सोते समय दिमाग को खाली करके नहीं सोता। टीवी सीरियल की तरह विचारों के प्रतिबिम्ब उभरते रहते हैं। आदमी पूरी और गहरी नींद नहीं ले पाता और वह अनिद्रा का शिकार हो जाता है। खाना खाते समय भी मन स्मृति और कल्पना दोनों के साथ उड़ान भरता रहता है। फलत: क्या खाया? कितना खाया अथवा खाया या नहीं? कभी-कभी यह भी भान नहीं रहता। आदमी चलता है। चलते समय भी विचारों का प्रवाह नहीं रुकता। कभी-कभी तो आदमी विचारों में इतना खो जाता है कि उसका गंतव्य पथ छूट जाता है और वह दूसरे मार्ग पर चल पड़ता है।

यह सत्य है कि सामान्य व्यक्ति सर्वथा चिन्तन मुक्त नहीं हो सकता पर वह एक सीमा रेखा तो खींच ही सकता है। हालांकि समस्या के समाधान के लिए और नए सृजन के लिए चिंतन करना अपेक्षित भी है पर चिंतन कब करना? कितना करना? कैसे करना? यह विवेक भी आवश्यक है।

मस्तिष्कीय ज्ञान तन्तुओं को क्रियाशील और सक्षम बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि आदमी उतना ही सोचे जितना आवश्यक है। जिस समय जो क्रिया करे मन उसी में लीन रहे। इस पद्धति से चिंतन संयमित हो सकता है। प्रेक्षाध्यान के सन्दर्भ में इस क्रिया को भावक्रिया कहा जाता है। इसमें मन को एक आलम्बन मिल जाता है। मन को एकाग्र करने का सबसे सरल उपाय है, श्वास पर चित्त को केन्द्रित करना। मैंने एक बार युवकों की एक गोष्ठी में दीर्घश्वास के साथ नमस्कार मंत्र के जप की बात कही। कुछ दिन बाद एक व्यक्ति मेरे पास आया और बोला-युवाचार्यश्री। आपने तो मेरी समस्या का समाधान कर दिया। मैं अनिद्रा की बीमारी से ग्रस्त था। आपके कथन के अनुसार मैंने नमस्कार महामंत्र का जप शुरू किया। इससे मेरी अनिद्रा की समस्या का समाधान मिल गया।


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