बाड़मेर का विश्व प्रसिद्धगैर डांडिया नृत्य
बाड़मेर पश्चिमी राजस्थान का सीमान्त जिला बाड़मेर अपनी लोक संस्कृति, सभ्यता व परम्पराओं का लोक खजाना हैं।जिले में धार्मिक सहिष्णुता का सागर लहराता हें। इस समुद्र में भाईचारे की लहरें ही नहीं उठती अपितु निष्ठा, आनन्द, मानवता, करूणा, लोकगीतसंगीत, संस्कृति व परम्परोओं के रत्न भी मिलते हैं। बाड़मेर की जनता अपनी समृद्ध कला चेतना निभा रही हैं। यह प्रसन्नता की बात हैं। जिले को गौरव प्रदान करने में गैर नृतकों ने अहम भूमिका निभाई हैं।
मालाणी पट्टी में गैर नृत्यों की होली के दिन से धूम रहती हैं। यह धूम कनाना, लाखेटा, सिलोर, सनावड़ा सहित अने क्षेत्रों में समान रूप से रहती हैं। यही गैर नृत्य बाड़मेर की समृद्ध परम्परा व लोक संस्कृति का प्रतीक हैं। प्रतिवर्ष चैत्र मास में अनेक गैर नृत्य मेले लगते हैं। इन मेलों का धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृति महत्व समान हैं। लाखेटा में किसानों का यह रंगीला मेला प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता हैं। पिछले चार सौ वर्षो से लोगो का प्रमुख धार्मिक आस्था स्थल लाखेटा हैं। जहां बाबा संतोष भारती की समाधि हैं। गैर नर्तको के सतर से अधिक दल इस मेले में भाग लेते हैं। सूय की पहली किरण के साथ गैर नृत्यों का दौर आरम्भ होता हैं। माटी की सोंधी महक, घुंघरूओं की झनक से मदमस्त कर देती हैं। किसानों का प्रमुख गैर नृत्य मेला जिसमें बाड़मेर, जोधपुर, पाली, जालोर जिलो से भी गैर नृतक शरीक होकर इस गैर नृत्य मेले को नई ऊंचाईयां प्रदान करते हैं।
गांवो से युवाबुजुर्गो के जत्थे हर्षोल्लास के साथ रंग बिरंगी वेशभूषा और लोक वाद्य यंत्रों के साथ भाग लेते हैं। मेले में युवा ग्रामीण गोलाकरअर्द्ध गोलाकार घेरे में विभिन्न मुद्राओं में ोल की ंकार, थाल टंकार पर नृत्य करते और हाथों में रखी एक मीटर की डण्डी आजू बाजू के गैरियों की डण्डियों से टकराते हैं और घेरे में घूमते हुए नृत्य करते हैं। गैरिये चालीस मीटर के घाघरे पहन हाथों में डाण्डियें, पांवो में आठआठ किलो वजनी घुंघरू पहन जब नृत्य करते हैं तो पूरा वातावरण कानो में रस घोलने लगता हैं। ोल की ंकार और थाली की टंकार पर आंगीबांगी नांगी जत्था गैर, डाण्डिया गौरों की नृत्य शैली निहारने के लिये मजबूर कर देती हैं। शौर्य तथा लोकगीतों के साथ बारीबारी से गैर दलों द्वारा नृत्य का सिलसिला सूर्यास्त तक जारी रहता हैं। 1520 समूह गैरियों के रूप में भाग लेते हैं गैर दलों की वेशभूषा के अनुरूप ही विभिन्न नृत्य शैलियां होती हैं। सफेद आंगी जो 4040 मीटर कपडे की बनी होती हैं। उस पर लाल कपडा कलंगी लगाकर जब नृत्य करते हैं तो मेले की रंगीनियां तथा मांटी की सोंधी महक श्रद्घालुओं को झूमने पर मजबूर कर देती हैं। सम्पूर्ण मेला स्थल गीतों, फागो और लोकवाद्य-यंत्रों की झंकारों, टंकारो व ंकारो से गुंजायमान हो उठता हैं। लोक संस्कृति को संरक्षण देने वाले लाखेटा, कनाना, कोटडी, सरवडी, कम्मो का वाडा, भलरों का बाडा, मिया का बाडा, खुराणी सहित आप पास के क्षेत्रों में गैर दल चंग की थाप पर गातेनाचते हैं। वहीं इसी क्षेत्र की आंगी बांगी की रंगीन वेशभूषा वाली डाण्डिया गैर नृत्य दल समां बांधने में सफल ही नहीं रहते अपितु मेले को नई ऊंचाईयां प्रदान करते हैं। वीर दुर्गादास की कर्मस्थली कनाना का मेला जो शीतलासप्तमी को लगता हैं, अपने अपन में अनूठा गैर नृत्यमेला होता हैं जो सिर्फ देखने से ताल्लुक रखता हैं। हजारों श्रद्घालु मेले में भाग लेते हैं। सनावड़ा में भी होली के दूसरे दिन का गैरियों का गैर नृत्य वातावरण को रंगीन बना देता हैं। पूरा आयोजनस्थल दिल को शुकून प्रदान करता हैं
मालाणी पट्टी में गैर नृत्यों की होली के दिन से धूम रहती हैं। यह धूम कनाना, लाखेटा, सिलोर, सनावड़ा सहित अने क्षेत्रों में समान रूप से रहती हैं। यही गैर नृत्य बाड़मेर की समृद्ध परम्परा व लोक संस्कृति का प्रतीक हैं। प्रतिवर्ष चैत्र मास में अनेक गैर नृत्य मेले लगते हैं। इन मेलों का धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृति महत्व समान हैं। लाखेटा में किसानों का यह रंगीला मेला प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता हैं। पिछले चार सौ वर्षो से लोगो का प्रमुख धार्मिक आस्था स्थल लाखेटा हैं। जहां बाबा संतोष भारती की समाधि हैं। गैर नर्तको के सतर से अधिक दल इस मेले में भाग लेते हैं। सूय की पहली किरण के साथ गैर नृत्यों का दौर आरम्भ होता हैं। माटी की सोंधी महक, घुंघरूओं की झनक से मदमस्त कर देती हैं। किसानों का प्रमुख गैर नृत्य मेला जिसमें बाड़मेर, जोधपुर, पाली, जालोर जिलो से भी गैर नृतक शरीक होकर इस गैर नृत्य मेले को नई ऊंचाईयां प्रदान करते हैं।
गांवो से युवाबुजुर्गो के जत्थे हर्षोल्लास के साथ रंग बिरंगी वेशभूषा और लोक वाद्य यंत्रों के साथ भाग लेते हैं। मेले में युवा ग्रामीण गोलाकरअर्द्ध गोलाकार घेरे में विभिन्न मुद्राओं में ोल की ंकार, थाल टंकार पर नृत्य करते और हाथों में रखी एक मीटर की डण्डी आजू बाजू के गैरियों की डण्डियों से टकराते हैं और घेरे में घूमते हुए नृत्य करते हैं। गैरिये चालीस मीटर के घाघरे पहन हाथों में डाण्डियें, पांवो में आठआठ किलो वजनी घुंघरू पहन जब नृत्य करते हैं तो पूरा वातावरण कानो में रस घोलने लगता हैं। ोल की ंकार और थाली की टंकार पर आंगीबांगी नांगी जत्था गैर, डाण्डिया गौरों की नृत्य शैली निहारने के लिये मजबूर कर देती हैं। शौर्य तथा लोकगीतों के साथ बारीबारी से गैर दलों द्वारा नृत्य का सिलसिला सूर्यास्त तक जारी रहता हैं। 1520 समूह गैरियों के रूप में भाग लेते हैं गैर दलों की वेशभूषा के अनुरूप ही विभिन्न नृत्य शैलियां होती हैं। सफेद आंगी जो 4040 मीटर कपडे की बनी होती हैं। उस पर लाल कपडा कलंगी लगाकर जब नृत्य करते हैं तो मेले की रंगीनियां तथा मांटी की सोंधी महक श्रद्घालुओं को झूमने पर मजबूर कर देती हैं। सम्पूर्ण मेला स्थल गीतों, फागो और लोकवाद्य-यंत्रों की झंकारों, टंकारो व ंकारो से गुंजायमान हो उठता हैं। लोक संस्कृति को संरक्षण देने वाले लाखेटा, कनाना, कोटडी, सरवडी, कम्मो का वाडा, भलरों का बाडा, मिया का बाडा, खुराणी सहित आप पास के क्षेत्रों में गैर दल चंग की थाप पर गातेनाचते हैं। वहीं इसी क्षेत्र की आंगी बांगी की रंगीन वेशभूषा वाली डाण्डिया गैर नृत्य दल समां बांधने में सफल ही नहीं रहते अपितु मेले को नई ऊंचाईयां प्रदान करते हैं। वीर दुर्गादास की कर्मस्थली कनाना का मेला जो शीतलासप्तमी को लगता हैं, अपने अपन में अनूठा गैर नृत्यमेला होता हैं जो सिर्फ देखने से ताल्लुक रखता हैं। हजारों श्रद्घालु मेले में भाग लेते हैं। सनावड़ा में भी होली के दूसरे दिन का गैरियों का गैर नृत्य वातावरण को रंगीन बना देता हैं। पूरा आयोजनस्थल दिल को शुकून प्रदान करता हैं
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