नई दिल्ली। दिल्ली की एक अदालत ने पाकिस्तान के खुफिया एजेंट के रूप में काम करने और पड़ोसी देश को रक्षा संबंधी संवेदनशील सूचना मुहैया कराने के मामले में सेना के एक जवान को सात साल कैद की सजा सुनाई है।
जिला एवं सत्र न्यायाधीश ओपी गुप्ता ने भारत में सेना की गतिविधि और तैनाती के बारे में पाकिस्तान को गोपनीय सूचना उपलब्ध कराने के मामले में 39 वर्षीय अनिल कुमार दुबे को आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम की धारा 3 के तहत दोषी ठहराया।
अभियोजन पक्ष के अनुसार दिल्ली पुलिस की विशेष इकाई ने 20 अक्टूबर 2006 को एक खुफिया सूचना के आधार पर दुबे को महिपालपुर स्थित उसके घर से गिरफ्तार किया था। पुलिस को सूचना मिली थी कि पाकिस्तानी च्च्चायोग का एक कथित कर्मी कुछ संवेदनशील सूचना हासिल करने के लिए दुबे से मिलेगा।
पुलिस ने दुबे को उस समय पकड़ा था जब वह पाकिस्तान उच्चायोग के कथित कर्मी मोहम्मद फारूक को एक बैग सौंप रहा था। इस बैग में कुछ सीडी, सेना के विद्रोह विरोधी अभियानों से संबंधित कुछ अधिसूचनाओं समेत अन्य दस्तावेज थे।
दुबे के घर पर मारे गए छापे में तीन चेक बुक बरामद हुई। इनमें से दो फारूक और पाकिस्तानी दूतावास के एक और कथित अधिकारी शमशाद हुसैन से संबंधित थीं। अभियोजन पक्ष ने कहा कि पुलिस ने सेना के ग्रुप इंश्योरेंस मुख्यालय में दुबे की डेस्क को भी खंगाला और नए डायलिंग सिस्टम से संबंधित दस्तावेज तथा 2005 की एजीआई [आर्टिफिशयल जनरल इंटेलिजेंस] पत्रिका भी बरामद की।
फारूक को राजनयिक के रूप में छूट प्राप्त होने के चलते उसे विदेश मंत्रालय के जरिए पाकिस्तान च्च्चायोग को सौंप दिया गया जबकि दुबे को गिरफ्तार कर लिया गया। दुबे ने अपने बचाव में तर्क दिया कि उसे पाकिस्तान के साथ दुश्मनी के चलते झूठा फंसा कर उसे बलि का बकरा बनाया गया है।
अदालत ने कहा कि वह यह साबित करने में विफल रहा कि पुलिस उसे क्यों फंसाएगी और बस यह कह देना कि उसे बलि का बकरा बनाया जा रहा है पर्याप्त नहीं है। अदालत ने उसके इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि अभियोजन उसके द्वारा दी जाने वाली गोपनीय सूचना के लिए किसी बड़े बैंक लेन देन की बात साबित करने में भी विफल रहा।
अदालत ने कहा कि यह आम समझ की बात है कि अधिकतर अपराध छिपकर किए जाते हैं। कोई अपराधी अवैध रूप से मिली राशि को अपने बैंक खाते में जमा नहीं करना चाहेगा।
न्यायाधीश ने कहा कि आरोपी के घर से मोहम्मद फारूक की चेक बुक का मिलना यह दर्शाता है कि आरोपी के उसके साथ कुछ संबंध थे। यही बात अभियोजन के मामले को मजबूत करती है कि दोनों कुछ गोपनीय सूचना भेजने के कृत्य में शामिल थे।
दुबे ने अदालत में तर्क दिया था कि फारूक को 2006 में जो दस्तावेज कथित तौर पर दिए जाने थे वे 2003 के थे और जासूसी के लिहाज से उनका कोई मतलब नहीं था। इस पर अदालत ने कहा कि दस्तावेज किसी के लिए पुराने तो किसी अन्य के लिए नए हो सकते हैं।
न्यायाधीश ने कहा कि हो सकता है कि भारत द्वारा 2003 में हासिल किया गया डायलिंग सिस्टम 2006 तक पाकिस्तान के लिए अज्ञात रहा हो। सवाल यह है कि सूचना मुहैया कराने के पीछे आरोपी का क्या औचित्य था।
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