गुरुवार, 26 जनवरी 2012

सुर संगम में आज - सारंगी की सुरमई तान

पश्चिमी राजस्थान में एक कहावत प्रचलित है - ''ताल मिले तो पगाँ रा घुंघरु बाजे'' अर्थात गायकी के साथ यदि सधा हुआ संगतकार (साथ वाद्य बजाने वाला) हो तो सुननेवाला उस गीत-संगीत में डूब जाता है। राजस्थानी लोक संस्कृति में लोक वाद्यों का काफ़ी प्रभाव रहा है। प्रदेश के भिन्न-भिन्न अंचलों में वहाँ की संस्कृति के अनुकूल स्थानीय लोक वाद्य खूब रच-बसे हैं। जिस क्षेत्र में स्थानीय लोक कला एवं वाद्यों को फलने-फूलने का अवसर मिला है वहाँ के लोक वाद्यों की धूम देश के कोने-कोने से लेकर विदेशों तक मची है। इन्हीं वाद्य यंत्रों में एक प्रमुख वाद्य यंत्र है - ''सारंगी''। सुर-संगम के २४वें साप्ताहिक अंक में मैं, सुमित चक्रवर्ती सभी श्रोता-पाठकों का अभिनंदन करता हूँ।

सारंगी शब्द हिंदी के 'सौ' और 'रंग' शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है सौ रंगों वाला। ऐस नाम इसे इस्लिए मिला है कि इससे निकलने वाले स्वर सैंकड़ों रंगों की भांति अर्थवत और संस्मरणशील हैं। सारंगी प्राचीन काल में घुमक्कड़ जातियों का वाद्य था। मुस्लिम शासन काल में यह नृत्य तथा गायन दरबार का प्रमुख वाद्य यंत्र था। इसका प्राचीन नाम ''सारिंदा'' था जो कालांतर के साथ ''सारंगी'' हुआ। राजस्थान में सारंगी के विविध रूप दिखाई देते हैं। मीरासी, लाँगा, जोगी, मांगणियार आदि जाति के कलाकारों द्वारा बजाये जाने वाला यह वाद्य गायन तथा नृत्य की संगीत की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। संगत वाद्य के साथ सह स्वतंत्र वाद्य भी हैं। इसमें कंठ संगीत के समान ही स्वरों के उतार-चढ़ाव लाए जा सकते हैं। वस्तुत: सारंगी ही ऐसा वाद्य है जो मानव के कंठ के निकट है। सांरगी शास्त्रीय संगीत का भी एक प्रमुख संगति वाद्य है। परंतु एकल वाद्य के रूप में भी सारंगी बहुत मनोहारी सुनाई पड़ती है। पं.राम नारायण,साबरी ख़ाँ,लतीफ़ख़ाँ और सुल्तान ख़ाँ जैसे कई उस्ताद सारंगी का प्रयोग शास्त्रीय संगीत में करते रहे हैं।


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