रविवार, 11 दिसंबर 2011

अभिनय सम्राट दिलीप कुमार 89 बरस के हुए!

मुंबई। अभिनय सम्राट और भारतीय सिनेमा के ‘अल्टीमेट मेथड’ अभिनेता कहे जानेवाले दिलीप कुमार आज 89 बरस के हो गए। दिलीप कुमार के अभिनय का लोहा भारत ही नहीं, सारी दुनिया ने माना और वे जीते-जी एक ‘मिथक’ बन गए।
दिलीप कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता साबित करने के लिए किसी पुरस्कार की जरूरत नहीं है, लेकिन फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार सबसे पहले और सबसे ज्यादा बार जीतकर उन्होंने साबित किया कि हां, वे अभिनय सम्राट हैं, अभिनय के बेताज बादशाह हैं!

बरसों बाद शाहरुख खान ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए सबसे ज्यादा पुरस्कार जीतने के उनके इस कारनामे की बराबरी की।

दिलीप कुमार ने भारतीय सिनेमा में अपने अभिनय और अंदाज के जो नए-नवेले और अनोखे रंग भरे, वे रंग आज भी दूसरे कई अभिनेताओं के अभिनय में झलकते रहते हैं। उनके बाद सुपरस्टार का तमगा हासिल करनेवाले और मिलिनियम सुपरस्टार अमिताभ बच्चन उन्हें अभिनय का स्कूल मानते हैं और स्वीकार करते हैं कि उन्होंने दिलीप कुमार को देखकर अभिनय सीखा है।

प्रख्यात फिल्मकार और विशेष ऑस्कर पुरस्कार प्राप्तकर्ता सत्यजीत रे ने उन्हें ‘अल्टीमेट मेथड’ अभिनेता करार दिया था।

अविभाजित भारत के पेशावर में 11 दिसम्बर 1922 को पैदा हुए मुहम्मद यूसुफ खान यानी दिलीप कुमार पेशावरी पठान हैं और फलों के व्यापारी गुलाम सरवर खान की 12 औलादों में से एक हैं। उनका व्यापार पेशावर से नासिक और पुणे तक फैला था। यूसुफ खान भी अपने पुश्तैनी व्यापार में लग गए और पुणे के सेना कैंटनमेंट में उन्होंने अपनी एक कैंटीन भी खोल ली।

उन्हीं दिनों बॉम्बे टाकिज की मालकिन और अभिनेत्री देविका रानी ने जब उन्हें पुणे की कैंटीन में देखा तो उन्हें अभिनेता बनने का प्रस्ताव दिया और वे फिल्मों से जुड़ गए, लेकिन यह बात उन्होंने अपने पिता से नहीं बतायी। उनके पिता को तो फिल्मों के पोस्टर देखकर पता चला कि यह दिलीप कुमार तो उनका बेटा यूसुफ खान है।

दिलीप कुमार सबसे पहले सन 1944 में ‘ज्वार भाटा’ फिल्म में नजर आए। हिंदी साहित्यकार भगवती चरण वर्मा ने उन्हें पर्दे के लिए विशेष नाम दिया – दिलीप कुमार!

उसके बाद सन 1947 में उनकी फिल्म ‘जुगनू’ आई, तो वे स्टार के रूप में स्थापित हो गए। उसके बाद ‘मेला’ (1948), ‘अंदाज’ (1949), ‘दीदार’ (1951), ‘दाग’ (1954), ‘देवदास’ (1955) और ‘मधुमती’ (1958) जैसी सुपरहिट फिल्मों ने उन्हें सुपरस्टार बना दिया और उनके अभिनय के अनोखे रंग ने उन्हें ‘ट्रेजडी किंग’ का खिताब भी दिलवा दिया।

दिलीप कुमार उन दिनों उदास, निराश और हारे हुए प्रेमी के चरित्रों में कुछ इस तरह से खो जाया करते थे कि निजी जिंदगी में भी वे उदास रहने लगे। वे अभिनय में इस कदर डूब जाया करते थे कि निजी जिंदगी उनके लिए कोई मायने नहीं रखने लगी थी। ‘देवदास’ के चरित्र को उन्होंने कुछ इस कदर अभिनीत किया कि वे भारतीय सिनेमा के ‘देवदास’ और ‘ट्रेजडी किंग’ बन गए। उसके बाद ‘मधुमती’ में भी उनका किरदार ऐसा ही कुछ था।

डॉक्टरों ने उन्हें सलाह दी कि वे ट्रेजडी से भरी फिल्में करना बंद कर दें। इसलिए दिलीप कुमार ने ‘कोहिनूर’ (1960) जैसी फिल्म की और हैरत यह कि अपने गमगीन कर देनेवाले अभिनय से सबको भावुक कर देनेवाले दिलीप कुमार ने उन्हें मस्त और शोखी भरी अदाओं से खूब हंसाया।

भारतीय सिनेमा के इतिहास में कई रिकॉर्ड कायम करनेवाली फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ (1960) में दिलीप कुमार ने शहजादा सलीम का किरदार निभाकर एक नया इतिहास रच दिया। इस फिल्म में उनके अभिनय में एक बेटे का प्यार, सैनिक का आत्मविश्वास और गुस्सा और एक प्रेमी की कोमलता, बेचैनी साफ और बखूबी दिखाई देती है।

विभिन्न भूमिकाओं में रंग भरने के साथ-साथ उन्होंने ‘गंगा जमुना’ फिल्म का निर्माण भी किया।

सन 1962 में ब्रिटिश निर्देशक डेविड लीन ने दिलीप कुमार को ‘लॉरेंस ऑफ अराबिया’ में शरीफ अली की भूमिका का प्रस्ताव दिया, लेकिन उन्होंने उसे ठुकरा दिया।

दिलीप कुमार ने 1976 से लेकर 1981 तक किसी भी फिल्म में काम नहीं किया। सन 1981 में दिलीप कुमार के प्रशंसक और मुरीद मनोज कुमार ने उन्हें अपनी फिल्म ‘क्रांति’ में लिया। बाद में उन्होंने ‘शक्ति’, ‘विधाता’, ‘मशाल’, ‘कर्मा’ और ‘सौदागर’ जैसी फिल्मों में काम किया और उम्र के दूसरे पड़ाव में भी साबित किया कि उनके जैसा अभिनेता दूसरा नहीं!

सन 1991 में उन्हें भारत सरकार ने ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया और सन 1994 में फिल्मों के लिए दिया जानेवाला सबसे बड़ा राष्ट्रीय पुरस्कार ‘दादा साहेब फाल्के’ भी दिया गया।

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