शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

घोड़ों को लेकर विशेषज्ञों ने किया चौंकाने वाला खुलासा!

जोधपुर.महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध केंद्र के तत्वावधान में घोड़ों पर शुरू हुई राष्ट्रीय सेमिनार के दूसरे रोज गुरुवार को तकनीकी सत्र में विषय विशेषज्ञों ने घोड़ों के बारे में कई चौंकाने वाले खुलासे किए।
जोधपुर के डॉ. विक्रमसिंह भाटी ने अपने शोधपत्र में घोड़ों की जाति की पहचान के बारे में उहड़ राठौड़ों की बहियों का जिक्र करते हुए कहा कि उहड़ राठौड़ों के जालोर दुर्ग में संग्रहित बहियों में अश्वों के चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र बताए गए हैं। उहड़ राठौड़ राव सीहा के प्रपौत्र आस्थान के पौत्र एवं जोपसा के पुत्र थे व जालोर दुर्ग उनका ठिकाना था।
अश्व की पहचान के तरीके

बहियों के अनुसार तब घोड़ों की जाति का पता उनके पानी पीने के तरीके से व मूत्र की गंध से भी लगाया जाता था। जो अश्व गहरे पानी में प्रवेश कर मुंह डुबो कर पानी पीता है, वह ब्राह्मण वर्ण का, जो एक-एक घूंट पानी पीता है, वह क्षत्रिय वर्ण का, जो होंठ भींच कर जल पीता है वह वैश्य वर्ण का और जो पानी पीते समय चौंकता हो, उसे शूद्र जाति का अश्व माना जाता था।

इसी प्रकार इन बहियों में अश्व के मूत्र की गंध से भी उनकी पहचान किया जाना लिखा है। जिस घोड़े के मूत्र में पराग के समान गंध आती है उसे ब्राह्मण जाति का, जिसके इत्र की सुगंधी व चूने की गंध हो वह क्षत्रिय वर्ण का तथा जिसके मूत्र में सिर्फ गंध होती है वह वैश्य वर्ण का व दरुगध वाला अश्व शूद्र वर्ण का माना जाता है।

उच्च नस्ल की घोड़ियां

पुरालेखीय बहियों में यह भी लिखा है कि तत्कालीन ठिकानेदार ज्यादातर पंच कल्याण, कुमेत, सुरंगी आदि उच्च नस्ल की घोड़ियां रखते थे। पंच कल्याण घोड़ी उसे कहते थे जिनके चारों पांव व पूंछ सफेद हो, कुमेत की पूंछ सहित संपूर्ण शरीर गहरे लाल रंग का हो तथा सुरंगी घोड़ी अद्भुत होती थी।

वाहन तकनीक से कम हुआ घोड़ों का महत्व : राठौड़

जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. एलएस राठौड़ ने कहा कि 19 वीं शताब्दी में स्टीम इंजन सहित परिवहन तकनीक के आगमन ने समाज में घोड़ों के अस्तित्व को चुनौती देना शुरू किया।

बहरहाल जब भी मारवाड़ के इतिहास का जिक्र होगा, यहां के योद्धाओं, वीरांगनाओं और घोड़ों को सदैव याद किया जाएगा। प्रो. राठौड़ गुरुवार को मेहरानगढ़ दुर्ग स्थित चोखेलाव महल में घोड़ों पर आयोजित दो दिवसीय सेमिनार के समापन समारोह को मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित कर रहे थे।





महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध केंद्र के तत्वावधान में आयोजित ‘भारतीय इतिहास एवं संस्कृति में युग-युगीन अश्व’ विषयक सेमिनार के समापन समारोह की अध्यक्षता पूर्व सांसद व पद्मभूषण से अलंकृत डॉ. नारायण सिंह माणकलाव ने की।





उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता के बाद तकनीक के बढ़ते प्रभाव के कारण भले ही समाज में घोड़ों के महत्व को नकारा जाने लगा हो, लेकिन अब पुन: घोड़ों की काठियावाड़ी व मारवाड़ी नस्ल के महत्व को स्वीकार किया जा रहा है। वर्तमान में घोड़ों की इन नस्ल को संरक्षण की दरकार है।


दो दिनों में 37 पत्र वाचन हुए

घोड़ों पर आयोजित दो दिवसीय सेमिनार में देश के विभिन्न भागों से आए 37 विद्वानों ने शोध पत्रों का वाचन किया। समापन समारोह में शोध केंद्र के महानिदेशक डॉ. महेंद्र सिंह नगर ने सभी शोधार्थियों के नाम से उनके द्वारा किए गए पत्र वाचन के आधार पर आशु कविता भी पढ़ कर सुनाई।


इस अवसर पर प्रो. रविंद्र शर्मा व प्रो. वीके वशिष्ठ ने भी संबोधित किया। डॉ. सद्दीक मोहम्मद ने दो दिवसीय सेमिनार में पढ़े गए सभी 37 शोध पत्रों का सारांश प्रस्तुत किया।


अंतिम दिन तीन सत्र हुए

गुरुवार को प्रथम सत्र में प्रो. रविंद्र शर्मा, प्रो. वीके वशिष्ठ, डॉ. विक्रमसिंह भाटी, डॉ. मनोरमा उपाध्याय, डॉ. रामदयाल सागर तथा ठा. अर्जुनसिंह उमकली ने पत्र वाचन किया। सत्र की अध्यक्षता डॉ. जमनेश ओझा ने की व संयोजन डॉ. विनिता परिहार ने किया।

दूसरे सत्र में डॉ. विनिता परिहार, डॉ. अनिल पालीवाल, डॉ. अरुण वाघेला, डॉ. जीतेंद्र सिंह भाटी, कर्नल उम्मेद सिंह, गजेंद्रपाल सिंह पोसाना व डॉ. उषा पुरोहित ने पत्र वाचन किया।





सत्र की अध्यक्षता प्रो. वीके वशिष्ट ने की व संयोजन डॉ. जिब्राइल ने किया। तीसरे व अंतिम सत्र में प्रो. जहूरखां मेहर ने घोड़ों से जुड़ी रोचक सामाजिक शब्दावली की जानकारी दी।





डॉ. दीन दयाल ओझा, डॉ.सद्दीक मोहम्मद, डॉ. वसुमति शर्मा, डॉ. अनिल पुरोहित, कुमारी पूजा गहलोत, डॉ. दिलीप कुमार नाथानी, डॉ. कमलेश बहुरा तथा डॉ. सूरजमल राव ने पत्र वाचन किया। सत्र की अध्यक्षता डॉ. देवेन्द्र गौतम ने की और संयोजन डॉ. भगवतीलाल शर्मा ने किया। सेमिनार का संचालन डॉ.मनोरमा उपाध्याय ने किया। डॉ.विक्रमसिंह भाटी ने आभार व्यक्त किया।

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