मंगलवार, 27 सितंबर 2011

– विश्व पर्यटन दिवस .....राजस्थान के पिचमी सीमान्त का सिंहद्वार बाड़मेर...सुंदर फोटो गैलरी


बाड़मेर : ऐतिहासिक पृश्ठभूमि 

विश्व पर्यटन दिवस .....
राजस्थान के पिचमी सीमान्त का सिंहद्वार बाड़मेर

राजस्थान के पिचमी सीमान्त का सिंहद्वार बाड़मेर बहुआयामी ऐतिहासिक पृश्ठभूमि से सम्पन्न रहा है। पारम्परिक काव्यसाहित्य, समकालीन अभिलेख तथा विविध साक्ष्य इसके प्रमाण है। थार के इस मरु प्रान्त के परिपेक्ष्य में रामायण एवं महाभारत के अन्तर्गत निर्दो समुपलब्ध होते है। रामायण के युद्व काण्ड में सेतुबन्ध प्रसंग के अन्तर्गत सागराोशण हेतु च़े अमोध राम बाण के उत्तरवित्तर द्रुमकुल्य प्रदो के आभीरो पर सन्धन से मरुभूमि की उत्पित्त का वर्णन है। 
महाभारत के अवमेधिक पर्वान्तर्गत भारत युद्वोपरान्त श्री कृश्ण के द्वारिका प्रत्यागमन प्रसंग की उनकी इसी मरुभमि में उत्तक ऋिश से भेंट और यहां जल की दुर्लभता विशयक उल्लेख मिलते है। मौर्यकाल में सौराश्ट्र से संयुक्त क्षेत्र के रुप यह प्रान्त चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य के अन्तर्गत था। तत्पचात इस पर इण्डोग्रिक भासको, मिलिन्द तथा महाक्षत्रप रुद्रदमन का भासन रहा। कतिपय इतिहासज्ञो के अनुसार यूनानियों द्वारा उल्लेख भग्व्।छ। दुर्ग सम्भवतः सिवाना क्षेत्रान्तर्गत था। 
परवर्ती काल में इस क्षेत्र का गुप्त साम्राज्य के अन्तर्गत होना मीरपुर खास में गुप्तकालीन बौद्व स्मारक प्राप्त होने से प्रमाणित होता है। 
पूर्व मध्यकालिन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में डॉ. गोपीनाथ भार्मा के अनुसार यह प्रदो गुर्जरत्रा कहलाता था। चीनी यात्री हेंनसांग ने इसी गुर्जर राज्य की राजधानी का नाम पीलो मोलो भीनमाल अथवा बाड़मेर बताया है। डॉ. जे एन आसोपा क ेमत में गुर्जर भाब्द अरब यात्रियों द्वारा गुर्जर प्रतिहारो हेतु प्रयुक्त सम्बोधन जुर्ज का समानार्थक है। जिसकी व्युत्पति मरुभूमि में प्रवाही जोजरी नदी से बताई गई है। इस प्रकार प्रतिहारो से सम्बन्ध गुर्जर विोशण भौगोलिक महत्व का सूचक है। जो यहां गुर्जर प्रतिहार अधिराज्य को निर्दिश्ट करता है। इस तथ्य की पुश्टि 936 ई. के चेराई अभिलेख से होती है। गुर्जर प्रतिहारो के उपरान्त यहां परमारो का अधिपत्य रहा। 
मरुमण्डल के ये परमार आबू के परमारो से पृथक माने जाते है। 1161 ई. के किराडू अभिलेख औरा 1183 ई. के मांगता ताम्रपत्र के अन्तर्गत सिन्धुराज (956ई.) को ॔सम्भून मरुमण्डले॔ कहकर यहां के परमारो का आदिपुरुश निर्दिश्ट किया गया है। इनकी राजधानी किरात कूप (किराडू) थी। फिर यहां गुजरात के चालुक्यों का अधिकार ज्ञात होता है। 
1152 ई. के कुछ पूुर्व किराडूु पर कुमारपाल चाणक्य के सामंत अल्हण चाहमान का अधिकार था। किन्तु 1161 ई. के किराडू अभिलेख के अनुसार सिंधुराज के वांज (9वीं पी़ी) सोमेवर परमार द्वारा अधीनता मानने से संतुश्ट कुमारपाल द्वारा उसे किराडू पुनः प्रदान कर दिया गया। 1171 ई से 1183 ई. तक क्रमाः कीत्तिर्पाल चौहान, मुहम्मद गौरी (1178ई) भीमदेव सोलकी द्वितीय तथा जैसलमेर के भाटियो के किराडू पर अनवरत आक्रमणो एवं तत्कालीन भासको आसलराज और बन्धुराज के अक्षम प्रतिरोध से यहां का परमार राज्य भानै॔ भानै नि:ोश होता चला गया। 
किराडू राज्य के अवसान का समानान्तर सुन्धामाता मंदिर में चौहान चाचिगदेव के िलालेख में विर्णत वाग्भट्ट मेरु अथवा बाहड़मेर का उत्थान प्रायः बारहवी भाती ई. के उत्तरार्द्व में होना विदित होता है। इसकी संस्थापना का श्रेय क्षमाकल्याण रचित खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार सिद्वराज जयसिंह (10941142ई) के मन्त्री उदयन के पुत्र वाग्भट्ट अथवा बाहड़देव परमार को प्रदान किया गया है। 
स्थापना के पचात यहां जैन श्रावको द्वारा मन्दिर एवं वाटिकाओं के निर्माण तथा 1252 में आचार्य जिनेवर सूरि के आगमन की जानकारी मेरुतुग कृत प्रबन्ध चिन्तामणि से मिलती है। बाहड़मेर के आदिनाथ मन्दिर अभिलेख (1295 ई) से हयां परमारो के उपरान्त चौहानो के भासन के संकेत प्राप्त होते है। 
कान्हड़ दे प्रबन्ध (पद्मनाम रचित) के अन्तर्गत 130809 में अलाउदीन खिलजी की सेनाओं द्वारा जालौर सिवाना अभियान के क्रम में बाहड़मेर पर भी आक्रमण किये जाने सम्बन्धी उल्लेख है। 
इस अराजकता का लाभ उठाकर राव धूहड़ राठौड़ के पुत्र राव राजपाल ने लगभग 130910ई में यहां के परमारो के प्रायः 560 ग्रामो पर अधिकार कर लिया। इसी के पराक्रमी वांज रावल मल्लीनाथ के नाम पर इस क्षेत्र को मालानी की संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा। 

























15 वीं भाती ई के पूर्वाद्व में मल्लीनाथ के पौत्र मण्डलीक द्वारा बाहड़मेर और चौहटन के भासको क्रमा मुग्धपाल (माम्पा) तथा सूंजा को परास्त करा अपने अनुज लूणकर्ण राठौड़ा (लूंका) को वहां का राज्य सौप दिया गया। इस प्रकार जसोल बाड़मेर एवं सिणदरी जहां मल्लीनाथ के वांजो द्वारा भासित हुए वही नगर और गु़ा उनके सबसे छोटे भाई जैतमाल की सन्तति के अधिकार में रहे। जबकि मंझले भाई वरीमदेव के पुत्र चूण्डा ने परिहारो से मण्डोर छीना। बाहड़मेर में लुंका जी की चौथी पी के भासक राव भीमाजी रत्नावत को जोधपुर नरो राव मालदेव के सामान्तो जैसा भैर व दासोत और पृथ्वीराज जैतावत द्वारा लगभग 155152 ई. में पराजित किया गया। जैसलमेर के रावल हरराय की सहायता के पश्चात भी पुनः हार जाने एवं बाहड़मेर के राठौड़ो की रतनसी तथा खेतसी के धड़ो में बट जाने पर भीमाजी ने बाहड़मेर छोड़कर बापड़ाऊ क्षेत्रान्तर्गत नवीन बाहड़मेर अथवा जूना और नवीन बाहड़मेर बसाया तभी से पुराना बाड़मेर जुना बाड़मेर कहा जाने लगा। परवर्ती काल में जैसलमेर के सहयोग से भीमाजी ने जुना बाहड़मेर तथा िव आदि अपने खोए प्रदो पुनः प्राप्त कर लिए। उपयुक्त तथ्यों की जानकारी विविध ख्यातो विोशतः नेनसी की और राठौड़ वां के इतिहास ग्रन्थ से समुचित रुप से हो जाती है। बाड़मेर की वणिका पहाड़ी की तलहटी के जैन मन्दिर के िलालेख के अन्तर्गत 1622 ई यहां उदयसिंह का भासन निर्दिश्ट है। परवर्ती भासको रावत मेघराज, रामचन्द्र और साहबाजी, भाराजी आदि के सघशर प्रायः 19 वी भाती ई. के आरम्भ तक यहां की राजनीति तथा समाज को प्रभावित करते रहें। तब मालानी परगने में प्रायः 460 ग्राम 14918 वर्ग किमी क्षेत्रान्तर्गत थे। मारवाड़ नरो मानसिंह (180443 ई) के काल में यहां के सरदारो एवं भोमियों द्वारा गुजरात कच्छ तथा सिंध में उत्पाद मचाने एवं ब्रिटि कम्पनी सरकार के आदो के बाबजूद मानसिंह के उन्हे नियत्रित करने में विफल रहने पर रावत भभूतसिंह के समय 1836 ई. में चौहटन मालानी को बम्बई सरकार के अन्तर्गत ब्रिटि अधिकार में ले लिया गया। सभी उत्पादी सरदारो को कैद कर राजकोट एवं कच्छ भुज भेज दिया गया। क्षेत्र में भान्ति और व्यवस्था स्थापित होने पर मालानी को प्रासन 700/ मासिक वेतन प्राप्त एक अधीक्षक को सौंपा गया, जिसकी सहायतार्थ मुम्बई रेग्यूलर केवेलरी का दस्ता तथा गायकवाड़ इन्फेन्ट्री के 100 घोड़े बाड़मेर मुख्यालय में रहते थे। (कच्छ भुज के रावल देसुल जी की जमानत से मुक्त हुए रावत भभूतसिंह भी अंग्रेजो से हुए समझौते के अनुसार बाड़मेर आ गए।) 1839 ई में मालानी परगना मुम्बई सरकार से ए.जी.जी. राजस्थान को स्थानान्तरित कर दिया गया। 1844 ई में गायकवाड़ केवेलरी का स्थान 150 मारवाड़ के घुड़सवारो ने ले लिया। अन्तिम स्थानीय अधीक्षक कैप्टन जैकसन के यहां से लौटने पर मारवाड़ के पोलिटीकल एजेन्ट की सता आरम्भ हुई। इस अतिरिक्त प्रभार हेतु उसके लिए 100/ मासिक भत्ता नियत था। 1865 ई में नियुक्त पोलिटिकल एजेन्ट कैप्टन इम्पे के तत्वावधान में मालानी के विस्तृत सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण के प्रभाव स्वरुप जसोल तथा बाड़मेर में 1867 ई में वर्नाक्यूलर स्कलो के माध्यम से आधुनिक िक्षा का समारम्भ हुआ। सर्वे रिपोर्ट 4 मई 1868 को प्रकाित हुई। परवत्तीर काल में इस क्षेत्र के ठाकुरो द्वारा प्रत्यक्षतः मारवाड़प्रासन के अधीन होने की इच्छा पर। 1 अगस्त 1891 को मालानी परगना मारवाड़ राज्य के अन्तर्गत आ गया। आगामी छः वशोर में मालानी प्रासन सुचारु एवं सुव्यवस्थित रहने, अपराधो में कमी होने और किसी भी प्रकार की िकायत न आने पर जोधपुर में महाराजा सरदार सिंह को 1898 ई में यहां के सम्पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिये गये। 22 दिसम्बर 1900 ई को मालानी के हृदयस्थल से गुजरने वाली बालोतरा सादीपाली रेल्वे लाइन का भाुभारम्भ हुआ। 
स्वतन्त्रता प्राप्ति तक जोधपुर प्रासन के अधीनस्थ रहते हुए दोी रियासतो के भारतीय सघ में विलीनीकरण के उपरान्त मालानी परगना 1949 ई में बाड़मेर जिले के रुप में अस्तित्व मान हुआ। जो आधुनिक बाड़मेर कहलाया। 

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