रविवार, 24 दिसंबर 2017

ये है बल्लीमारान की वो गली जहां है उस्ताद गालिब का घर

ये है बल्लीमारान की वो गली जहां है उस्ताद गालिब का घर


घरबल्लीमारान गली में कदम रखते वक्त मन में तमाम ख्यालात थे। पता नहीं उनकी हवेली के बहाने उस अजीम शायर मिर्जा गालिब से मुलाकात हो पाएगी की नहीं।
ये है बल्लीमारान की वो गली जहां है उस्ताद गालिब का घर
नई दिल्ली


अपनी गली में मुझ को न कर दफ्न बाद-ए-कत्ल,


मेरे पते से खल्क को क्यूं तेरा घर मिले

बल्लीमारान गली में कदम रखते वक्त मन में तमाम ख्यालात थे। पता नहीं उनकी हवेली के बहाने उस अजीम शायर मिर्जा गालिब से मुलाकात हो पाएगी की नहीं या पता नहीं वह किनारा जिससे उनका सिरा जुड़ा था वह कैसा होगा, जैसा कि, कौन जाएं जौक दिल्ली की गलियां छोड़कर..। कुछ तो बात होगी उस गली में भी, जिसमें उनका आशिया रहा होगा। तभी तो गालिब यहीं के होकर रह गए। बल्लीमारान की सड़क के दोनों किनारे रंग-बिरंगे और चमचमाते सैंडिलों और जूतियों से चमक रहे हैं।



दुकानों की लंबी कतारें, जिसमें बुर्कानशी महिलाएं उसका नाप लेने में मशगूल हैं। आगे रंग-बिरंगे चश्मों की दुकानों की कतारें शुरू होती हैं। उसमें भी ग्राहक हैं, जो चश्में देख रहे हैं। सड़क पर रिक्शा, ठेला और सड़क पर सामान बेचते लोग भी कम नहीं है।



अर्ज-ए-नियाज-ए इश्क के काबिल न रहा, जिस दिल पे नाज था मुझे वो दिल ना रहा..। अभी थोड़ा शेर-शायरी का सुरूर ही था कि पीछे से रिक्शे से किनारे होने की आवाज आई। सच है कि पुरानी दिल्ली में संभल कर न चला जाएं तो टकराने का भय बना रहता है।




हमको मालूम है जन्नत की हकीकत। दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है। अब पुरानी दिल्ली बहुत बदल चुकी है। यहां के बाशिंदों का अब भीड़भाड़ से यहां मन नहीं लगता है।

वो गलियां छोड़ने का दर्द तो है, लेकिन उनका इसके व्यावसायीकरण ने सांस लेना भी मुश्किल किया है। कुछ मेरी तरह गालिब की तलाश में लगते हैं। उनकी तलाश एक कतार में लगे जूती और चश्मों पर नहीं ठहर रही है। वह भी दिल्ली के दूसरे किनारे से आए हुए हैं। वैसे, पूछता कौन है, जब जिंदगी रफ्तार से भागे जा रही हो तो फिर कहां गम-ए-सुकून का दौर। चलिए अच्छा है, कुछ हैं जिनके दिलों में नज्म-ए-चराग जल रहा है। वैसे, सही है किताबी तस्वीरों से हकीकत जुदा होती है। सोचा था गली भी गालिब की गजलों से महक रही होगी। इन्हीं सब उधेड़बुन में था कि एक तरफ मुगलई व्यंजनों की खुशबू और सड़क के दूसरे किनारे पान की दुकान पर ठहाकों का दौर, तंद्रा तोड़ने का काम करती है।




पान घुले मुंह से बातें भी थोड़ी नजाकत से होती है। अब तक गालिब का होने का अहसास नहीं मिला था। उदास मन से एक गुजरते युवा से पूछा, वह अदब से बोला हां, बस चंद कदम और। दाईं गली में बाईं ओर बड़ा सा गेट गालिब की हवेली का खुलता है।




बस, जैसे जान लौट आती है। कदमों को जैसे मंजिल मिलती है। दोनों किनारे पुराने बनावट के मकान। लकड़ी के छज्जे। स्कूली बच्चे निकल रहे हैं। स्कूल की छुट्टी हो गई है। बस, जैसे घर पहुंचने की जल्दी। अचानक रोड उनकी खिलखिलाहट से भर जाती है। मेरा ठिकाना नजदीक आ रहा था। धड़कनें तेज थी।




उग रहा दर-ओ-दीवार पे सब्जा गालिब,




हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है।




जैसे इस गली की रफ्तार। दाएं एक पतली गली, लग रहा है आगे बंद हो जाती है। एक बड़ा सा अहाता। उसके बाहर मिर्जा गालिब की हवेली लिखा बोर्ड देखकर दिल को सुकून मिलता है, जैसे तलाश पूरी हुई।




गली कासिम जान। अंदर मूर्ति में मुस्कुराते गालिब और उनके होने का अहसास कराते अशरार। मेरे साथ और भी लोग। एक युगल, कभी नज्मों और उनके सामानों के साथ कभी खुद की तस्वीर लेने में मशगूल। विदेशी पर्यटकों का दल भी है, जिनका गाइड उन्हें गालिब के मायने समझा रहा है। हुक्का हाथ में गालिब। गालिब तो हैं उन पन्नों में, जो यथावत हैं। वह बर्तन, वह कपड़े, जिसका इस्तेमाल करते थे। हर कोने में गालिब के होने का अहसास है।

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