दिनदहाड़े सड़क किनारे हुए बलात्कार को देखने वालों ने अपनी पत्नी, बेटी, मां से क्या कहा होगा!
फिर एक ख़बर ने हाथ-पैर सुन्न कर दिए हैं. समझ नहीं आ रहा है कि अब क्या लिखा जाए और क्या कहा जाए. कौन-सा बड़ा मुद्दा है रोज़ाना न जाने कितने बलात्कार होते हैं. न जाने कितनी बेटियां, औरतें हैवानों का शिकार होती हैं. जब जब सोचती हूं कि समाज का पतन चरम पर है और इंसान बिल्कुल संवेदनहीन हो गया है तो लगता है कि अब इससे ज्यादा कुछ नहीं होगा. तब तब कोई ऐसी घटना सामने आ जाती है जो संवेदनहीन इंसानों का और अधिक बेहूदा चेहरा सामने ले आती है.
एक नौजवान लड़का एक लड़की को अपनी हवस का शिकार बनाता है. लेकिन यह बलात्कार किसी बंद कमरे में नहीं, अंधेरी रात में नहीं, किसी बस में नहीं, कार में नहीं, जंगल में नहीं, सुनसान इलाके में नहीं बल्कि सरेआम दिनदहाड़े रेलवे स्टेशन के पास भीड़भाड़ वाली सड़क के किनारे फुटपाथ पर हुआ है. मुझे नहीं पता कितने लोगों का खून इस खबर को सुनकर, पढ़कर, देखकर खौला होगा. लेकिन मैं स्तब्ध हूं और अब लगता है कि कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं है. विशाखापटनम में सड़क के किनारे फुटपाथ पर दिन में राहगीरों के सामने बलात्कार होता है, पीड़ित लड़की ने मदद की गुहार भी लगाई लेकिन वहां से गुज़र रहे लोग बहरे थे, वह अंधे बन गए. सड़क से गुज़रने वाला हर शख़्स ज़िंदा लाश था क्योंकि अगर वह वाकई ज़िंदा होते तो बलात्कारी को रोकते. इतने बुज़दिल कब से हो गए हम कि हमारी आंखों के सामने बलात्कार होता रहे और हम आंख फेरकर गुज़र जाएं.
उफ़्फ़ वहां से अपने क़दम मोड़कर गुज़रने वाला हर शख़्स कैसे सो पाया होगा रात को, क्या उसने बताया होगा अपने परिवार में, अपनी मां को, पत्नी को, बहन को, बेटी को कि वह एक बलात्कार का गवाह बना और फिर मुंह मोड़कर आ गया. आखिर कैसे फुटपाथ पर गुज़रने वाले शख्स के पैर मुड़ गए, क्या वहां से गुज़रने वाले किसी भी इंसान में आत्मा, दिल नाम की चीज़ नहीं थी, क्या सब के सब हाड़ मांस की लाशें थीं. ऑटो ड्राइवर बलात्कार की घटना को मोबाइल में क़ैद करता रहा और बाद में पुलिस को वह वीडियो दे दिया. काश उसने वीडियो बनाने की बजाए उस बलात्कारी को रोक दिया होता तो हम इस क़दर शर्मिंदा न होते.
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फुटपाथ पर जिसने बलात्कार किया वह तो गिरफ़्तार हो गया, लेकिन क्या वहां से गुज़रने वाले हर शख्स को 'बलात्कारी' नहीं माना जाना चाहिए? क्या इस जुर्म को होते देखने वाला हर शख़्स मुजरिम नहीं है. हम किस युग में आ गए हैं, ये कौन सा समय है, जहां संवेदनाएं बची ही नहीं हैं. क्या वहां से गुज़रने वाला शख्स अपने परिवार के लिए भी खड़ा नहीं होगा. फिल्मों का सीन असल ज़िंदगी में दोहराया गया और सब तमाशबीन बने रहे. हम फिर क्यों किसी बलात्कार पर मोमबत्तियां जलाएं, हम क्यों फिर किसी बलात्कार पर मोर्चा निकालें, हम क्यों फिर किसी बलात्कारी को फांसी या कड़ी से कड़ी सज़ा की मांग करें. हम सब तो मरे हुए हैं, हम सब तो ज़िंदा लाशें हैं.
औरत को जानवर से भी बदतर बना दिया है. गाय और सुअर के नाम पर क़त्लेआम हो जाता है, बस्तियां उजड़ जाती हैं. लेकिन एक लड़की इस लायक भी नहीं कि लोग उसके साथ होने वाले बलात्कार को रोक सकें. बात-बात पर मॉब लिंचिंग होती है, ज़रा सी चोटी कट जाए, तो चोटी काटने वाले की अफ़वाह पर इंसानों की जान ले ली जाती है. सड़क पर बहस हो जाए तो मारकाट मच जाती है. लेकिन क्या औरत इतनी गई गुज़री हो गई कि वहां से गुज़रने वाले किसी शख्स का खून नहीं खौला, किसी को लगा ही नहीं कि उसे इस घिनौने अपराध को रोकना चाहिए. आज शर्म से सिर झुका ही नहीं है बल्कि साबित हो गया है कि मुल्क़ में मुर्दा लोग बढ़ते जा रहे हैं. घिन आ रही है उन लोगों से जो खुद को ज़िंदा मानते हैं.
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