पर्यावरणीय समस्याओं की कारगर औषधि है ओरणः- बोहरा
ओरण हमारी बहुमूल्य धरोहर, संरक्षण की दरकार:- बोहरा
ओरण दिवस 26 अप्रैल को, जिले भर में हजारों बीघा ओरण गोचर भूमि अतिक्रमण की जद में
आगावाणी व संरक्षण के अभाव में दम तोड़ रही है ओरण गोचर,
बाड़मेर । 23.04.2016 / जिले भर में पसरी आमजन की आस्था का केन्द्र ओरण गोचर को बचाने को लेकर 14 वर्ष पूर्व राणीगांव में धर्मपुरी की ओरण भू माफियों के चुंगल से छुडानें की स्मृति में प्रतिवर्ष 26 अप्रैल को ओरण दिवस के रूप में मनाया जाता है ।
राणीगांव में वर्ष 2002 में हुए ऐतिहासिक ओरण बचाओ आन्दोलन की चिरस्मृति में प्रतिवर्ष 26 अप्रैल को ओरण दिवस के रूप में मनाया जाता है । 13 वर्ष पूर्व राणीगांव मे चौहटन रोड़ फांटा पर विस्तृत भू भाग में फैली धर्मपूरी जी महाराज की ओरण को भूमाफियों एवं स्वार्थी तत्वों के चुंगल से बड़ी जदोजहद के बाद मुक्त करवाई गई थी । इसी की स्मृति में प्रतिवर्ष 26 अप्रैल को ओरण बचाओ आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ता एवं आमजन ओरण दिवस के रूप में मनाते है । साथ ही ओरण गोचर में पूजा अर्चना की जाती है तथा ओरण में स्थित वृक्षों को रक्षासूत्र बांधे जाने के साथ ही ओरण गोचर संरक्षण का संकल्प लिया जाता है ।
वहीें पिछले 14 सालों से यहां के लोग ओरण गोचर एवं उसकी बेषकीमती सम्पदा बचाने के लिए वृक्षों को भी राखियां बांधते आ रहे है तथा उनको बचाने के प्रयत्न भी । इसी की बदौलत ओरण और गोचर को पूर्ण संरक्षण मिला हआ है । प्रतिवर्ष 26 अप्रैल को ओरण गोचर को बचाये जाने की स्मृति में वृक्षों को रक्षासूत्र व धरती माता को वन्दन व पूजन किया जाता है ।
ओरण बचाओ आन्दोलन संयोजक मुकेष बोहरा अमन आन्दोलन को याद करते हुए बताते है कि अप्रैल 2002 की भीषण गर्मी के बाद भी राणीगांव, रड़वा, तारातरा, बालेरा, बलाउ, उण्डखा, निम्बड़ी, सेगड़ी सहित कई गावों के सैंकड़ों पशुपालकों एवं किसानों ने भाग लेकर धर्मपूरी की महाराज की ओरण में लगने वाले दो क्रेषर व डामर प्लांट को निरस्त करवा हमारी धरोहर ओरण गोचर को बचाने का महता उपक्रम किया । वहीं तारातरा मठ के महन्त श्री मोहनपुरी जी महाराज ने ओरण व गोचर के दूध की कार देकर सबको ओरण गोचर संरक्षण की शपथ दिलाई जिसका ग्रामीण आज भी बड़ी ही षिद्दत से पालना कर रहे है । जिसकी स्मृति में हर वर्ष 26 अप्रैल को राणीगांव फांटा पर स्थित धर्मपुरी जी महाराज की ओरण में कार्यक्रम का आयोजन ओरण बचाओ आन्दोलन के युवाओं एवं ग्रामीणों की ओर से किया जाता है ।
इस दिन राणीगांव में स्थित धर्मपुरी जी महाराज की ओरण में 26 अप्रेल को ओरण की पूजा अर्चना कर पेड-पौधों को रक्षासूत्र बांधे जायेेंगें । इस अवसर पर ओरण बचाओ आन्दोलन से जुड़े कई कार्यकर्ता मौजूद रहेंगें ।
ओरण-गोचर की महता एव संरक्षण को लेकर लेखक मुकेष बोहरा अमन की पुस्तक ओरण हमारी धरोहर पुस्तक के कुछ अंष इस प्रकार है:-
सारे अंष लेखक मुकेष बोहरा अमन की पुस्तक ओरण हमारी धरोहर से लिए गये है । स्वयं पिछले 14 वर्षाे से ओरण गोचर बचाओ आन्दोलन का सक्रिय नेतृत्व कर रहे है वहीं आप जोधपुर संभाग स्तरीय कमेटी के संयोजक भी है ।
ओरण एक धरोहर है
हमारी संस्कृति एवं सभ्यता ने हमें ऐसे कई बेजोड़ संस्कार अथवा तत्व दिये है जो हमारे वर्तमान व भविष्य के बहुपयोगी होने के साथ साथ अमूल्य निधियां भी है । ओरण गोचर क्षेत्रों का प्रचलन सर्वप्रथम कब व कहां हुआ ? यहां ठीक ठीक बता पाना बेहद ही मुष्किल है । ओरण गोचर के बारे में लिखित दस्तावेज की अनुपलब्धता ने इसकी प्राचीनता के सवाल को पेचीदा बना दिया है । लेकिन यह तय है कि मानव ने जब कृषि एवं पषुपालन का कार्य प्रारम्भ किया तभी से इन क्षेत्रों की जरूरत रही होगी और आमजन ने मिलकर आपसी समझोते के तहत ओरण गोचर का प्रावधान किया होगा । जिसे उन लोगों ने धर्म का स्वरूप देकर और मजबूत करने की कोषिष की । इन सबके बावजूद ओरण गोचर का इतिहास काफी पुराना है । स्थानीय किवदंतियों एवं मौखिक वार्तालाप से पता चलता है कि ओरण गोचर का इतिहास 56 ई. पूर्व रहा होगा । राजस्थान में बाड़मेर जिले की ढ़ोक की वांकल माता की ओरण के विषय में जानकारी के बाद ओरण की प्राचीनता के प्रमाण पुख्ता होते है ।
ओरण गोचर क्या है
ओरण गोचर क्षेत्रों का सर्वप्रथम प्रचलन कब व कहां प्रारम्भ हुआ ? यह ठीक ठीक बता पाना बेहद ही कठिन है । ओरण गोचर के बारे में किसी भी प्रकार के लिखित दस्तावेज की अनुपलब्धता ने इनकी प्राचीनता व महता के सवाल को पेचीदा बना दिया है । इन सब के बावजूद ओरण गोचर का इतिहास व उद्भव काल काफी पुराना है । जिसकी जानकारी हमें लोकमानस में चल रही किवदंतियों व मौखिक वार्तालापों से प्राप्त होती है । लोकजन की आस्था का केन्द्र रही ओरण गोचर की संस्कृति का प्रारम्भिक काल लगभग 56 ईस्वी के आसपास से माना जाता है । जिसके प्रमाण हमें बाड़मेर जिले की चैहटन तहसील की ढ़ोक ग्राम पंचायत की वांकल माता की ओरण की प्राचीनता से पुख्ता होते है ।
ओरण गोचर का निर्माण समुदाय द्वारा होता है । इसका संरक्षण भी समुदाय ही करता है । यहां ओरण का मतलब इस प्रकार की भूमि से है जो समुदाय द्वारा अपने इष्ट अथवा महापुरूषों के नाम पर वन्य जीव जन्तुओं, पशु पक्षियों आदि के निर्भय जीवन निर्वह्न के लिए सुरक्षित रखी गई है । जिसमें वृक्ष काटना तो दूर वृक्ष की टहनी काटना भी निषिद्ध माना जाता है । ओरण शब्द का तात्पर्य अरण्य से है । अरण्य का मतलब होता है वन अथवा जंगल । स्थानीय बोलचाल की भाषा में ओरण का मतलब आन अथवा आण से भी लिया जाता है । जिसका अर्थ शपथ या सौगन्ध होता है । वहीं गोचर का सम्बन्ध गाय अथवा मवेषियों के चरने व स्वच्छन्द विचरण के लिए छोड़ी गई भूमि से है । राजस्थान के लिहाज से ओरण गोचर की संस्कृति बहुत पुरानी है । ओरण गोचर के संरक्षण के लिए लोगों ने खेजड़ली की मानिंद कई कुर्बानियां भी दी जिसका जिक्र लोककथाओं व लोक गाथाओं में आज भी बड़ी षिद्दत के साथ होता है । वहीं ओरण गोचर के लिए जीने व मरने की स्मृतियां आज भी जन जन में ताजा है । वहीं गावों में ओरण गोचर संरक्षण को लेकर आमजन आज भी तत्पर दिखाई देता है । आम आदमी में पूर्वजों के संस्कारों की रक्षा की भावना आज भी जिन्दा है । लेकिन समय की बदली करवट के बाद ओरण गोचर स्थानीय लोगों के साथ-साथ सरकार की भी मोहताज हो रही है ।
ओरण की उपयोगिता:-
ओरण गोचर सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ साथ पषुपालको व मवेषियों के जीवन का आधार है । गांवों में मवेषियों के ठहरने व पषुपालको के लिए पषुओं को सुरक्षित रखने के लिए ओरण गोचर ही एकमात्र स्थान है । जहां पशुपालक वर्ग विषेषकर रेबारी जाति के लोग अपनी रेवड़ को इन स्थानों में ठहराते है तथा सुरक्षित आश्रय की पूर्ति करते है । ओरण गोचर क्षेत्र महज मवेषियों के लिए ही नही बल्कि छोटे बड़े अनेकानेक जीवों की शरण स्थली भी है ।
हमारी संस्कृति एवं सभ्यता ने हमें ऐसे कई बैजोड़ संस्कार अथवा तत्व प्रदान किये है जो हमारे लिए बहु-उपयोगी होने के साथ-2 अमूल्य निधियां है जिनमें से ‘ओरण’ एक है। यह संस्कार हमारे पूर्वजों द्वारा दी गई एक ऐसी अमूल्य विरासत है जो हमें अनेकानेक फायदे पहंुचाने के साथ-2 जीवन में आने वाली प्राकृतिक विपदाओं से दूर करती है। ओरण बचाया जाना और उसको बचाने के लिए कोषिष करना वास्तव में मौजूदा एवं भावी पर्यावरणीय संकटों से निजात पाने की एक शानदार एवं प्रषसंनीय पहल है। यह ओरण हमारी सांस्कृतिक एवम् धार्मिक धरोहर के साथ-साथ पशुपालकों एवम् पशुओं का प्राण है। राजस्थान की अर्थव्यवस्था वृहत्त उद्योगों पर निभर न होकर कृषि एवम् पशुपालन जैसे व्यवसायों पर निर्भर है हालांकि हमारी कृशि तो मानसून का जुआ बन चुकी है मगर पशुपालन के क्षेत्र में राजस्थान के पिछड़े तबके के लोगों व ग्रामीण आंचलों में आज भी रोजगार व आजीविका कमाने की राहें पहले की तरह ही चैड़ी व खुली बरकरार है। इस पशुपालन के सरंक्षण में राज्य में विद्यमान ओरणों का अहम् योगदान है। पशुपालन करने वाली जातियों में विषेषकर रेबारी जाति के लिए यह ओरण एक वरदान साबित हुई है। इन ओरण गोचर क्षेत्रों का आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक मायनों में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान है । पष्चिमी राजस्थान में पशुपालन व्यवसाय विषेषकर वर्षाकाल में इन क्षे़त्रों पर ही निर्भर रहता है । यहां की पशुपालक जातियों विषेषकर रेबारी जाति का तो यह क्षेत्र आसरा ही है । जहां वे अपने मवेशियों को ठहराते है तथा रात्रि विश्राम करते है । यहां के पशु - पक्षी, जीव - जन्तुओं आदि की ओरण और गोचर शरण स्थली है ।
पारिस्थिकी असंतुलन, पर्यावरण प्रदूषण गलोबल वार्मिंग, ग्लोबल कूलिंग आदि जैसी कई समस्याओं के लिए ओरण गोचर क्षेत्र एक कारगर औषधि की तरह है । ओरण गोचर क्षेत्रों का संरक्षण, संवर्द्धन एवं विकास होना समय की महती आवश्यकता हो गई है । ओरण गोचर क्षेत्रों के इस दौर में उपयुक्त उपयोगिताओं के भी अनेकानेक उपयोग हो रहे है । ओरण गोचर क्षेत्रों का उपयोग पशु चराई, पशु शरण स्थली, इमारती लकडियां तथा ईंधन, विभिन्न प्रकार की जड़ी बुटियां, घास उत्पादन, वन्य जीवों की शरण स्थली, फल उत्पादन, अकाल का विकल्प सहित कई प्रकार से होता आ रहा है जिसने जन जन में आस्था की भावना पैदा की है ।
ओरण-गोचरः एक बेहतर चारागाह
हमारे देश के धर्म, संस्कृति, समृध्दि व सलामती की आधारशिला हमारा पशुधन रहा है । और पशुओं की जीवन-रेखा हमारे चारागाह। आमजन की बोलचाल की भाषा में हम मात्र पशुओं के चरने की जमीन को चरागाह कहते हैं। भारत में अंग्रेजी शासन के पहले से ही प्रत्येक गांव में चरने के लिए चरागाह थे। कई जगहों में गांव की चारों दिशाओं में चरागाह होते थे। जैसे जेवरात तिजोरी में ही सुरक्षित रहते हैं, वैसे देश का पशुधन चरागाहों में ही संभाला जा सकता है। चरागाह पशुरक्षक व पशु-संवर्धन की जीवन-रेखा है। पशुधन इस देश के कृषि, व्यापार, उद्योग इत्यादि अनेक उपयोगी विषयों की आधारशिला रही है। सच तो यह है कि देश के धर्म, संस्कृति, कृषि, व्यापार, उद्योग, समृध्दि और सामाजिक व्यवस्था तथा जनता की शांति व सुरक्षितता की जीवन-रेखा देश के समृध्द चरागाह ही हैं।
अन्य देषों की तुलना में भारत में चारागाहों का दिनोंदिन ह्रास होता जा रहा है । चारागाहों की एवज में विकास के नाम पर सड़कों, भवनों, कारखानों, उद्योगों आदि का निर्माण धडल्ले से होता जा रहा है । जो देष के मूलभूत संरचनात्मक ढ़ाचे व व्यापार के साथ खिलवाड़ है जिससे देष का कृषि व पशुपालन व्यवसाय चैपट होने की कगार पर है । देष में विकास की अन्धी दौड के नाम पर प्राकृतिक चरागाहों का विनाश किया जा रहा है । वहीं तथाकथित लोंगों द्वारा गौरक्षा अथवा मवेषियों की सेवा के नाम पर बड़े बड़े गौषाला ठिकानों का निर्माण हो रहा है। वहीं देष में आजादी के बाद से लेकर अब तक हजारों-हजारों एकड़ ओरण गोचर रूपी चारागाहों का विकास व व्यवस्था के नाम पर सफाया हो चुका है । जो आने वाले दिनों में और भी तीव्र गति होन की ओर अग्रसर है । जिसको बचाने को लेकर एक भी सार्थक कदम उठता नजर नही आ रहा है । फिर भी किसानों का विकास करने की लम्बी लम्बी हांकने वाले, गरीबों का साथी कहलाने वाले, विशेषकर किसानों, पशुपालकों व गांव के कारीगरों को गुमराह कर वोट मांग कर विधानसभा या लोकसभा में जाने वाले किसी भी सदस्य ने ओरण और गोचर रूपी चारागाहों, को लेकर कोई बात तक नही रखी बल्कि ओरण गोचर के चारागाहों पर हो रहे अतिक्रमण को लेकर न तो उसका विरोध किया है, न ही उसके प्रति चिन्ता व्यक्त की है। मेरा मत यह कि ओरण एवं गोचर के माध्यम से चारागाह की समुचित व्यवस्था ही भारत में कृषि एवं पशुपालन जैसे अहम कार्य एवं व्यवसाय को बचा सकती है ।
हमारे देष और राज्यों की ओरण गोचर के चारागाहों में भी इतना चारा होता है कि वे देष व राज्यों के पशुपालन को बदस्तुर जारी रख सकते है । बस जरूरत है चारागाहों को और अधिक विकसित करने की है । बिना देखभाल के ओरण गोचर की लाखों -लाखों बीघा भूमि में घास की जगह धूल व कंकड़ उग रहे हैं। बिना किसी देखरेख के दिनों दिनों अनुपजाऊ हो रही है । चारागाहों में पशुओं को स्वतंत्र फिरने न देने पर वह जमीन कठोर बन जाती है और धीरे-धीरे वह इतनी कठोर हो जाती है कि उसमें घास उग ही नहीं पाती। अगर उग भी जाती है तो बढ़ नहीं पाती। इस प्रकार भूमि स्वतः बंजर होती चली जाती है । चारागाहों के संरक्षण के अभाव ने देष के बड़े भूभाग को बंजर होने की ओर धकेला है । जो भविष्य के लिए चिन्ता और बेहद ही चिन्तन का विषय है । जमीन को हमेशा पोषण चाहिए, चाहे वह जमीन खेती की हो, जंगल की हो या चरनी की हो। खेतों में पशुओं के मल-मूत्र की खाद डालते हैं। लेकिन जंगलों में खाद डालने कौन जाता है ? इसकी व्यवस्था तो प्रकृति ने ही कर दी है। जंगल में पेड़ों के सूखे पत्तों के जमीन पर गिरने, अनेक पक्षियों की विष्ठा गिरने और वन्य पशुओं व जानवरों के मल-मूत्र गिरने के मिश्रण से उत्पन्न उत्तम खाद जंगल की जमीन को उपजाऊ और रसदार बनाने का काम करती है । इसके अलावा पशुओं के मुंह की लार में भी विशेष गुण होता है। वे जब जमीन पर उगी हुई घास खाते हैं, तब उनके मुंह की लार उस घास पर गिरती है वहां और जिस घास को वे अपने मुंह से काट लें, उसमें से फिर नये अंकुर फूटते हैं। लेकिन दरांती के द्वारा घास काटी गयी है, तो नये अंकुर नहीं फूटते। सच्चाई तो यह है कि चरनी के दौरान पशुओं के पैरों तले की जमीन नरम बन जाती है, जिससे घास आसानी से उगती है। खेत हल द्वारा इसीलिए जोते जाते हैं कि मिट्टी नरम बने व अनाज उस नरम जमीन में आसानी से उग सके।
पशुओं को चराने वाले ग्वाले रात को ओरण और गोचर में ही सो जाते है । पशुधन रात्रि में यही आराम करता है । फिर ग्वाले सूर्योदय के बाद पुनः पशुओं को गांव ले जाता। इस तरह रात-दिन चरने-फिरने से पशु अधिक दूध देते और तंदुरूस्त रहते। गरीब से गरीब आदमी भी अपने घर में गाय या भैंस रखता था। हमारी गायों औश्र पशुधन को कत्लखाने की ओर धकेलने की साजिश के एक भाग के रूप में अंग्रेजों ने चारगाहों का नाश करना शुरू कर दिया। लेकिन चारागाह तो लाखों की संख्या में थे, इन सबका नाश कैसे हो ? इसके लिए भी उन्होंने योजनाएं तैयार कीं। चरागाहों को वीरान, कमजोर और निकम्मे करने में उन्होंने कई हथकण्डे अपनाये । आज इस देश के नेताओं के लिए 4 एकड से 11 एकड पर की भूमि पर कोठी बनी दी जाती है, कारखाने बना दिये जाते है, बड़े-बड़े बंगले खड़े कर दिये जाते है, कत्लखानों को खोलने की खुले आम ईजाजत दे दी जाती है । जबकि गाय सहित तमाम पशुओं की भूमि की रक्षा की किसी को क्षण भर भी नही सुझ रही है । इस प्रकार के हालातों के चलते अब आम जनता को ही पुनः जागना होगा और देश के पशुधन और चारागाहों को बचाने के लिए ओरण गोचर जैसी हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने का बीड़ा उठाना होगा । ओरण गोचर को बचाने के आन्दोलनों को जन्म देना होगा जिनसे पुनः हमारे संस्कारों व मृल्यों की स्थापना हो सके । ऐसे आन्दोलन होने प्रारम्भ भी हो गये है जो ओरण-गोचर भूमि के संरक्षण के लिए स्थानीय स्तर पर जागरूकता लाने के साथ साथ प्रशासनिक स्तर पर भी लड़ाई लड़ रहे है । लेकिन बिना किसी सरकारी या गैर सरकारी मदद के खुद ही अपनी परंपरा कोे पहचान कर गोचर भूमि को हरा-भरा करने का जैसा उम्दा आंदोलन बाड़मेर (राजस्थान) के रानीगांव में वर्ष 2002 में प्रारंभ किया गया ।यह आन्दोलन अपने आगाज के लिहाज से बड़ा ही अद्भुत है। यहां अब इंसान इंसान को ही राखी नही बांधता बल्कि 26 अप्रैल को यहां नौजवान व ओरणप्रेमी ओरण गोचर के प्राणदायी पेड़-पौधो को भी राखी बांधते है । जो अपने आप में एकदम अनूठा है । पिछले 14 सालों से राणीगांव में 26 अप्रैल ओरण- गोचर और पर्यावरण की रक्षा का भी त्यौहार हो गया है। देश का शायद यह अकेला गांव है जहां ओरण व गोचर की रक्षा के लिए प्रतिवर्ष 26 अप्रैल को ओरण दिवस का आयोजन किया जाता है इस दिन गांव के युवा बड़े बुजुर्ग ओरण व गोचर की रक्षा का संकल्प लेते है तथा ओरण व गोचर की रक्षा के लिए आमजन में जागरूकता लाने का कार्य करते है ।
पश्चिम राजस्थान में लगभग हर गांव में ओरण और गोचर विद्यमान हैं। यहां खेती नहीं, पशुपालन लोगों का मुख्य धंधा है और इसलिए ओरण गोचर ने एक पवित्र संस्था का रूप ले लिया है। ये ओरण गोचर सार्वजनिक यानी सरकारी जमीन पर हैं। राजनीतिकों की जो नई पीढ़ी आई है उसके लिए कुछ भी पवित्र नहीं है और किसी भी पुरानी संस्था का उपयोग उन्हें समझ में नहीं आता। इसलिए उन्होंने वोट और अपने निजी स्वार्थाें के चलते ओरण गोचर की सरकारी भूमि पर निजी कब्जों को प्रोत्साहित किया है। पश्चिमी राजस्थान में ऐसे कई ओरण गोचर मिल जाएंगे जो अब सिर्फ नाम और रेकार्ड में ओरण गोचर क्षेत्र रह गये हैं।
ओरण एकः रूप अनेक
राजस्थान में ओरण गोचर की भांति देषके अलग अलग राज्यों में देवी देवताओं आदि के नाम पर वन्य प्राणियों , मवेषियों व जीव जन्तुओं के निमित छोड़े गये भू भाग को भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है । ओरण गोचर को हरियाणा में तीरथवन, समाधिवन तथा गुरूद्वारा वन, आसाम में थान , मिजोरम में मावमुण्ड , सिक्किम में गुंपा , तमिलनाडु में कोकिलनाडु , हिमाचल प्रदेष में देववन, महाराष्ट्र में देवराई ,अरूणाचल प्रदेष में गुंपा और उतरांचल में देववन के नाम से जाना जाता है । इसी तरह देष के अन्य राज्यों में भी ओरण गोचर भू भाग विद्यमान है । जिन्हें प्रकाष में लाने व संरक्षित की जरूरत है । एक अकेले राजस्थान में लाखों बीघा भूमि ओरण गोचर के नाम दर्ज है । इससे यह बात निःसन्देह स्पष्ट है कि देष के अन्य राज्यों में भी मवेषियों के लिए थोड़ी बहुत मात्र में ऐसे क्षेत्र अवष्य रहे होंगें जिनसे पशुपालन को बढ़ावा मिलने का कार्य हुआ होगा ।
ओरण - गोचर पर बढ़ता संकट
ओरण की उत्पति व उपलब्धता की कहानी बहुत पुरानी है । ग्राम्य जीवन में ओरण का बहुत अधिक महत्व है । ओरण हमारी धरोहर है । जीवनदायिनी है , सुखदायिनी है । जीवों का पालन पोषण करती है , परन्तु वर्तमान में बदली बदली फिजां ने ओरण गोचर पर भी अपना प्रभाव डाला है । वर्तमान में ओरण गाचर पर अतिक्रमण की वारदातें बढ़ रही है । यह चिंता का विषय है । देष के किसी भी कोने में ओरण अथवा देववन के नाम से संरक्षित व सुरक्षित भू भाग को मिल जाता है । लेकिन इस दौर में ओरण गोचर अथवा देववनों का वह स्वरूप नही रहा जो कभी एक समय में था । अतिक्रमण की वजह सेे ओरण गोचर क्षेत्र सिमटते जा रहे है । अनका आकार घटने लगा है । ओरण पर हो रहे अतिक्रमण पारिस्थितिकी असंतुलन को न्यौता दे रहा है । ओरण गोचर सदियों से मानव की आवश्यकताओं को पूरा करती रही है । ओरण गोचर हमें विभिन्न प्रकार के खतरों से बचाती रही है । हमारी संस्कृति ने हमें ‘ त्यक्तेन भूंजिथा ’ की सीख दी है परन्तु हमने त्याग को त्याग कर भोग को गले से लगा लिया है । जिसके अपने खतरे है । पष्चिमी राजस्थान में फैली अनूठी विरासत ओरण गोचर इस भौतिकवादी युग में खतरे में है । जिस पर दिन प्रति दिन अतिक्रमण के मामले प्रकाष में आ रहे है । इन ओरण गोचर क्षेत्रों पर ही यहां का पशुपालन , मवेषी, पशु पक्षी आदि का गुजर बसर निर्भर है । इनके अतिक्रमण से वन्य - जीव जन्तुओं के साथ साथ पशुपालन व्यवसाय भी संकट में आ जायेगा । समूचे राजस्थान विशेषकर पष्चिमी राजस्थान में हजारों एकड. में फैली वानस्पतिक विरासत ओरण गोचर पर यहां की कई पशुपालक जातियों का जीवन का निर्वाह निर्भर है । मनुष्य ही नही बल्कि सभी जीव-जंतुओं को भी अपनी रोजमर्रा की विभिन्न आवष्यकताओं के लिए प्रकृति पर निर्भर रहना पडता है। प्रकृति के सन्तुलन से ही सबका समुचित विकास सम्भव होता है। परन्तु मनुष्य ने औद्योगिक सभ्यता की चकाचैंध के इस दौर मे पिछले कुछ वर्षों से बढती आबादी के दबाव की वजह से प्रकृति के नैसर्गिक संसाधनों का दोहन बडी ही तीव्र गति से किया है। जिसने प्रकृति एवं पर्यावरण में असन्तुलन की स्थिति पैदा कर दी है। मनुष्य ने विकास की इस अंधी दौड में कुदरत को बेहद ही निर्मलता से कुचला है। जिसके परिणाम भी हमारे सामने आ रहे है। दिनों दिन जंगलो के साथ साथ हमारे प्राकृतिक चारागाह ओरण-गोचर जैसी सस्थाओं का ह्रास होता जा रहा है। जिसमें अनेकानेक जीवों एवं वनस्पतियों का अस्तित्व खतरे में आ गया है। वही वृक्षों की अनवरत कटाई भी बहुत हुई है।
प्रकृति में बढ़ता असन्तुलन स्वयं मानव के लिए घातक सिद्ध होगा । प्रकृति में असन्तुलन पैदा करने में काफी हद तक मनुष्य की भूमिका ही रही है । अर्थात् सम्पूर्ण प्रकृति को खतरे में डाल दिया है । पर्यावरण संरक्षण, जंगलों एवं वनों का बचाना आदि सहित प्रकृति से जुडे कई प्रष्न हमारे सामने मुहं फैलाये खडे है। भौतिकता की मृग-तृष्णा में भटक रहा आदमी आज सब कुछ भूलकर पर्यावरण को नष्ट करने को आतुर है। वह महन स्वार्थी होकर प्रकृति विरुद्ध गतिविधियों को अन्जाम दिये जा रहा है। बाडमेंर , राजस्थान या भारत में ही नही बल्कि विष्वभर मे चारागाह रची ओरण -गोचर जैसी प्राकृतिक संस्थाएं /व्यवस्थाएं घटती जा रही जो सबसे बडा चिन्ता का विषय है। हम पर्यावरण दिवस, पृथ्वी दिवस सहित तमाम प्रकृति व पर्यावरण को बचाने को लेकर कार्यक्रमों का आयोजन करते है तथा अपनी षाब्दिक चिंताए शषण /व्याख्यान के माध्यम से प्रेषित कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है। हमारी चिंताएं विष्व स्तर पर पहली बार, जून, 1992 में रियो-डि-जेनीरों में आयोजित हुए पृथ्वी षिखर सम्मेलन में मुखर हुई। जिसमें 115 देषों ने प्रतिनिधित्व किया । 1992 के बाद से लेकर अब तक पर्यावरण व प्रकृति असन्तुलन को लेकर कई सम्मेलन, सभाएं एवं मीटिगें हो चुकी है परन्तु कोई सार्थक परिणाम जिस गति से आने चाहिए थे उस गति से नहीं आ पा रहे थे। जब तक सरकारें अपने -अपने स्तर पर बडे फैसले नही लेगी तथा उन्हें क्रियान्वित नही करेगी तब तक ढाक के तीन पात की स्थिति ही रहनी है। वही सरकारी प्रयासों के साथ-साथ जन-साधारण व समुदाय की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। गांवों की आत्मा उनके संस्कार है। अन्यथा षहरों एवं गांवों में कोई अन्तर नही हैं। गांव के अपने संस्कार व व्यवहार होते है जो एक पीढी से दूसरी पीढी में स्वतः स्थान्तरित होते रहते है। गांवों की ओरण-गोचर की संस्कृति भी उन्हीं संस्कारों में से एक है। जो सदियों पीढी -दर-पीढी स्थान्तरित होते रहे है। जब हम ओरण-गोचर को पूर्ण रुप से बचाने में सफल हो जाएगें तब स्वतः ही इस पृथ्वी की सारी पर्यावरणीय समस्याएं स्वतः ही खत्म हो जाएगी।
कृषि को अर्थव्यवस्था के प्रमुख आधार के रुप में विकसित करने की चल रही कोशिशों के बीच गोचर भूमि को लेकर सामने आ रही एक नई जद्दोजहद ध्यान खींचने वाली है। कृषि के क्षेत्र में विकास की संभावनाओं को पशुधन विकास से अलग करके नहीं देखा जा सकता। कृषि सदियों से राज्य व्यवस्था के लिए प्राथमिकता का विषय रही है और भू-बंदोबस्ती में भी इस बात का ख्याल रखा गया था कि गांवों में कुछ भूमि गोचर के रुप में सुरक्षित रखी जाए। भू-माफियाओं ने ऐसा जाल फैलाया कि गांव-गांव की यह गोचर भूमि नक्शे से गायब हो गई। ऐसे तमाम संगठन हैं, जो पशुओं की तस्करी के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं, लेकिन गोचर भूमि उनके लिए कभी कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन सकी। पशुपालक ही इस मुद्दे पर यदाकदा सामने आते रहे हैं। कानूनी रुप से गोचर भूमि की न तो खरीद-बिक्री हो सकती है और न ही उसे किसी को पट्टे पर दिया जा सकता है। ऐसे में इस भूमि के नक्शे से गायब हो जाना, एक बड़ा मामला है, जिस पर सरकार को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। खुले मौसम में तो ठीक है, लेकिन बारिश के मौसम में पशुओं की देखभाल में आ रही कठिनाई के कारण पशुपालन व्यवसाय से ही लोगों का मोह भंग होने लगा है। हरित व श्वेत क्रांति के नारे लगाने वाले राज्य प्रशासन को इस स्थिति की गंभीरता को समझना होगा। पंचायती राज व्यवस्था कायम होने से गांवों में संसाधनों की सुरक्षा और विकास में गति तो आई है, लेकिन बुनियादी विकास के जिन अवसरों को पहले ही खत्म कर दिया गया, उन अवसरों की तलाश की अब सरकार के स्तर पर ही कोई सूरत निकल सकती है। गांव-गांव में गोचर भूमि अवैध कब्जे से खाली कराकर उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी ग्राम पंचायतों को दी जानी चाहिए। इसे एक बड़े अभियान का हिस्सा बनाकर पशुधन विकास के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया जा सकता है। इससे उस प्रभावशाली तबके के खिलाफ गांवों में पनप रहे असंतोष को भी दूर किया जा सकता है, जो गांव के संसाधनों को निजी संपत्ति के रुप में इस्तेमाल करता रहा है। गांवों में इस तबके के खिलाफ आवाजें उठने लगी है और यह कोई नए सामाजिक संघर्ष का सबब बने, इससे पहले इसका समाधान खोजने की जरुरत है।
अतिक्रमियों का आतंक:- दिन प्रति दिन प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से ओरण गोचर पर अतिक्रमण की खबरें लगातार बढ़ते हुए क्रम में प्रकाष में आ रही है ।इस प्रकार अतिक्रमण के मामलों हो रही बढ़ोतरी ओरण गोचर संरक्षण के लिए बेहद ही घातक है । इसके लिए आमजन एवं प्रषासन दोंनों को ही कुम्भकर्णी निद्रा त्याग कर आगे आना होगा । अन्यथा आधुनिकता की चकाचैंध व स्वार्थपरता के दौर में ओरण गोचर क्षेत्रों को बचा पाना मुष्किल है । केवल बाड़मेर में ही नही बल्कि राज्य और देषभर में चारागाह के लिहाज से सुरक्षित ओरण-गोचर जैसी तमाम संस्थाएं अतिक्रमण की भेंट चढ़ती जा रही है जिस पर कोई पुख्ता एवं असरकारक कार्यवाही होती नजर नही आ रही है । असरकारक कार्यवाही के अभाव में ओरण गोचर भूमि दिनों दिन सिकुड़ती जा रही है । जिले भर में तकरीबन ................ बीघा भूमि है । जिस पर निवास, कृषि, सरकारी निर्माण सहित कई वजहों को लेकर हजारों बीघा भूमि अतिक्रमण के हवाले हो चुकी है । वहीं ओरण गोचर भूमि पर अत्रिकमण के मामले लगातार बढ़ते जा रहे है । ओरण गोचर क्षेत्रों में कच्चे व पक्के निर्माण होने के बावजूद भी कार्यवाही के नाम सिफर है जिसके चलते अतिक्रमियों के होंसले बुलन्द दिख रहे है ।
सरकारी उपेक्षा की षिकार:-
देषभर में पसरी आमजन की सांस्कृतिक धरोहर ओरण गोचर वर्तमान परिदृष्य में अपने विस्तार एवं स्वरूप को लेकर स्वार्थी तत्वों के निषाने पर है वहीं ओरण गोचर के संरक्षण के प्रति आमजन, जिम्मेदार लोगों एवं प्रषासन के लचर रवैये के चलते अस्तित्व खतरे में है । ओरण गोचर क्षेत्रों के साथ सबसे नाइंसाफी तो यहहो रही है कि इनकी समय समय पर पैमाईष नही हो पा रही है जिसके चलते ओरण गोचर क्षेत्र सिमटते जा रहे है । सरकारी स्तर पर ओरण गोचर संरक्षण को लेकर किसी की कोई खास रूचि नही रही है । ओरण गोचर के बारे में व्यवस्थित आंकड़ों का भी अभाव है । प्रषासनिक जागरूकता के अभाव में अतिक्रमियों के होंसले दिनों दिन बढ़ते जा रहे है । जिससे ओरण गोचर का विस्तृत भू भाग सिमट रहा है । रानीगांव में हुए ओरण बचाओं आन्दोलन में भी सरकारी सहयोग के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी थी तथा अन्ततः एक विशाल जन आन्दोलन करना पड़ा तब जाकर प्रशासन ने ओरण में होने वाले नाजायज अतिक्रमण से मुक्त करवाने में अपना सहयोग दिया था। यह प्रशासन का अचेतन रवैया सनातन संस्कृति के लिए बेहद ही खतरनाक साबित हो सकता है।
अवैध खनन ने भी उजाडा है ओरण गोचर को - ओरण गोचर को बंजर करने में भी स्वार्थी तत्वों ने कोई कसर नही छोड़ी है । शहरों व गावों में बनने वाली डामरीकृत सड़कों में कच्चे मेटेरियल के रूप में प्रयुक्त होने वाले मुरड़े को मुफ्त में पाने की खातिर चोरी छिपे इन क्षेत्रों में अक्सर खुदाई होती रहती है जिससे ओरण गोचर क्षेत्रों के स्वरूप को भंयकर रूप से क्षति पहुंची है ।
धरोहर को नही मिल रहे है आगीवाण:- गांव दर गांव व ढ़ाणी दर ढ़ाणी तक अपने विस्तृत भू भाग में फैली ओरण गोचर को सुरक्षित व संरक्षित रखने वाले आगीवाण नही मिल रहे है । जबकि एक वक्त था जब लोग आगे आकर ओरण गोचर क्षेत्रों की सुरक्षा करते थे तथा लोगों से आपसी समझाईष करते थे । यहां तक कि ओरण में लकड़ी तक काटने को पाप के बराबर माना जाता था । वहीं आमजन में भी एक प्रकार की आस्था एवं श्रद्धा का माहौल था । ऐसे आगीवाण लोगो के अभाव के चलते धरोहर को पूर्ण संरक्षण नही मिल पा रहा है ।
वन्य प्राणियों पर बढ़ता संकट:- ओरण गोचर क्षेत्रों में पाये वाले जाने वाले वन्य जीवों का अस्तित्व खतरे में है । वर्तमान दौर की बढ़ती आपाधापी व स्वार्थ की प्रवृति के चलते इन निर्दोष व निर्मूक प्राणियों को अपनी जान से हाथ धोने पड़ रहे है। थार के रेगिस्तान के ओरण गोचर क्षेत्रों में पाये जाने वाले वन्य प्राणी यथा- गोडावन, तीतर-बटेर, हिरण, खरगोष, नेवला, तीतर, कबूतर, गौरेया, मोर, पटेपड़ी, गोह, चन्दन गोह, बाज, कुरजां, नीलगाय, लोमड़ी, चील, गुगुरराजा, टिटोळी, सोन, तिलोर, सियार, आदि का अस्तित्व इन ओरण गोचर क्षेत्रों पर ही निर्भर है । ओरण गोचर के घटते स्वरूप ने इन प्राणियों के अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिया है । ओरण-गोचर क्षेत्रों में जिस गति व प्रकार से अतिक्रमण होते जा रहे है। उससे तो यही लगता है कि इन क्षेत्रों का कोई लम्बा जीवन काल नही है। आमजन में भी ओरण -गोचर को लेकर कोई रुचि नजर नही आ रही है जिसके चलते हमारी ही आंखों के सामने अतिक्रमण हो रहे है। वन्य जीव-जंतुओं, मवेषियों सहित मनुष्य स्वंय की निर्भरता भी ओरण-गोचर ही रही है परन्तु वर्तमान में उन्हें बचाने वाला कोई नही है। ओरण- गोचर क्षेत्रों बचाने के लिए प्रषासन एवं समुदाय स्तर पर कई बडें फैसले लेने होंगे तथा उन्हें सख्ती से लागू करना होगा।
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