पांडवों ने श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन में महाभारत का युद्ध जीता था। कौरवों की पराजय हुई और उनके सभी योद्धाओं ने कुरूक्षेत्र की रणभूमि में प्राण गंवाए। वास्तव में यह कहानी यहीं समाप्त नहीं होती। इसमें एक रोचक तथ्य भी है।
युद्ध से बहुत पहले 4 पांडव भी प्राण गंवा चुके थे लेकिन बाद में उन्हें प्राणदान दिया गया। युधिष्ठिर की सूझबूझ और बुद्धिमानी के कारण उनके सभी भाई पुनर्जीवित हुए थे।
यह कहानी शुरू होती है पांडवों के वनवास से। जब जुए में हारने के बाद पांडवों को 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास दिया गया। तब वे वनों में भटक रहे थे।
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एक दिन सभी पांडवों को प्यास लगी। इसलिए नकुल पानी लाने गए। जब वे पानी पीने लगे तो उन्हें एक आकाशवाणी सुनाई दी - मेरे सवालों के जवाब देने के बाद ही तुम जल पी सकते हो... लेकिन नकुल ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया और पानी पीने लगे।
पानी की एक घूंट लेते ही वे वहीं गिर गए और उनकी मृत्यु हो गई। इसी तरह सहदेव, अर्जुन और भीम भी जल लेने गए। उन्हें भी आकाशवाणी सुनाई दी लेकिन उन्होंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया और पानी की घूंट लेते ही भूमि पर गिर पड़े।
जब कोई भाई जल लेकर नहीं आया तो युधिष्ठिर को चिंता हुई। वे अपने भाइयों को ढूंढने गए। उन्होंने देखा, सभी तालाब के किनारे अचेत पड़े हैं। उनके शरीर में प्राण का कोई चिह्न नहीं है।
युधिष्ठिर ने सोचा, संभवतः इस सरोवर का पानी विषैला है। उन्होंने पानी पीना चाहा, तभी एक आकाशवाणी हुई - जल पीने से पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो। अन्यथा तुम भी अपने भाइयों की तरह मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे।
युधिष्ठिरन ने पूछा, आप कौन हैं?
उसने बताया कि वह एक यक्ष है और इस सरोवर के जल पर उसी का अधिकार है। युधिष्ठिर ने प्रश्न पूछने के लिए सहमति जता दी।
यक्ष ने पूछा, वह क्या है जिसमें धरती से भी ज्यादा भार होता है? आकाश से भी अधिक ऊंचाई किसकी है? किसकी गति वायु से भी तेज है? किसकी संख्या तिनकों से भी ज्यादा है?
युधिष्ठिर ने बताया, माता पृथ्वी से भी भारी यानी महान हैं। पिता का दर्जा आकाश से भी ऊंचा है। मन की गति वायु से भी तेज है। जीवन में चिंता की संख्या तिनकों से भी ज्यादा है।
यक्ष ने युधिष्ठिर से अनेक प्रश्न किए जो धर्म, नीति और व्यवहार कुशलता से संबंधित थे। उन्होंने सबके बिलकुल सही उत्तर दिए। जवाब सुनकर यक्ष प्रसन्न हो गया और उसने पांडवों को पुनः जीवित कर दिया। अपने भाइयों को जीवित देखकर युधिष्ठिर अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने सरोवर का जल पीया और वहां से प्रस्थान किया।
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