सोमवार, 30 मार्च 2015

राजस्थान दिवस विशेष यूं मनाया पटेल ने महाराणा को...

rajasthan diwas special

जयपुर

यूं मनाया पटेल ने महाराणा को...

भारतीय गणतंत्र के राज्यों की अनेक राजधानियां अपनी विशेषताएं रखती हैं। दिल्ली का स्मरण करते ही हजारों वर्षों का इतिहास सामने आता है। पृथ्वीराज, नादिर, अकबर, औरंगजेब और अंग्रेज- कितने ही चित्र उपस्थित होते हैं।




1949 के बाद जब देशी राज्यों को विलय कर नए प्रांत बनाए गए, तब राजधानियों का प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण राजनैतिक समस्या बन गया। राजस्थान में भी राजधानी का प्रश्न महान गुत्थी बन गया। जयपुर और उदयपुर का ऐतिहासिक तनाव तब चरम पर था। एक-दूसरे की सीमा में जाना भी दोनों के लिए भारी था।




लिहाजा जयपुर को छोड़कर पहले राजस्थान की रचना हुई और राजधानी उदयपुर में बनी। सामरिक परिस्थितियों के कारण उदयपुर ऐसे स्थान पर बसाया गया था, जहां पर शत्रु की चढ़ाई प्राय: असंभव हो।




जयपुर राजधानी बनते ही यह स्वप्न भंग हो जाता। किंतु भारतीय एकता की दृष्टि से जयपुर के मिलने पर ही राजस्थान का नक्शा पूरा हो सकता था। उदयपुर एक कोने में होने के कारण शासन की दृष्टि से असंभव नगर था। अतएव महाराणा उदयपुर को किसी ढंग से इन दोनों के लिए राजी करना जरूरी था।




सरदार पटेल ने नहीं लिया आसन

बड़प्पन के साक्ष्य अनहोनी परिस्थितियों में ही उपस्थित होते हैं। इतिहास और भारतीय जनभावना में महाराणा उदयपुर का महात्म और मान है। अतएव समस्त जनता की भावनाओं को बिना ठेस लगाए महाराणा उदयपुर को राजी करना, आसान काम नहीं था। किंतु कर्मठ सरदार पटेल की तीव्र बुद्धि ही परिस्थिति के अनुसार मोर्चा रोप देने में अत्यंत कुशल थी। तर्क से महाराणा को राजी करना व्यर्थ था क्योंकि सभी तर्क महाराणा के पक्ष में ही अंततोगत्वा जाते थे। अतएव चाणक्य पटेल ने युक्ति से काम लिया।




वे उदयपुर पहुंचे, जब वे महाराणा से भेंट करने गए तब एक अजीब घटना घटी। उनके कहने पर भी सरदार पटेल ने आसन नहीं लिया और हाथ जोड़कर कहा- 'महाराणा साहब! हम तो आपको दिल्ली ले जाने के लिए आए हैं।




चलिए दिल्ली का सिंहासन सम्हालिए।Ó सरदार पटेल ने यह बात इतनी सरलता और स्वच्छ एवं निष्कपटता तथा गंभीरता से कही कि महाराणा भूपाल सिंह की आंखें डबडबा उठीं।




उस दिल्ली- जिसके सिंहासन के सामने सिर न झुकाने के कौल के कारण सिसोदिया 1400 वर्ष तक खून और रक्त तथा जौहर से कुर्बानी देता आया है; वही दिल्ली और उसका सिंहासन उसके सामने आज भेंट के लिए हाजिर था। यह थी चित्तौड़ और बापा रावल के मेवाड़ के प्रतिशोध की अंतिम विजय।




उसी दिन से उदयपुर के महाराणा- राजस्थान के महाराज प्रमुख कहलाए और हैदराबाद के निजाम राजप्रमुख। अंग्रेजों के काल में हैदराबाद के निजाम अगर पूरे नहीं, तो आधे से अधिक बादशाह माने जाते थे। उनके राजमहल का नाम किंग कोठी था। वे 'हिज एम्जाल्टेड हाईनेसÓ कहे जाते थे, जबकि शेष राजे हिजहाईनेस पर खत्म थे।




किंतु जब स्वतंत्रता आई, तो स्वतंत्रता के प्रतीक मेवाड़ और उसके महाराणा के स्थान में परिवर्तन कैसे न होता। जिस दिन उदयपुर के महाराणा महाराज प्रमुख हुए उसी दिन भारत के इतिहास में यह बात दर्ज हो गई कि ऐतिहासिक न्याय एवं कर्तव्य परायणता की दृष्टि से केवल मेवाड़ के महाराजा ही नृपश्रेष्ठ होने के अधिकारी हैं।




जयपुर को मान लिया राजधानी

यह तय है कि वृहत्ता राजस्थान की राजधानी का सवाल तब भी यह जानकर हल किया गया था कि अजमेर का स्थल टापू के रूप में राजस्थान में विलय हो जाएगा। ऐतिहासिक परम्पराओं की दृष्टि से राजधानी केवल उदयपुर में हो सकती थी।




किंतु पटेल की उज्ज्वल देशभक्तिपूर्ण अभिव्यंजना पर मुग्ध होकर एकांत कुल सत्ता के प्रणी महाराणा भूपाल सिंह ने जयपुर को राजधानी मान लिया।




मुझे स्मरण है कि जब उदयपुर में मैंने पूछा कि महाराणा भूपाल सिंह का दुर्लभ गुण क्या है। तो श्री जनार्दन राय ने कहा कि निस्वार्थ प्रजा हित चिंतन। उनके इस परम्परागत गुण के कारण स्वदेश के हित में उन्होंने मेवाड़ के अभिमान के प्रतीक उदयपुर को भी राजस्थानी एकता के मंदिर में अर्पित कर दिया।




(राजस्थान के एकीकरण पर अपने जमाने के प्रख्यात पत्रकार विष्णु दत्त मिश्र 'तरंगीÓ का यह छह दशक पुराना आलेख हमें वरिष्ठ पत्रकार सीताराम झालाणी के संग्रह से प्राप्त हुआ है।)




सम्मान के साथ हुआ विलय

प्र्रवीण चन्द्र छाबड़ा, वरिष्ठ पत्रकार

जुलाई 1947 में स्वाधीनता अधिनियम के तहत भारत का दो राष्ट्रों 'भारत व पाकिस्तानÓ में विभाजन होने के साथ देशी रियासतों से भी ब्रिटेन की सत्ता समाप्त हो गई। विदा होने से पूर्व ब्रिटेन सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि रियासत चाहे तो वह अपनी सार्वभौम सत्ता को कायम रख सकती है और चाहे तो भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ अपने हितों के अनुसार समझौता या संधि कर सकती है। रियासत की जनता इन सबसे अनजान जैसी थी।




रियासतों के समक्ष यह भी स्पष्ट नहीं था कि सीमांकन में उनका कितना क्षेत्र पाकिस्तान में जा सकता है। 5 जुलाई 1947 को रियासती विभाग का कार्यभार संभालने के साथ सरदार वल्लभभाई पटेल ने राजाओं को विश्वास में लेना शुरू किया।




उनके प्रति सदाशयता, मित्रभाव, सम्मानजनक कार्यप्रणाली व व्यवहार से भरोसा दिला सके कि वे जो निर्णय करेंगे वह इनके हित के साथ देश की अखण्डता व प्रभुता को कायम रखने का होगा।




अखिल भारतीय कांग्रेस ने शुरू से ही रियासती भारत को अपने एजेन्डे में नहीं रखा। नेतृत्व ने भी इस आत्म-निषेध का कठोरता से पालन किया। गांधीजी का मानना था कि सर्वोपरि सत्ता (ब्रिटिश सरकार) के हटने के साथ ही रियासतों की समस्या स्वयं सुलझती जाएगी।




विलय में नहीं आई उलझने

यही कारण रहा कि अधिकांश रियासतों ने संविधान सभा में अपने प्रतिनिधि भेज दिए। राजस्थान से रियासतों तथा जनप्रतिनिधि मिलाकर कुल 17 प्रतिनिधि भेजे गए, जो 28 अप्रेल 1947 को संविधान सभा के सदस्य बन गए।




राजाओं के प्रतिनिधियों के संविधान सभा में हो जाने से उनकी भागीदारी होने के साथ राज्यों के पुनर्गठन व एकीकरण का मार्ग प्रशस्त हो गया। राजाओं ने रियासतों की जन-भावना का पूरा समादर किया, उसी तरह जन-नेताओं ने भी राजाओं का सम्मान बनाए रखा।




जोधपुर और बीकानेर रियासत को लेकर कुछ समय के लिए पेचीदा स्थिति बनी। पर, वह सरदार पटेल के प्रभाव और कुशल व्यवहार से सतही होकर रह गई। जोधपुर के महाराजा हणुवन्त सिंह को उन्होंने बुलाया और समझाया। सरदार पटेल ने कहा कि उन्होंने सुना है कि आप पाकिस्तान से समझौते की बात कर रहे हैं। क्या आपको पाकिस्तान जाना है? उनसे यह भी कहा कि देखिए आपको जाना है तो भेज दूं। रियासत नहीं जावेगी।




तब के कांग्रेस अध्यक्ष गोकुल भाई ने एक भेंटवार्ता में बताया था कि उस वक्त राजमाता जोधपुर ने उनसे स्पष्ट कहा कि अपने को तो देश के साथ रहना है। सरदार साहब क्रोध नहीं करें। राजमाता ने कहा- मेरे सिर पर हाथ रखिए कि आप उनकी मदद करेंगे। यही स्थिति बीकानेर महाराजा शार्दूल सिंह के साथ हुई।




इस प्रसंग में महारावल लक्ष्मण सिंह ने भी अपनी भेंटवार्ता में स्पष्ट किया कि कोई भी हिन्दू राजा स्वयंभू तथा अपनी प्रजा को पाकिस्तान के भेंट नहीं कर सकता था। महाराजा जोधपुर सारे राजस्थान को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में देखना चाहते थे। पाकिस्तान के साथ 'स्टेण्ड स्टील एग्रीमेन्टÓ करना चाहते थे।




उनका सारा व्यापार व्यवसाय सिन्ध-करांची से था। भारत सरकार को भी उन्होंने बता दिया था। बीकानेर रियासत के समक्ष भी गंगनहर का प्रश्न था। उन्हें भय था कि भागलपुर के दबाव में फिरोजपुर हेडवक्र्स व गंगनहर का मुख्य भाग पाकिस्तान में नहीं चला जावे। उनके लिए पाकिस्तान से सन्धि करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने जब चेतावनी दी तो स्वयंभू लॉर्ड माउन्टबेटन को दखल देना पड़ा।




महारावल रहना चाहते थे स्वतंत्र

राजस्थान में विलय के प्रश्न पर महारावल ने स्पष्ट किया कि वे अपने को स्वतंत्र रखना चाहते थे। लेकिन, उदयपुर के महाराणा भोपाल सिंह जी ने जब उन्हें बुलाया तो उन्होंने समझा कि वे भी डोमिनयन स्टेट की बात करेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।




मेरी तरफ मुस्करा कर कहा- विलीनीकरण नहीं, कुर्बानी देनी है। अब शेष भारत को संगठित व सुगठित बनाने के लिए। उन्होंने कहा कि यह समय चाहने या नहीं चाहने का नहीं है।




यह कर्तव्यपरायणता का सवाल है। भारत के बनने के लिए खुशी-खुशी आप विलय का प्रस्ताव करिए। महारावल के अनुसार उनकी विरोध भावना समाप्त हो गई।

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