एक बार देवताओं के आग्रह पर भृगु ने तय किया कि प्रमुख त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कौन बड़ा है, इसका पता लगाया जाए। उन्होंने महादेव से उनकी बुराई कर सवाल किए तो भगवान महादेव ने उन्हें डांट लगा कर भगा दिया।
फिर उन्होंने ब्रह्माजी से भी इसी तरह के प्रश्न किए तो ब्रह्मा भी नाराज हो गए और उन्हें फटकार दिया। भृगु क्षीर सागर में शेषशायी भगवान विष्णु के पास भी गए। उन्होंने आक्रोशित होकर विष्णु के वक्षस्थल पर पैर से प्रहार किया।
भगवान विष्णु ने ऋषि भृगु का चरण अपने हाथों में लिया और उनसे पूछा, ऋषिवर, मेरा वक्षस्थल कठोर है। आपके कोमल चरण आहत तो नहीं हुए? इन्हें कोई चोट तो नहीं लगी?
ऋषिवर भृगु ने भगवान विष्णु की विनम्रता और सहिष्णुता को देखते हुए उन्हें सर्वश्रेष्ठ देव की श्रेणी में रखा। किसी ने ठीक ही कहा है कि भक्ति का फल तब ही मिलता है जब भक्त तृण से भी अधिक नम्र और वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, शुद्ध मन से भक्ति करे।
अगर भक्त में भक्ति का अहंकार हो, त्याग का गुरूर हो और वह स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ, सबसे महान समझने लग जाए तो उसी पल से उसके पतन की शुरुआत होने लगती है। भक्ति में सिद्धि विनम्रता से ही संभव है। एक शायर ने कहा भी है -
झुक कर जो आपसे मिला होगा,
यकीनन कद में वो आपसे बड़ा होगा।
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