साल 2014 के नोबेल शांति पुरस्कार भारत के कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान के मलाला यूसुफजाई को संयुक्त रूप से देेने की घोषणा की गई है। बाल मजदूरी के खिलाफ काम करने वाले सत्यार्थी को इस पुरस्कार के लिए चुने जाने के बाद जहां भारत में एक ओर जश्न मनाया जा रहा है वहीं दूसरी ओर उनके काम पर सवाल उठने लगे हैं। अंग्रेजी मैगजीन फॉर्ब्स की एक पूर्व पत्रकार ने सत्यार्थी के एनजीओ बचपन बचाओ आंदोलन पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने इस आंदोलन पर आरोप लगाया है कि यह एनजीओ गलत आंकड़ों के आधार पर ज्यादा से ज्यादा विदेशी फंड हासिल करता है।
फॉर्ब्स मैगजीन ने अपनी वेबसाइट पर अपनी पूर्व पत्रकार मेघा बहरी का लेख प्रकाशित किया है, जिसमें बहरी ने बचपन बचाओ आंदोलन के साथ अपने अनुभव को लिखा है। उन्होंने रिपोर्ट में लिखा है कि वह 2008 में फोर्ब्स मैगजीन के लिए 'पश्चिमी देशों द्वारा भारत में बाल श्रम के इस्तेमाल' पर रिपोर्ट कर रही थी। रिपोर्ट तैयार करने के दौरान उन्होंने आंध्र प्रदेश के मोनसेंटो कॉटन फील्ड से लेकर राजस्थान के ग्रेनाइट क्वेरीज, दिल्ली की झुग्गी बस्तियों और उत्तर प्रदेश के कॉर्पेट बेल्ट के साथ कई अन्य क्षेत्रों का दौरा किया। इस दौरान मैंने पाया कि इन क्षेत्रों में भारतीय बच्चे दुनिया के बड़े देशों के लिए कम पैसे में विकट परिस्थितियों में काम कर रहे हैं।
साथ ही उन्होंने लेख में लिखा है कि मुझे पहली बार में पता लग गया था कि सत्यार्थी और उनका बचपन बचाओ आंदोलन अपने मिशन में कामयाब नहीं हो पाया। उन्होंने बताया कि रिपोर्ट के दौरान बचपन बचाओ आंदोलन के एक उच्च प्रतिनिधी से मैंने मुलाकात की। उन्होंने मुझे बताया कि गार्मेंट सेक्टर के अलावा मुझे यूपी के कॉर्पेट सेक्टर के बाल मजदूरों को भी देखना चाहिए। साथ ही उन्होंने मुझे बताया कि यहां हर गांव के हर घर में बच्चे एक्सपोर्ट के लिए कॉर्पेट बनाते हैं। तब मैंने उनसे वह दिखाने के लिए कहा, जिसके बाद हम लोग दिल्ली से यूपी के उन गांवों में गए जहां एक्सपोर्ट के लिए कॉर्पेट बनते थे। लेकिन जब हम उन गांवों में पहुंचे तो देखा कि वहां सिर्फ बड़े लोग ही कॉर्पेट बना रहे थे। उसके बाद मुझे शक हुआ मैंने उनसे सवाल किए तो वे मुझे एक घर में लेकर गए। वहां पर उन्होंने मुझे कहा कि आप बाहर कार में इंतजार कीजिए और मैं अभी आता हूं। लेकिन मैंने उनका पीछा किया और घर के अंदर गई तो वहां पर करघे के पास दो छह साल के बच्चे बैठे हुए थे। दोनों ही बच्चे स्कूल ड्रेस में थे और जब मैंने उनसे बुनाई करने के लिए कहा तो वह बुनाई नहीं कर पाए।
इससे यह स्पष्ट है कि जितने ज्यादा बच्चों को बचाने का आंकड़ा दिखाया जाता है, उतना ज्यादा एनजीओ को विदेशों से फंड मिलता है। विदेश से ज्यादा फंड पाने के चक्कर में एनजीओ झूठे आंकड़ें देते हैं। हालांकि यह भी झूठ नहीं है कि भारत में बाल मजदूरी बड़े स्तर पर होती है।
मेघा ने लिखा है कि कॉर्पेट इंडस्ट्री में बाल मजदूर काम करते हैं, इसके बाद मैंने खुद इस इंडस्ट्री को देखा तो मैंने पाया कि यहां बड़ी संख्या में बाल मजदूर काम करते हैं। उस दौरान मैं यूपी के मिर्जापुर में 14 साल के राकिल मोमीन से मिली जो कि करघे पर काम कर रहा था। उसने चौथी क्लास के बाद स्कूल छोड़ दिया था और पश्चिम बंगाल में अपने माता-पिता को छोड़कर यूपी आ गया और यहां आकर कॉर्पेट बुनने का काम करने लगा। अपनी नई जिंदगी में वह सुबह 6 बजे से रात 11 बजे तक एक महीने में 25 डॉलर के लिए काम करने लगा।
मेघा ने लिखा कि बचपन बचाओ आंदोलन ने भी इस पर काम किए होंगे, अच्छे काम किए होंगे, लेकिन उन्हें जिस तरह से हीरो बनाया जा रहा है वैसा नहीं है। -
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें