बेंगलूरू। देश के पहले मंगल अभियान से जुड़ी तैयारियां पूरी हो गई है। 5 नवंबर को अभियान की लांचिंग होगी। मार्स आर्बिटर मिशन (एमओएम) नाम का एयरक्राफ्ट लांचिंग के नौ महीने बाद पृथ्वी के आर्बिट से मंगल के आर्बिट तक पहुंचेगा। एमओएम के सितंबर 2014 तक मंगल के आर्बिट में पहुंचने की संभावना है। इसरो इस मिशन के जरिए मंगल पर जीवन की संभावनाओं का पता लगाएगा।
इसरो के चेयरमैन राधा कृष्णन ने कहा कि पृथ्वी पर मौजूद जीवन का संबंध मंगल ग्रह से है। लिहाजा मंगल के कुछ हिस्सों में मौजूद जीवन की संभावनाओं का पता लगाया जाएगा। लेकिन हमारी कोशिश पहले वहां पहुंचने की है। इस प्रयास का 85 प्रतिशत हमने पूरा कर लिया है।
20 मिनट में पहुंचता है सिग्नल
इसरो की इस कोशिश का 85 प्रतिशत सिर्फ मंगल पहुंचने के लिए की गई तैयारियों का हिस्सा है। जो कि एक जटिल प्रक्रिया है। इसरो के वैज्ञानिकों ने कहा कि बेंगलूरू के बाहर ब्यालालु केन्द्र किसी भी दूसरे सैटेलाइट और स्पेसक्राफ्ट को नियत समय पर ट्रैक करने के साथ संदेश भेज सकता है। लेकिन एमओएम से कम्युनिकेशन और प्रयोग का तुरंत होना संभव नहीं है। उन्होंने ने कहा कि एक ओर से सिग्नल भेजने में 20 मिनट लगते है जबकि पूरे 40 मिनट लगते है किसी प्रयोग को पूरा करने में।
स्पेसक्राफ्ट के स्वायत्त रूप से काम करने के लिए यह महत्वपूर्ण है। यदि मंगल ग्रह या उसके पास पहुंचने में किसी समस्या का सामना करना पड़ता है तो स्पेसक्राफ्ट खुद ही इस समस्या से निपटने की तकनीक विकसित कर सकता है। जब तक कि उसे इसरो के ट्रैकिंग केन्द्र से सिग्नल ना मिलने लगे।
राधाकृष्णन ने व्याखा करते हुए कहा कि कहा कि अगर कई सारी समस्याओं का सामना स्पेसक्राफ्ट को करना पड़ता है तो इसरो के वैज्ञानिक पृथ्वी से उसे सुलझाने की कोशिश करेंगे। जबकि स्पेसक्राफ्ट भी अपनी तरफ से उसका हल ढूंढ़ेगा। यानि हमारे पास एक बेहतर प्रभावी उपग्रहीय तकनीक है। उन्होंने ने कहा कि भविष्य में संचार और रिमोट संचालित उपग्रहों के लिए इसी तकनीक का प्रयोग होगा। इसलिए हमने जो तकनीक बनायी है वह अगले अभियानों में भी काम आएगी।
बच्चे को जन्म देने की तरह है मिशन
अभियान के प्रोग्राम डॉयरेक्टर डॉ. एम अन्नादुरई ने कहा कि लांचिंग के आखिरी 15 महीने उत्साह और चिंताओं से भरे हुए है। नौ महीने मिशन को मंगल तक पहुंचने में लगेंगे, जबकि अगले 6 महीने मंगल के आर्बिट में प्रयोगों को अंजाम देने में। उन्होंने ने कहा कि यह एक तरीके से बच्चे को जन्म देने या इम्तिहान देने की तरह है। हमने अपना होमवर्क पूरा कर लिया है और नौ महीने गुजरने के बाद मिलने वाली खुशी का इंतजार कर रहे है।
मंगल अभियान का पूरा खर्चा 450 करोड़ का है। इस अभियान की तैयारी में 18 महीने लगे है। मिशन के साथ पांच उपकरण भेजे जाएंगे ताकि प्रयोगों को अंजाम दिया जा सके। इनमें से दो के जरिए मंगल ग्रह के सतह की विहंगम तस्वीरें ली जाएगी और खनिजों का पता लगाया जाएगा।
तीसरे उपरण के जरिए यह पता लगाने की कोशिश होगी कि एक समय में मंगल ग्रह पर वातावरण कैसा रहता है। चौथा मंगल पर मौजूद पानी किस तरह का और कैसा है इसका नक्शा उतारेगा। इनमें पांचवा सबसे महत्वपूर्ण उपकरण मीथेन का पता लगाने वाला है। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि अगर मीथेन पाया जाता है तो उसकी उपस्थिति मंगल ग्रह पर जीवन की संभावनाओं का परिचय होगा।
नई खोज पर निगाहें गड़ाए है इसरो
अन्नादुरई ने कहा कि पृथ्वी और मंगल कुछ मायनों में एक तरह के है। हजारों साल पहले मंगल बिल्कुल पृथ्वी की तरह था। लेकिन आज वहां वातावरण नहीं है, जीवन की संभावनाएं खत्म हो गई है। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? हम इस स्थिति में है कि उसे देख सकते है और उसका विश्लेषण पृथ्वी को बचाने में हमारी मदद करेगा। यदि हम दिशा में आगे बढ़ते है तो वैज्ञानिक जवाब हमें उस तरह के हालात से निपटने में सक्षम बना सकते है।
वैज्ञानिक पृथ्वी को बचाने के उपायों की तरफ देख रहे है। साथ ही इसरो मिशन के जरिए कुछ नया ढंूढ़ने की संभावनाओं पर भी गौर कर रहा है। जिसके बारे में रशियन और अमेरिकी एजेंसियां अब तक पता नहीं लगा पाई है।
अन्नादुरई ने कहा कि चंद्रयान के जरिए ऎसा करने में इसरो को कामयाबी मिली है। जबकि चंद्रयान, चंद्रमा पर भेजा जाने वाला 69वां स्पेसक्राफ्ट था। चंद्रयान के जरिए ही चंद्रमा की सतह पर पानी के कणों का पता चला था। इसकी पुष्टि बाद के अभियानों में भी हुई है। उम्मीद है कि इस मिशन के जरिए भी हम ऎसा कर पाने में हम कामयाब होंगे। उन्होंने ने कहा कि बायो साइंस का उपयोग कर नई खोज करना होगा, जिसका हमें इंतजार है।
45 प्रयासों में आधे हुए असफल
गौरतलब है कि पूरे विश्व में सिर्फ पांच एजेंसियां ऎसा कर पाने में कामयाब हो पाई है। जबकि मंगल पर पहुंचने के 45 अभियानों में से 50 प्रतिशत असफल रहे है। इसरो का यह प्रयास उत्साहजनक है, ना सिर्फ इसलिए कि यह पहला प्रयास है बल्कि यह वैज्ञानिकों को पूरे नौ महीने व्यस्त रखने वाला है। जब तक कि यह मंगल पर निश्चित स्थान पर नहीं पहुंच जाता। मंगल ग्रह पर मानव के रहने की संभावनाओं का पता लगाना भी इस मिशन का लक्ष्य है।
राधाकृष्णन ने कहा कि स्पेस पर नजरें टिकाए देशों की ओर देखें तो पता चलता है कि उन्होंने 2030 से 2040 तक का लक्ष्य निर्धारित कर रखा है। यह एक जटिल प्रक्रिया है जो बहुत चुनौती पूर्ण है। यह एक सपना है, ख्वाब है, हकीकत है।
अगले सप्ताह जब रॉकेट मंगल ग्रह के लिए उड़ान भरेगा वह अपने साथ सिर्फ स्पेसक्राफ्ट ही नहीं ले जाएगा। बल्कि हजारों उत्साहित वैज्ञानिकों के सपनों को भी अपने साथ ढोएगा जो हमारे अस्तित्व से जुड़े कुछ आधारभूत सवालों का जवाब ढंूढ़ रहे है।
इसरो के चेयरमैन राधा कृष्णन ने कहा कि पृथ्वी पर मौजूद जीवन का संबंध मंगल ग्रह से है। लिहाजा मंगल के कुछ हिस्सों में मौजूद जीवन की संभावनाओं का पता लगाया जाएगा। लेकिन हमारी कोशिश पहले वहां पहुंचने की है। इस प्रयास का 85 प्रतिशत हमने पूरा कर लिया है।
20 मिनट में पहुंचता है सिग्नल
इसरो की इस कोशिश का 85 प्रतिशत सिर्फ मंगल पहुंचने के लिए की गई तैयारियों का हिस्सा है। जो कि एक जटिल प्रक्रिया है। इसरो के वैज्ञानिकों ने कहा कि बेंगलूरू के बाहर ब्यालालु केन्द्र किसी भी दूसरे सैटेलाइट और स्पेसक्राफ्ट को नियत समय पर ट्रैक करने के साथ संदेश भेज सकता है। लेकिन एमओएम से कम्युनिकेशन और प्रयोग का तुरंत होना संभव नहीं है। उन्होंने ने कहा कि एक ओर से सिग्नल भेजने में 20 मिनट लगते है जबकि पूरे 40 मिनट लगते है किसी प्रयोग को पूरा करने में।
स्पेसक्राफ्ट के स्वायत्त रूप से काम करने के लिए यह महत्वपूर्ण है। यदि मंगल ग्रह या उसके पास पहुंचने में किसी समस्या का सामना करना पड़ता है तो स्पेसक्राफ्ट खुद ही इस समस्या से निपटने की तकनीक विकसित कर सकता है। जब तक कि उसे इसरो के ट्रैकिंग केन्द्र से सिग्नल ना मिलने लगे।
राधाकृष्णन ने व्याखा करते हुए कहा कि कहा कि अगर कई सारी समस्याओं का सामना स्पेसक्राफ्ट को करना पड़ता है तो इसरो के वैज्ञानिक पृथ्वी से उसे सुलझाने की कोशिश करेंगे। जबकि स्पेसक्राफ्ट भी अपनी तरफ से उसका हल ढूंढ़ेगा। यानि हमारे पास एक बेहतर प्रभावी उपग्रहीय तकनीक है। उन्होंने ने कहा कि भविष्य में संचार और रिमोट संचालित उपग्रहों के लिए इसी तकनीक का प्रयोग होगा। इसलिए हमने जो तकनीक बनायी है वह अगले अभियानों में भी काम आएगी।
बच्चे को जन्म देने की तरह है मिशन
अभियान के प्रोग्राम डॉयरेक्टर डॉ. एम अन्नादुरई ने कहा कि लांचिंग के आखिरी 15 महीने उत्साह और चिंताओं से भरे हुए है। नौ महीने मिशन को मंगल तक पहुंचने में लगेंगे, जबकि अगले 6 महीने मंगल के आर्बिट में प्रयोगों को अंजाम देने में। उन्होंने ने कहा कि यह एक तरीके से बच्चे को जन्म देने या इम्तिहान देने की तरह है। हमने अपना होमवर्क पूरा कर लिया है और नौ महीने गुजरने के बाद मिलने वाली खुशी का इंतजार कर रहे है।
मंगल अभियान का पूरा खर्चा 450 करोड़ का है। इस अभियान की तैयारी में 18 महीने लगे है। मिशन के साथ पांच उपकरण भेजे जाएंगे ताकि प्रयोगों को अंजाम दिया जा सके। इनमें से दो के जरिए मंगल ग्रह के सतह की विहंगम तस्वीरें ली जाएगी और खनिजों का पता लगाया जाएगा।
तीसरे उपरण के जरिए यह पता लगाने की कोशिश होगी कि एक समय में मंगल ग्रह पर वातावरण कैसा रहता है। चौथा मंगल पर मौजूद पानी किस तरह का और कैसा है इसका नक्शा उतारेगा। इनमें पांचवा सबसे महत्वपूर्ण उपकरण मीथेन का पता लगाने वाला है। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि अगर मीथेन पाया जाता है तो उसकी उपस्थिति मंगल ग्रह पर जीवन की संभावनाओं का परिचय होगा।
नई खोज पर निगाहें गड़ाए है इसरो
अन्नादुरई ने कहा कि पृथ्वी और मंगल कुछ मायनों में एक तरह के है। हजारों साल पहले मंगल बिल्कुल पृथ्वी की तरह था। लेकिन आज वहां वातावरण नहीं है, जीवन की संभावनाएं खत्म हो गई है। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? हम इस स्थिति में है कि उसे देख सकते है और उसका विश्लेषण पृथ्वी को बचाने में हमारी मदद करेगा। यदि हम दिशा में आगे बढ़ते है तो वैज्ञानिक जवाब हमें उस तरह के हालात से निपटने में सक्षम बना सकते है।
वैज्ञानिक पृथ्वी को बचाने के उपायों की तरफ देख रहे है। साथ ही इसरो मिशन के जरिए कुछ नया ढंूढ़ने की संभावनाओं पर भी गौर कर रहा है। जिसके बारे में रशियन और अमेरिकी एजेंसियां अब तक पता नहीं लगा पाई है।
अन्नादुरई ने कहा कि चंद्रयान के जरिए ऎसा करने में इसरो को कामयाबी मिली है। जबकि चंद्रयान, चंद्रमा पर भेजा जाने वाला 69वां स्पेसक्राफ्ट था। चंद्रयान के जरिए ही चंद्रमा की सतह पर पानी के कणों का पता चला था। इसकी पुष्टि बाद के अभियानों में भी हुई है। उम्मीद है कि इस मिशन के जरिए भी हम ऎसा कर पाने में हम कामयाब होंगे। उन्होंने ने कहा कि बायो साइंस का उपयोग कर नई खोज करना होगा, जिसका हमें इंतजार है।
45 प्रयासों में आधे हुए असफल
गौरतलब है कि पूरे विश्व में सिर्फ पांच एजेंसियां ऎसा कर पाने में कामयाब हो पाई है। जबकि मंगल पर पहुंचने के 45 अभियानों में से 50 प्रतिशत असफल रहे है। इसरो का यह प्रयास उत्साहजनक है, ना सिर्फ इसलिए कि यह पहला प्रयास है बल्कि यह वैज्ञानिकों को पूरे नौ महीने व्यस्त रखने वाला है। जब तक कि यह मंगल पर निश्चित स्थान पर नहीं पहुंच जाता। मंगल ग्रह पर मानव के रहने की संभावनाओं का पता लगाना भी इस मिशन का लक्ष्य है।
राधाकृष्णन ने कहा कि स्पेस पर नजरें टिकाए देशों की ओर देखें तो पता चलता है कि उन्होंने 2030 से 2040 तक का लक्ष्य निर्धारित कर रखा है। यह एक जटिल प्रक्रिया है जो बहुत चुनौती पूर्ण है। यह एक सपना है, ख्वाब है, हकीकत है।
अगले सप्ताह जब रॉकेट मंगल ग्रह के लिए उड़ान भरेगा वह अपने साथ सिर्फ स्पेसक्राफ्ट ही नहीं ले जाएगा। बल्कि हजारों उत्साहित वैज्ञानिकों के सपनों को भी अपने साथ ढोएगा जो हमारे अस्तित्व से जुड़े कुछ आधारभूत सवालों का जवाब ढंूढ़ रहे है।
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