मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

बाड़मेर एक नारी की बहादुरी कहानी एक राजपूतानी की...

 रतन सिंह शेखावत बाड़मेर एक नारी की बहादुरी 

गर्मियों का मौसम था बाड़मेर संभाग में रेत के टीले गर्मी से गर्म होकर अंगारों की तरह दहक रहे थे| लूएँ ऐसे चल रही थी कि बाहर बैठे जीव को झुलसा दे| इस तरह नीचे धरती गर्मी से तप रही थी तो ऊपर आसमान झुलस रहा था| वहीँ खेजडे के एक पेड़ की छाया में बैठा एक सोढा राजपूत जवान बाहर की गर्मी की साथ भीतर से उठ रहे विचारों के दावानल से दहक रहा था| पेड़ की छाया में बैठ विचारों में खोये उस सोढा राजपूत जवान को पता ही नहीं चला कि कब छाया ढल गयी और उसके चेहरे पर कब तपते सूरज की किरणे पड़ने लग गयी| वह तो विचारों के भंवर में ऐसा खोया था कि उसके लिए तो आज चारों दिशाएँ व सभी मौसम एक जैसे ही थे| आज ही उसके होने वाले ससुर का सन्देश आया था कि –

“यदि उसकी बेटी के साथ शादी करनी है तो दो हजार रूपये भेजवा दें नहीं तो तुम्हारा रिश्ता तोड़कर तुम्हारी मंगेतर की शादी कहीं और करवा दी जाएगी|”

ये सन्देश सुनने के बाद उस जवान सोढा राजपूत का गुस्सा सातवें आसमान था, गुस्से में उसके दांत कटकटा रहे थे चेहरा लाल था आखों में भी लाल डोरे साफ़ नजर आ रहे थे| सन्देश पढ़ते ही अपने आप उसका हाथ कमर पर बंधी तलवार की मूंठ पर जा ठहरा| आखिर उसकी मंगेतर जिसकी उसके माँ बाप ने आज से दस वर्ष पहले गोद भराई की रस्म पुरी कर उसके साथ रिश्ता किया था और बेचारे पुत्र की शादी करने के मंसूबे मन में बांधे ही इस दुनियां से चल बसे| माता पिता की मृत्यु के बाद बड़ी मुश्किल से उसने अपने आपको संभाला पर फिर भी जी तो गरीबी में ही रहा है इसलिए अब ससुर को देने के लिए दो हजार रूपये कहाँ से लाये| बचपन से ही खेत खलिहान भी सेठ धनराज के यहाँ गिरवी पड़े है| अब क्या गिरवी रखे कि उसे दो हजार जैसी बड़ी रकम मिल जाए ?

यही सब सोचते हुए उस जवान सोढा राजपूत की आँखों में खून उतर आया था| उसने मन में सोच लिया था उसके जिन्दा रहते उसकी मंगेतर जिससे शादी करने के सपने वह पिछले दस वर्षों से देख रहा था किसी और की हो ही नहीं सकती| यही सोचकर वह सेठ धनराज के पास दो हजार रूपये के कर्ज के लिए पहुंचा|

सेठ को सारी बात बताते हुए उसने कहा- “सेठ काका ! अब मेरी इज्जत बचाना आपके हाथ में है|

सेठ बोला- “इज्जत तो मैंने बहुतों की बचाई है तेरी भी बचा दूंगा पर यह बता दो हजार जितनी बड़ी रकम के लिए तेरे पास गिरवी रखने को क्या है ?”

सेठ काका- “जमीन तो जितनी थी पहले ही आपके पास गिरवी रखी है अब मेरे पास तो सिर्फ यह तलवार बची है और आपको पता है ना कि एक राजपूत के लिए तलवार की क्या कीमत होती है ? आप इसे ही गिरवी रखलें|

सेठ बोला- “इस तलवार का मैं क्या करूँ ? तूं किसी और सेठ के जा कर कर्ज ले ले|

सोढा जवान सेठ की बात सुनकर अन्दर तक तड़फते हुए कहने लगा- “सेठ काका ! मेरे पुरखों की वो जमीन जिसे पाने के लिए उन्होंने सिर कटवाए थे उसको आपने झूंठ लिख लिखकर अपने पास गिरवी रख लिया मेरे घर का एक एक बर्तन तक आपने अपनी कलम की झूंठ के बल से ठग लिए| फिर भी मैंने आपको सब कुछ दिया और अब भी आप जो मांगे वो देने के लिए तैयार हूँ| यह मेरे घराने की साख का सवाल है| आपको पता है मेरे जीते जी मेरी मंगेतर का विवाह किसी और से हो जायेगा तो मेरे लिए तो यह जीवन बेकार है| मैं तो जीवित ही मरे समान हो जाऊंगा| आपको जितना ब्याज लेना है ले लो पर अभी आज मुझे दो हजार रूपये का कर्ज दे दो| आपका कर्ज में ईमानदारी से चूका दूंगा यह एक राजपूत का वादा है|”

सेठ-“ठीक है ! यदि तूं राजपूतानी का जाया है तो एक वचन दे| मैं जो लिखूंगा उस पर दस्तखत कर देगा ?

सोढा जवान ने हाँ कह वचन देने की हामी भर ली| सेठ ने एक पत्र पर एक शर्त लिखी और सोढा राजपूत के हाथ में यह कहते हुए थमा दी कि- “असल राजपूत है और हिम्मत है तो ये पत्र ले शर्त पढ़कर दस्तखत करदे| उस पत्र में शर्त लिखी थी- “जब तक सेठ धनराज का कर्ज ब्याज सहित ना चूका दूंगा तब तक अपनी पत्नी को बहन के समान समझूंगा|”

पत्र में लिखी शर्त पढ़ते ही सोढा की आँखों में अंगारे बरसने लगे उसकी आँखें लाल हो गयी पर उसने अपने गुस्से को दबाते हुए पिसते दांतों को होठों के पीछे छुपाकर दस्तखत कर दिए|

सेठ से मिले कर्ज के दो हजार रूपये ससुर के पास समय से पहले भिजवाकर सोढा ने अपनी मंगेतर से शादी कर अपना घर बसा लिया| आज कई वर्षों बाद उसका दीमक लगा टुटा फूटा घर लिपाई पुताई कर सजा संवरा था| ससुराल से दहेज़ में आया सामान भी घर में तरतीब से सजा था| आँगन में आज छम छम पायल की आवाज सुनाई दे रही थी तो शाम को बाजरे की रोटियों को थपथपाने के साथ चूड़ियों की आवाज भी साफ़ सुनाई दे रही थी| सोढा खाने के लिए बैठा था और उसकी सजी संवरी पत्नी अपने हाथों से उसे खाना परोस रही थी| सोढा खाना खाते हुए भी बड़ा गंभीर नजर आ रहा था तो दूसरी और उसकी पत्नी की आँखों में उसके लिए जो प्यार उमड़ रहा था उसे सोढा साफ़ देख रहा था| पत्नी खाने में ये परोसूं या ये कह कह कर बात करने की कोशिश कर रही थी| सोढा भी बोलना तो चाह रहा था पर बोल नहीं पा रहा था| सोढा खाना खाकर उठा राजपूतानी ने झट से खड़े होकर पानी का लौटा ले सोढा के हाथ धुलवाये| हाथ धोते समय घूंघट के पीछे उसका दमकता चेहरा देख सोढा के हाथ कांप गए| रात पड़ी, सोने का समय हुआ, दोनों ढोलिया पर सो गए पर यह क्या ? सोढा ने म्यान से तलवार निकाली और दोनों के बीच रख मुंह फिरा सो गया|

राजपूतानी सोचने लगी- “शायद मेरे से किसी बात पर नाराज है या मेरे पिता द्वारा शादी से पहले दो हजार रूपये लेने के कारण नाराज है|

एक, दो, तीन इस तरह कोई बीस दिन बीत गए हर रोज सोते समय दोनों के बीच तलवार होती| राजपूतानी को सोढा का यह व्यवहार समझ ही नहीं आ रहा था दिन में तो बात करते सोढा के मुंह से फूल बरसते है आखों से बरसता नेह भी साफ़ झलकता है पर रात होते ही वह नजर नहीं मिलाता, उसका चेहरा मुरझाया होता है, बोल होठों से बाहर आते ही नहीं| राजपूतानी ने रोज सोढा का व्यवहार का बारीकी से देखा समझा और एक दिन बोली-
“यदि आप मेरे पिता द्वारा रूपये मांगे जाने से नाराज है तो इसमें मेरी कोई गलती नहीं पर यदि मेरे द्वारा कोई अनजाने में गलती हुयी हो तो उसके लिए बताएं मैं आपसे माफ़ी मांग लुंगी पर आप नाराज ना रहे|”

सोढा ने कहा-“ऐसी कोई बात नहीं है यह कोई और ही बात है जो मैं आपको चाहते हुए भी बता नहीं सकता| बताने की कोशिश भी करता हूँ तो शब्द होठों तक नहीं आते|” और कहते कहते सोढा ने वह सेठ द्वारा लिखा पत्र राजपूतानी को पकड़ा दिया|

दिये की बाती ऊँची कर उसके टिम टिम करते प्रकाश में राजपूतानी ने वह पत्र पढना शुरू किया उसने जैसे जैसे वह पत्र पढ़ा उसके चेहरे पर तेज बढ़ता गया उसके बेसब्र मन ने राहत की साँस ली| पत्र पढने के बाद उसे अपने पति पर गर्व हुआ कि वह राजपूती धर्म निभाने वाले एक सच्चे राजपूत की पत्नी है और एक राजपूतानी के लिए इससे बड़ी गर्व की क्या बात हो सकती है|

पूरा पत्र पढ़ राजपूतानी बेफिक्र हो बोली –“बस यही छोटी सी बात थी| मुझे तो दूसरी ही चिंता थी| वचन निभाना तो एक राजपूत और राजपूतानी के लिए बहुत ही आसान काम है|” और कहते हुए राजपूतानी ने अपने सारे गहने आदि लाकर पति के आगे रख दिए| और बोली-
“इनको बेचकर घोड़ा खरीद लाईये| कर्ज उतरना सबसे पहला धर्म है और वो घर बैठे नहीं चुकेगा| घर तो कृषक बैठते है राजपूत को घर बैठना वैसे भी शोभा नहीं देता| राजपूत की शोभा तो किसी राजा की सेना में ही होती है|

सोढा बोला-“ठीक है फिर घोड़ा ले मैं किसी की राजा की नौकरी में चला जाता हूँ और तुझे अपने मायके छोड़ देता हूँ|”

राजपूतानी बोली-“मैंने भी एक राजपूत के घर जन्म लिया है, एक राजपूतानी का दूध पिया है, मुझे भी कमर पर तलवार बंधना व चलाना और घुड़सवारी करना आता है| बचपन में पिता के घर खूब घोड़े दौड़ाये है इसलिए मायके क्यों जाऊं आपके साथ चलूंगी| दोनों कमाएंगे तो कर्ज जल्दी चुकेगा|”

ऐसे शब्द बोलती हुयी राजपूतानी के चेहरे को तेज को देख सोढा तो देखता रह गया|




सुबह का निकला सूरज अब आकाश में काफी ऊँचा चढ़ चूका था| चितौड़ किले की तलहटी से दो एक किलोमीटर दूर दो बांके जवान घोड़े दौड़ाते हुए किले की तरफ आते नजर आ रहे थे| उनके हाथों में पकड़े भाले सूरज की किरणों से पल पल कर चमक रहे थे| दोनों की कमर में बंधी तलवारें दोड़ते घोड़ों की पीठ से रगड़ खा रही थी| उन्हें देखकर कौन कह सकता था कि- इनमें से एक मर्द की पौशाक में नारी है| राजपूतानी इस वक्त मर्दाना भेष में जोश से भरा एक जवान लग रही थी| हाथों में भाला पकड़े उसने अपनी कोयल सी मधुर आवाज को भी मर्दों की तरह भारी कर लिया था| घूंघट में रहने वाला चेहरा आज सूरज की रौशनी में दमक रहा था| बड़ी बड़ी आँखों ने लाल लाल डोरे ऐसे नजर आ रहे थे जैसे देश प्रेम का मतवाला कोई बांका जवान दुश्मन की सेना पर आक्रमण के लिए चढ़ा हो| घोड़ो को दौड़ाते हुए थोड़ी ही देर में वे किले की तलहटी में जा पहुंचे| उधर उनका किले के मुख्य दरवाजे की और जाना हुआ उधर से किले से राणा का अपने दल बल सहित शिकार के लिए निकलना हुआ| दो बाकें जवानों को देखते ही राणा की नजरें दोनों पर एकटक अटक गयी| पास बुलाकर पूछा-

कौन हो ? कहाँ से आये हो ? क्यों आये हो ?

राणा को जबाब मिला- “राजपूत है|”

कौन से ?

सोढा ! और आपकी सेवा में चाकरी करने आयें है|

ठीक है शिकार में ही साथ हो जाओ| राणा ने उनकी सेवा स्वीकारते हुए कहा|

दोनों राणा के साथ हो गए| जंगल में शिकार शुरू हुआ, एक सूअर पर शिकारी दल ने तीरों भालों से हमला किया पर सूअर भाग खड़ा हुआ और राणा के सरदारों ने उसके पीछे घोड़े दौड़ा दिए| चारों और से हाका करने वालों ने हाका करना शुरू कर दिया उधर गया है, घोड़ा पीछे दौड़ाओ, सूअर भाग ना पाये|

राणा ने देखा सभी सरदारों व शिकारी दल के घोड़े सूअर के पीछे लग गए उनमें से एक घोड़ा अचानक बिजली की गति से आगे निकला और घोड़े के सवार ने सूअर का पीछा कर उस पर भाला फैंका जो सूअर की आंते बाहर निकालता हुआ सूअर के शरीर से पार हो गया| राणा के मुंह से अचानक निकल पड़ा –शाबास ! आजतक ऐसा नजारा नहीं देखा कि किसी का भाला सूअर की आंते निकालकर पार निकल गया हो|

घोड़े से उतर पसीना पोंछते सवार ने राणा को झुककर मुजरा किया और वापस घोड़े की पीठ पर जा सवार हुआ| कोई नहीं पहचान सका कि एक हाथ से भाले का वार कर सूअर को धुल चटाने वाला जवान मर्द नहीं एक औरत है|

राणा उनकी वीरता से खुश व प्रभावित होते हुए और उन्हें अपनी सेवा में नियुक्त करते हुए हुक्म दिया कि –“वे दोनों उनके महल में उनके शयन कक्ष की सुरक्षा में तैनात रहेंगे|”

“खम्मा अन्न दाता” कह दोनों ने राणा की चाकरी स्वीकारी|

सावन का महिना, रिमझिम रिमझिम फुहारों से बारिश बरस रही, नदी नाले भी खल खल कर बह रहे, चारों और हरियाली ही हरियाली छा रही, तालाब पानी से भरे हुए और रात भर मेंडकों की टर्र टर्र आवाजें आ रही, अंधरी रात्री और ऊपर से काले काले बादल छाये हुए, बिजली चमके तो आँखें बंद हो जाए, बादल ऐसे गरज रहे जैसे इंद्र गरज कर कह रहा हो कि धरती को इसी तरह पीस दूंगा, ऐसे अंधरी व भयानक पर मनोहारी रात, ऐसी रात जिसमें हाथ को हाथ ना दिखे जिसमें दोनों राणा के शयन कक्ष के बाहर पहरा दे रहे और राणा जी अपने शयन कक्ष में निश्चिन्त हो रानी के साथ सो रहे थे|

दोनों हाथों में नंगी तलवारे लिए पहरा दे रहे थे जैसे ही बिजली चमकती तो टकराने वाले प्रकाश से तलवारें भी अँधेरी काली रात में चमक उठती| आधी रात का वक्त हो चूका था राणा जी गहरी नींद में सो रहे थे पर आज पता नहीं क्यों रानी को नींद नहीं आ रही थी| सो वह पलंग पर लेटी लेटी महल की खिड़की से प्रकृति के अद्भुत नज़ारे देख रही थी| महल के द्वार पर दो राजपूत हाथों में तलवारें लिए पहरा देते हुए चौकस हो खड़े थे|

इतनी ही देर में उतर दिशा से बिजली चमकी जिसे देख राजपूतानी को याद आई कि यह तो मेरे देश की तरफ से चमकी है और वह इस याद के साथ ही विचारों में खो गयी उसके नारी हृदय में विचारों की उथल पुथल मच गयी कि आज ऐसे मौसम में सभी स्त्रियाँ अपने पति के साथ घर में सो रही है और वह खाने कमाने के लिए मर्दाना भेष में तलवार हाथ में पकड़े यहाँ पहरे पर खड़ी है| तभी पपीहे की मधुर आवाज उसे सुनाई दी और सुनते ही उसका नारी हृदय कराह उठा और मन में फिर विचार आने लगा कि वह तो सुहागन होते हुए वियोगन हो गयी, पति के पास होते हुए भी ऐसा लग रहा है जैसे वह पति से कोसों दूर है| पति के साथ रहते हुए भी वह वियोगी है उससे तो पति से दूर रहने वाली वियोगी नारी ही अच्छी और सोचते सोचते उसकी सब्र का बाँध टूट गया और सोढा के पास जाकर धीरे से उसके कंधे पर हाथ रख दिया| हाथ रखते ही दोनों ऐसे कांप गए जैसे उन पर बिजली टूट पड़ी हो| सोढा ने चेताते हुए कहा-“राजपूतानी संभल ! राजपूतानी सोढा द्वारा चेताने पर अपने आपको एक गहरी निस्वाश: छोड़ते हुए सँभालते हुए बोली-

देस बिया घर पारका, पिय बांधव रे भेस | जिण जास्यां देस में, बांधव पीव करेस ||



अपना देश छुट गया और अब परदेश में है| पति पास है पर वह भाई रूप में है | जब कभी अपने वतन जायेंगे तो पति को पति बनायेंगे|

चमकती बिजली की रौशनी में रानी सोये सोये दोनों की पुरी लीला देख रही थी| सुबह होते ही रानी ने राणा जी से कहा कि –
“इन दोनों सोढा राजपूत भाइयों में कोई भेद है क्योंकि इनमें से एक औरत है|”

नहीं रानी ! ऐसा नहीं हो सकता और ऐसा है तो धोखा करने के जुर्म में मैं इनका सिर तोड़ दूंगा| राणा ने कहा| “राणा जी ! तोड़ने की जरुरत नहीं जोड़ने की जरुरत है क्योंकि इनमें एक औरत है|” रानी ने राणा को जबाब दिया| राणा बोले-“रानी भोली बात मत किया करो ! इनकी रोबदार सूरत, इनकी आँखों के तेवर व इनके चेहरे के तेज को देखो ऐसा तेज किसी मर्द में ही हो सकता है फिर मैंने तो एक खतरनाक सूअर को एक ही वार में मारते हुए इनकी वीरता भी देखी है|”

राणा और रानी में इस बात को लेकर विवाद हुआ और फिर इनकी परीक्षा लेनी की बात तय हुई| रानी ने दोनों की परीक्षा लेने की जिम्मेदारी खुद ली और दोनों को रानी ने दोनों को अपने में बुला लिया, साथ ही राणा जी को जाली से छुपकर देखने को कहा|

रानी ने चूल्हे पर दूध चढ़ा अपनी दासी को चुपचाप बाहर जाने का ईशारा कर दिया दासी रसोई से चली गयी, थोड़ी देर में दूध उफनने ही वाला था | जिसे पर नजर पड़ते ही राजपूतानी तुरंत चिल्ला पड़ी- “दूध उफनने वाला है दूध उफनने वाला है !
सुनते ही पास के कक्ष से निकल रानी बोल पड़ी- “बेटी सच बता तूं कौन है ? और इस भेष में क्यों ? मुझसे कुछ भी मत छुपा सच सच बता|”

राजपूतानी आँखों पर हाथ दे रानी की गोद में चिपट गयी और सोढा बे रानी को पुरी बात बताई| राणा जी भी कक्ष के बाहर जाली के पीछे खड़े सब सुन रहे थे| पुरी बात सुनकर राणा जी बड़े खुश हुए बोले-
“मैं एक सवार को रूपये देकर तुम्हारे गांव आज ही भेज देता हूँ वह सेठ धनराज से तुम्हारे कर्ज का पूरा हिसाब कर ब्याज सहित रकम चुका आयेगा| और तुम यहीं रहो और अपनी गृहस्थी बसावो|”

राणा जी के आगे हाथ जोड़ते हुए सोढा बोला- “अन्न दाता का हुक्म सिर माथे ! पर अन्न दाता जब तक मैं अपने हाथ से सेठ का कर्ज नहीं चूका देता तब तक शर्तनामा लिखा पत्र नहीं फाड़ सकता| इसलिए मुझे कर्ज चुकाने के लिए स्वयं जाने की इजाजत बख्सें|”

राणा जी ने सोढा को ब्याज सहित पूरा कर्ज चुकाने व गृहस्थी बसाने लायक धन देकर विदा किया|
अब सोढा और राजपूतानी को जब भी उस रात की याद आती दोनों को बड़ी मीठी लगती|

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