उनके पूर्वज बड़े साम्राज्य में राज करते हुए आलीशान महलों में रहा करते थे, लेकिन सुल्ताना बेगम के नसीब में मुगल शासकों की जिंदगी का सुख कहां. वो तो कोलकाता की झुग्गी में रहने पर मजबूर है.
जी हां, 60 साल की सुल्ताना बेगम भारत के आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर की पौत्रवधू हैं. अपनी शाही विरासत के बावजूद वो मामूली पेंशन पर रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद में लगी रहती हैं.
उनके पति राजकुमार मिर्जा बेदर बख्त की साल 1980 में मौत हो गई थी और तब से वो गरीबों की जिंदगी जी रही हैं. वो हावड़ा की एक झुग्गी-छोपड़ी में रह रही हैं. यही नहीं उन्हें अपने पड़ोसियों के साथ किचन साझा करनी पड़ती है और बाहर के नल से पानी भरना पड़ता है.
इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि सुल्ताना शाही परिवार की सदस्य हैं, इसके बावजूद उन्हें हर महीने मात्र 6,000 रुपये की पेंशन मिलती है. अपनी बिन ब्याही बेटी मधु बेगम के साथ रह रहीं सुल्ताना कहती हैं, 'हम जिंदा है, लेकिन ऊपरवाला ही जानता है कैसे. मेरी दूसरी बेटियां और उनके पति भी बेहद गरीब हें. वे खुद बहुत मुश्किल से गुजारा कर रहे हैं, इसलिए हमारी कोई मदद नहीं कर सकते.'
सुल्ताना को अपनी पांच बेटियों और एक बेटे का खर्च चलाने के लिए पेंशन के तौर पर हर महीने 6,000 रुपये मिलते हैं. हाल के सालों में कई लोगों ने उनकी दुर्दशा की ओर सरकार का ध्यान दिलाने की कोशिश की है.
सुल्ताना का ताल्लुक जिस मुगल सलतनत से है उसने 16वीं, 17वीं और 18वीं सदी में भारतीय उप महाद्वीप के वास्तुशिल्प में बहुत बड़ा योगदान दिया. आगरा का ताज महल और दिल्ली का लाल किला मुगल शासको द्वारा बनाए गए स्मारकों के कुछ उदाहरणों में से एक हैं.
लेकिन सुल्ताना को सालों तक केंद्र और राज्य सरकारों के सामने पेंशन और मूलभूत सुविधाओं के लिए गुहार लगानी पड़ी. उनकी पोती रोशन आरा को सरकारी नौकरी दी गई है, जिन्हें 15,000 रुपये का वेतन मिलता है. लेकिन उनके परिवार के दूसरे लोग पढ़-लिखे नहीं हैं इसलिए सरकारी नौकरी के लिए टेस्ट पास नहीं कर पाए.
सुल्ताना ने गुजर-बसर करने के लिए कई सालों तक चाय की दुकान चलाई, लेकिन फिर उन्होंने कपड़े सिलने का काम पकड़ लिया. वह कहती हैं, 'मैं आभारी हूं कि कई लोग मेरी मदद के लिए आगे आए हैं. मेरे पति मोहम्मद बेदार बख्त मुझे बताया करते थे कि हम सम्मानजनक शाही परिवार से आते हैं और हमने कभी भीख नहीं मांगी.'
सुल्ताना के पति के परदादा बादशाह बहादुर शाह जफर 1837 में गद्दी पर बैठे थे. वह तीन सदियों से भारत में राज कर रहे मु्गल साम्राज्य के आखिरी बादशाह थे.
1857 का विद्रोह बहादुर शाह जफर की अगुवाई में हुआ, लेकिन लेकिन जब आंदोलन कुचल दिया गया तो ब्रिटिश साम्राज्य ने उन्हें 1858 में म्यांमार भेज दिया था. इस दौरान वे अपनी पत्नी जीनत महल और परिवार के कुछ अन्य सदस्यों के साथ रह रहे थे. 7 नवम्बर, 1862 को उनका निधन हो गया. यहीं पर उनकी मजार बनाई गई. म्यांमार के कुछ स्थानीय लोगों ने उन्हें संत की उपाधि भी दी.
हालांकि 1857 के विद्रोह के दौरान बहादुर शाह के कई बच्चों और पोतों की हत्या कर दी गई थी, लेकिन उनके कुछ वंशज आज अमेरिका, भारत और पाकिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे हैं.
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