जयपुर के सिटी पैलेस परिसर के सूरज महल के जय निवास बाग में चंद्रमहल और बादलमहल के बीच गोविंद देव जी का मंदिर है। भीतर प्रवेश करते ही बहुत बड़ा खुला आंगन और उद्यान दिखाई देता है। आंगन से गोविंद देव जी की झांकी की ओर चलते हैं तो दिखाई देता है भव्य सत्संग भवन, जहां हजारों भक्त एक साथ खड़े होकर गोविंद देव जी के दर्शन करते हैं।
गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिर्काडस में इस भव्य सत्संग भवन का नाम दर्ज है। सबसे कम खम्भों के सहारे इतने बड़े सत्संग भवन का निर्माण होने की वजह से इसे एक मिसाल के तौर पर माना गया है। सत्संग भवन की भव्यता और सुंदरता इतनी मोहक है कि जब तक चारों ओर इसे घूम कर नहीं देख लिया जाए, मन नहीं मानता।
सत्संग भवन का निरीक्षण पूरा हो जाए तो सामने दिखाई देते हैं स्वयं विराजमान गोविंद देव जी। श्याम वर्ण की राधा-गोविंद की मनमोहक मूर्ति आकर्षक शृंगार में सजी-संवरी भक्तों को बांध लेती है। जब तक पट बंद नहीं हो जाते तब तक नेत्र राधा गोविंद की आखिरी झलक पाने के लिए एकटक खुले ही रहते हैं। गोविंद देव जी की प्रतिदिन सात झांकियां सजती हैं।
1500 किलो प्रसाद
मंदिर में गोविंद देव जी की सेवा पूजा के लिए 5 मुख्य पुजारी लगे हैं। इनके अलावा 100 पुजारी और कर्मचारी अलग से अन्य व्यवस्थाओं में सहयोग करते हैं। मानस गोस्वामी के अनुसार मंदिर में प्रतिदिन 1500 किलो प्रसाद बनता है जो भक्तों को सशुल्क दिया जाता है।
गोविंद देव जी को बाहरी वस्तुओं का भोग नहीं लगता, सिर्फ मंदिर में बने लड्डुओं का ही भोग लगता है। हर एकादशी पर प्रसाद की मात्रा बढ़कर 2500 किलो हो जाती है और बड़ी एकादशियों पर तो 5000 किलो तक प्रसाद बनाया जाता है। गोविंद देव जी के मंदिर में गौड़ीय संप्रदाय द्वारा ही सेवा पूजा की परम्परा है। अंजन कुमार देव गोस्वामी मुख्य पुजारी हैं। उनके बड़े पुत्र मानस कुमार गोस्वामी इस पीढ़ी के 28वें वंशज हैं।
जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंह गोविंद देव जी का विग्रह वृंदावन से जयपुर लेकर आए थे। ऐसी किंवदंती है कि गोविंद देव जी की प्रतिमा का चेहरा भगवान कृष्ण के चेहरे से हू-ब-हू मिलता है। इस विग्रह को ब्रजकृति भी कहते हैं क्योंकि यह विग्रह भगवान कृष्ण के पोते ब्रजनाभ ने बनाया था। चैतन्य महाप्रभु ने ब्रज भूमि के उद्धार और वहां के विलुप्त लीला स्थलों को खोज निकालने के लिए अपने शिष्यों को वृंदावन भेजा था। गोविंद जी की मूर्ति वृंदावन गोमा टीला नामक स्थान पर भूमिगत थी, जिसे निकालकर इन शिष्यों ने सन् 1525 में प्राण प्रतिष्ठा की।
अकबर के सेनापति और आमेर के प्रतापी राजा मानसिंह ने इस मूर्ति की पूजा-अर्चना की और वृंदावन में ही सन् 1590 में लाल पत्थर का विशाल मंदिर बनाकर गोविंद देव जी को वहां स्थान दिया। गोविंद देव जी के साथ राधारानी की मूर्ति बाद में प्रतिष्ठित हुई।
यह मूर्ति उड़ीसा के प्रतापरुद्र नामक शासक लाए थे। 1669 में औरंगजेब द्वारा मंदिरों को तोड़े जाने की घटनाओं के दौरान माध्वीय गौड़ीय संप्रदाय के गोविंद देव, गोपीनाथ और मदन मोहन, राधादामोदर और विनोदी लाल ये पांचों स्वरूप जयपुर लाए गए। इनमें गोविंद देव जी पहले आमेर की घाटी के नीचे बिराजे और जयपुर बसने पर जय निवास की इस बारहदरी में प्रतिष्ठापित किए गए। जयपुर के अलावा गोविंद देव जी का मंदिर भरतपुर के कामा में और वृंदावन में भी है।
साभार —प्रीति जोशी
गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिर्काडस में इस भव्य सत्संग भवन का नाम दर्ज है। सबसे कम खम्भों के सहारे इतने बड़े सत्संग भवन का निर्माण होने की वजह से इसे एक मिसाल के तौर पर माना गया है। सत्संग भवन की भव्यता और सुंदरता इतनी मोहक है कि जब तक चारों ओर इसे घूम कर नहीं देख लिया जाए, मन नहीं मानता।
सत्संग भवन का निरीक्षण पूरा हो जाए तो सामने दिखाई देते हैं स्वयं विराजमान गोविंद देव जी। श्याम वर्ण की राधा-गोविंद की मनमोहक मूर्ति आकर्षक शृंगार में सजी-संवरी भक्तों को बांध लेती है। जब तक पट बंद नहीं हो जाते तब तक नेत्र राधा गोविंद की आखिरी झलक पाने के लिए एकटक खुले ही रहते हैं। गोविंद देव जी की प्रतिदिन सात झांकियां सजती हैं।
1500 किलो प्रसाद
मंदिर में गोविंद देव जी की सेवा पूजा के लिए 5 मुख्य पुजारी लगे हैं। इनके अलावा 100 पुजारी और कर्मचारी अलग से अन्य व्यवस्थाओं में सहयोग करते हैं। मानस गोस्वामी के अनुसार मंदिर में प्रतिदिन 1500 किलो प्रसाद बनता है जो भक्तों को सशुल्क दिया जाता है।
गोविंद देव जी को बाहरी वस्तुओं का भोग नहीं लगता, सिर्फ मंदिर में बने लड्डुओं का ही भोग लगता है। हर एकादशी पर प्रसाद की मात्रा बढ़कर 2500 किलो हो जाती है और बड़ी एकादशियों पर तो 5000 किलो तक प्रसाद बनाया जाता है। गोविंद देव जी के मंदिर में गौड़ीय संप्रदाय द्वारा ही सेवा पूजा की परम्परा है। अंजन कुमार देव गोस्वामी मुख्य पुजारी हैं। उनके बड़े पुत्र मानस कुमार गोस्वामी इस पीढ़ी के 28वें वंशज हैं।
जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंह गोविंद देव जी का विग्रह वृंदावन से जयपुर लेकर आए थे। ऐसी किंवदंती है कि गोविंद देव जी की प्रतिमा का चेहरा भगवान कृष्ण के चेहरे से हू-ब-हू मिलता है। इस विग्रह को ब्रजकृति भी कहते हैं क्योंकि यह विग्रह भगवान कृष्ण के पोते ब्रजनाभ ने बनाया था। चैतन्य महाप्रभु ने ब्रज भूमि के उद्धार और वहां के विलुप्त लीला स्थलों को खोज निकालने के लिए अपने शिष्यों को वृंदावन भेजा था। गोविंद जी की मूर्ति वृंदावन गोमा टीला नामक स्थान पर भूमिगत थी, जिसे निकालकर इन शिष्यों ने सन् 1525 में प्राण प्रतिष्ठा की।
अकबर के सेनापति और आमेर के प्रतापी राजा मानसिंह ने इस मूर्ति की पूजा-अर्चना की और वृंदावन में ही सन् 1590 में लाल पत्थर का विशाल मंदिर बनाकर गोविंद देव जी को वहां स्थान दिया। गोविंद देव जी के साथ राधारानी की मूर्ति बाद में प्रतिष्ठित हुई।
यह मूर्ति उड़ीसा के प्रतापरुद्र नामक शासक लाए थे। 1669 में औरंगजेब द्वारा मंदिरों को तोड़े जाने की घटनाओं के दौरान माध्वीय गौड़ीय संप्रदाय के गोविंद देव, गोपीनाथ और मदन मोहन, राधादामोदर और विनोदी लाल ये पांचों स्वरूप जयपुर लाए गए। इनमें गोविंद देव जी पहले आमेर की घाटी के नीचे बिराजे और जयपुर बसने पर जय निवास की इस बारहदरी में प्रतिष्ठापित किए गए। जयपुर के अलावा गोविंद देव जी का मंदिर भरतपुर के कामा में और वृंदावन में भी है।
साभार —प्रीति जोशी
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