बुधवार, 27 मार्च 2013

ऐतिहासिक धरोहर है सादड़ी की मूसल गेर

हास-परिहास का अनूठा आयोजन होता है मारवाड़ का गेर!


एशियाड में धूम मचा चुकी है मादा की गेर

शौर्य और लोक परंपरा को जोरदार अंदाज में पेश करती है सादड़ी-मादा की गेर। लगभग सात सौ सालों से 27 लोक वाद्य यंत्रों की सरगम पर यह गैर नाची जा रही है। इस गेर की खनक ने एशियाड 1982 में भी रंग जमाया था। इस परंपरा को जीवित रखने के लिए देशभर में व्यवसाय करने वाले मादा गांव के निवासी महाशिवरात्रि पर्व पर गांव आ जाते हैं तथा फागुन सुदी पंचमी से गांव के आराध्य देव मंगलेश्वर महादेव मंदिर पर गेर का प्रशिक्षण भी प्राप्त करते हैं। धुलंडी की शाम को चंदेलों के तालाब के किनारे ढोल, नगाड़े, थाली व मांदल की थाप पर गेर नृत्य करते हैं। गेर के दौरान गेरिये भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं, बृज के फागगीतों की धुन पर कदम से कदम उठाकर गेर नाचते हैं। इस दौरान ‘हां रे मधुबन में धूम मचाई होली रे’, ‘कितरा बरस लालो कंवर कन्हैयो कितरा बरस राधा राणी’, ‘बारह बरस म्हारो कंवर कन्हैयो तेरह बरस राधा प्यारी’ जैसे कर्णप्रिय गीत भी गाते हैं।


ऐतिहासिक धरोहर है सादड़ी की मूसल गेर
होली विशेष: हास-परिहास का अनूठा आयोजन होता है मारवाड़ का गेर!
सांस्कृतिक व ऐतिहासिक धरोहर है सादड़ी की मूसल गेर। यह गेर शीतला सप्तमी को सगरवंशीय माली समाज के इष्ट देव भैरव की विधिवत पूजा अर्चना के बाद नाईवाड़ा से प्रारंभ होती है तथा मुख्य बाजार से होते हुए पुन: नाईवाड़ा पहुंचती है। गेर दल के सदस्य मांदल की थाप पर नृत्य करते हैं और पूरे रास्ते मूसल से हास परिहास का रंग बिखेरते चलते हैं। बताया जाता है कि यह गेर डेढ़ सदी से भी पुरानी है। मान्यता है कि ताम्बावती नगरी नाडोल रियासत से पहले नगर में आए करीब तीन सौ सगरवंशीय माली समाज के लोगों ने अपने इष्ट देवता भगवान भैरव की प्रसन्नता व विश्व कल्याण की कामना के लिए मूसल गेर की शुरुआत की थी। गेर में शामिल होने वाले युवक शरीर पर तेल व सिंदूर लगाकर भैरव समरूप श्रंगार करते थे।

इसके बाद वे हाथ में मूसल लेकर ढोल, ताशे व मांदल के संग झूमते नाचते हैं। महिलाएं भी हाथों में डंडे लेकर महिलाओं के पीछे भागती हैं।


बूसी में मौजीराम को ब्याहने की परंपरा
होली विशेष: हास-परिहास का अनूठा आयोजन होता है मारवाड़ का गेर!
मौजीराम और मौजनी देवी के मिलन की जोरदार परंपरा है बूसी कस्बे में। यहां धुलंडी के दिन इनकी शादी होती है। एक-डेढ़ मिनट तक इनके मिलन के साथ ही गीतों की धमाल होती है और अंतत: दोनों को अपने-अपने मंदिर में अकेले छोड़ दिया जाता है। इस रंगारंग परंपरा की शुरुआत बूसी कस्बे के पुराना पोस्ट ऑफिस स्थित मौजीराम के मंदिर से होती है। गाजे-बाजे के साथ इनको श्रद्धालु अपने कंधे पर सवार कर लेते हैं। नाचती-गाती इनकी बारात सुनारों का मोहल्ला पहुंचती है। यहां मौजीराम का श्रंगार किया जाता है। वहां से पूरे धूम-धड़ाके के साथ यह बारात ब्रrापुरी स्थित मौजनी देवी के मंदिर की ओर आगे बढ़ती है। यहीं निकट ही मौजीराम की वर रूप में आरती भी होती है। इस दौरान रावले के बाहर मौजीराम के जीवन का बखान होता है। लोककथा शैली में उनका जीवन चरित्र सुनाया जाता है।

मौजनी देवी के मंदिर पहुंचने पर मौजीराम व मौजनी देवी का पूरे विधि विधान से विवाह होता है। बमुश्किल एक-डेढ़ मिनट दोनों को साथ रखा जाता है। इसके बाद पूरे सम्मान से मौजीराम की काष्ठ प्रतिमा को उनके मंदिर में विराजित कर दिया जाता है। जानकारों के अनुसार मौजीराम को कामदेव और मौजनी देवी को कामिनी देवी का रूप माना जाता है। कहा जाता है कि अतीत में एक बार मौजीराम की प्रतिमा को कुएं में डाल दिया गया था। तब गांव पर गंभीर संकट आ गए थे। कारणों का विश्लेषण करते हुए पुन: मौजीराम की काष्ठ प्रतिमा को उनके मंदिर में प्रतिष्ठित की गई।


निराली थी झुझंदा की होली

जैतारण के पास स्थित झुझंदा गांव की होली की मान्यता भी ऐतिहासिक रही है। जानकारों के अनुसार कभी यहां हाथों में नंगी तलवारें लेकर आडाई नाम की परंपरा निभाई जाती थी। फिलहाल यह लुप्त सी हो गई है।

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