रविवार, 3 फ़रवरी 2013

ईश्वर से जब भी याचना करें सीमाओं में न बाँधें अपनी कामनाओं को


ईश्वर से जब भी याचना करें सीमाओं में न बाँधें अपनी कामनाओं को

- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
याचनाओं और प्रार्थनाओं का वजूद मानव सभ्यता के साथ ही आदिकाल से प्रचलित रहा है। परमपिता परमेश्वर से लेकर आदमी तक कुछ न कुछ पाने के लिए प्रार्थना और याचना कासहारा लिया जाता रहा है।
बदलाव सिर्फ इतना भर आया है कि कुछ सदियों पूर्व तक ईश्वर से याचना करने वालों की संख्या अनगिनत थी और आज ईश्वर की बजाय विभिन्न प्रजातियों के छोटे-बड़े आदमियों केसामने हाथ फैलाने वालों की संख्या खूब है। ईश्वर से चाहने वालों की संख्या कम होती जा रही है। 
उस जमाने में लोग संतुष्ट थे और जो संतुष्ट होता है वही इन्द्र के बराबर माना गया है। तभी कहा गया - असंतुष्टा द्विजा नष्टा, संतुष्टा च महीपति। पुराने युगों में आदमी को अपनी बुद्धि औरसामर्थ्य पर पक्का भरोसा था और इसी के बल पर वह देवी-देवताओं से इच्छित वर मांग लिया करता था, प्रकृति पर विजय प्राप्त कर मनचाही दिशा और दशाओं का दिग्दर्शन करा सकता था।
कालान्तर में आदमी का अपने आप पर भरोसा खोता चला गया और इसी अनुपात में उसकी ईश्वर से दूरियाँ भी निरन्तर बढ़ती गई और वह अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिएआदमियों की भीड़ के सामने हाथ फैलाने लगा। 
एक जमाना वह भी आया जब आदमियों का कद ईश्वर के बराबर रहा, उस समय ईश्वरीय कार्यों को इन महापुरुषों ने बेहतर ढंग से अंजाम दिया। परवर्ती काल में आदमियों में स्वार्थ और क्षुद्रऐषणाओं का मोह जगा, इसके बाद से लेकर आज तक हम अपनी अनचाही न होने और मनचाही पाने के लिए इधर-उधर भटकते हुए आदमियों के सामने ही हाथ फैलाकर याचना करने लगे हैं।
याचना के इस भयानक दौर में हम उस श्रेणी के याचकों में शुमार हो चले हैं जिनका कोई स्तर ही नहीं रहा। कभी मुद्रा और संसाधनों, पद-प्रतिष्ठा, दर्जा, सम्मान-पुरस्कार और दूसरी सांसारिककामनाओं के लिए याचक बन जाते हैं, कभी उन चीजों के लिए याचक बन कर परिक्रमा करने लगते हैं जो हमें स्वतः प्राप्त होने वाली होती हैं।
वस्तुतः जीवन के हर कर्म और स्वयं जीवन से ही जो लोग असंतुष्ट रहते हैं वही अव्वल दर्जे के याचक होते हैं जो अपनी सारी लाज-शरम और धर्म-ईमान को ताक में रखकर दारिद्र्य भाव सेयाचना करते हुए सामने वाले को पिघलाने, भरमाने या खुश करने के तमाम जतन करते रहते हैं।
पूरी बेशरमी के साथ हम मांगने के आदी होते जा रहे हैं और हमारा स्वाभिमान जाने कहाँ बेच दिया है हमने। जिस ईश्वर ने हमें धरा पर भेजा है उसे भुलाकर उन लोगों से मांग रहे हैं जो स्वयंभिखारी हैं और अपने आकाओं से लेकर ऊपर तक के आदमियों के आगे हाथ फैलाये अनुनय विनय करने के आदी हैं अथवा उनके आगे पूरी तरह पसरने के।
आज की सृष्टि में दो किस्मों के आदमी हैं। एक तो वे हैं जो आदमियों के सामने याचना करते हैं और दूसरे वे हैं जो आदमियों के साथ-साथ निराशा के क्षण आ जाने की स्थितियों में ईश्वर केसामने याचना कर लिया करते हैं।
भिखारियों के सामने भिखारियों द्वारा याचनाओं पर चर्चा नहीं कर ईश्वर के आगे झोली पसारने वाले लोगों की चर्चा की जाए तो यह अच्छी तरह सामने आएगा कि लोग अपने मामूली सेमामूली कामों के लिए ईश्वर से याचना करते हैं। जबकि सांसारिक प्रवाह के सारे काम अपने आप होते रहते हैं इसके लिए ईश्वरीय शक्ति की कहीं कोई आवश्यकता नहीं हुआ करती।
लेकिन भविष्य के प्रति अज्ञानता की वजह से हम अक्सर बेवजह ईश्वर से याचना करते रहते हैं और अपनी शक्तियों को उन बातों या वस्तुओं के लिए जाया करते हैं जो अपने आप प्राप्त होतीरहने वाली हैं। जीवन भर में किसी भी प्रकार की जरूरत हो, इसके लिए मरणधर्मा और सांसारिक बुराइयों से भरपूर आदमी की बजाय ईश्वर से याचना का मार्ग अपनाया जाए तो हमारे सारे काम ज्यादाआसान और स्थायी प्रभाव छोड़ने वाले हो सकते हैं।
आदमियों से निराश होने के बाद ईश्वर की शरण पाने की बजाय हम सीधे ही ईश्वर से मुखातिब हों तो इससे अपने कामों के होने की तीव्रता तथा सफलताओं को पाने की रफ्तार और घनत्वभी अपेक्षाकृत कई गुना बढ़ा हुआ हो जाता है और इससे हमारे जीवन में माधर्यु और आनंद के साथ उपलब्धियों और कालजयी ऐतिहासिक आयामों का प्राप्त किया जा सकता है।
ईश्वर से जब भी कोई इच्छा रखें, इस बात का ध्यान रखें कि लक्ष्य या कामनाओं को सीमा में कभी न बांधें। ईश्वर हमें अनंत और अपरिमित देना चाहता है और उसमें वह सामर्थ्य है भी।लेकिन आमतौर पर हम अपने लक्ष्यों और प्राप्तियों को मानवी बुद्धि से नाप कर याचना करने लग जाते हैं। ऐसे में अपार संपदा, गुण और दिव्यताओं को देने वाला ईश्वर हमें अपनी मूर्खता की वजह सेअपनी मांग के अनुरूप सीमित संसाधनों और आयामों का ही फल देने को बाध्य हो जाता है।
इसलिए जीवन में जब भी ईश्वर से याचना और प्रार्थना करें तब वह सब कुछ मांगें, जो अपने जीवन की इहलौकिक और पारलौकिक यात्रा के लिए जरूरी हो, लेकिन इस बात का ख्याल रखेंकि दाता ईश्वर को किसी भी दृष्टि से सीमाओं में न बाँधें बल्कि यह प्रार्थना करें कि वह जो कुछ भी दे, अपनी इच्छा से दे।
ऐसा होने पर हमंे जो प्राप्त होगा उसे सीमाओं में बाँध पाना कभी संभव नहीं होगा। यही स्थिति हमें अनिर्वचनीय आनंद और महासंतोष के साथ ईश्वरीय कृपा का प्रत्यक्ष अनुभव भी करानेवाली होती है जिसके बाद ईश्वर के समक्ष भी याचना करने की आवश्यकता स्वतः समाप्त हो जाती है। इस स्थिति को लाकर ही हम मनुष्य और ईश्वर के शाश्वत संबंधों और अंशों का अनुभव कर सकतेहैं।

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