बेणेश्वर मुख्य मेला माघ पूर्णिमा-25 फरवरी 2013
लोक रंगों का महामेला - बेणेश्वर
लोक लहरियां उमड़ाती हैं आनंद का समंदर
-डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
बेणेश्वर धाम...... दूर-दूर तक फैला टापू, अथाह पानी और संगम, खुला आसमान... जहाँ अहर्निश बहा करती हैं संस्कृति की जाने कितनी धाराएँ, उपधाराएँ और अन्तः सरणियाँ। वह नाम जिसमें समाए हुए हैं लोक संस्कृति, सामाजिक सौहार्द और वनवासी संस्कृति के जाने कितने रंग। मेल-मिलाप की संस्कृति का यह महामेला राजस्थान के दक्षिणांचल की धड़कनों में समाया हुआ है।
लोक लहरियों का समंदर उमड़ता है यहाँ
राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात के समीपवर्ती पहाड़ी वाग्वर अंचल की लोक संस्कृति एवं लोक लहरियां यहां की नैसर्गिक सौन्दर्य से लक-दक पर्वतीय उपत्यकाओं से प्रतिध्वनित होती हैं। वनवासियों का मधुर संगीत और घुंघरुओं की झनकार, सरिताओं की कल्लोल, अर्वाचीन गंधर्वाें व किन्नरों की पुरोधा लगती है।
एक ओर यह मेला परंपरागत लोक संस्कृति का जीवन्त दिग्दर्शन कराता है तो दूसरी ओर जनजातीय क्षेत्रों में सम-सामयिक परिवर्तनों, रहन-सहन में बदलाव और विकास के विभिन्न आयामों को भी अच्छी तरह दर्शाता है। यह बेणेश्वर मेला ही है जो वागड़ अंचल भर की उन तमाम गतिविधियों का सम्यक प्रतिदर्श पेश करता है जो वर्ष भर लोक जीवन में संवहित होती रहती हैं।
सारे तीर्थ आते हैं यहाँ माघ पूनम को
माही मैया, सोम और जाखम सलिलाओं के पवित्र जल राशि संगम स्थल पर डूंगरपुर जिला मुख्यालय से 65 किलोमीटर दूर बेणेश्वर धाम के नाम से देश-विदेश में सुविख्यात टापू जन-जन की आस्थाओं का प्रतीक है। वनवासियों के लिए यह महातीर्थ है, जो प्रयाग, पुष्कर, गया, काशी आदि पौराणिक तीर्थों की ही तरह पवित्र माना गया है। यहां का पवित्र संगम पाप मुक्तिदायक एवं सर्वार्थसिद्धि प्रदान करने वाला है।
बेणेश्वर धाम का सर्वोपरि महत्व मृतात्माओं के मुक्ति स्थल के रूप में हैं, जहां वनवासियों द्वारा अपने परिजनों के मोक्ष के निमित्त धार्मिक क्रियाएं करने की परिपाटी पुराने समय से चली आ रही है।
सोमवार को मुख्य मेला
हर वर्ष माघ पूर्णिमा पर मुख्य मेला जुटता है, जिसमें वाग्वर अंचल के कई लाख लोगों के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों ख़ासकर मध्यप्रदेश और गुजरात जैसे पड़ोसी राज्यों से भी मेलार्थी भाग लेते हैं। तीन सौ से भी अधिक वर्ष पुराना, हिन्दुस्तान भर के वनवासियों का सबसे बड़ा मेला होने के कारण इसे ‘वनवासियों के महाकुंभ’ की संज्ञा भी दी गई है। आर्थिक विपन्नता के कारण यहां के बहुसंख्य वनवासी गया आदि स्थलों पर जाकर अपने मृत परिजनों की उत्तरक्रियाएं करने में समर्थ नहीं हैं, ऎसे में बेणेश्वर धाम का दिव्य संगम तीर्थ ही उनके लिए हरिद्वार, काशी, गया, गंगा-यमुना आदि तीर्थों की तरह है। वर्ष में एक बार बेणेश्वर मेले में आकर वे मोक्ष रस्मों को पूरा करते हैं व अपने गुरुत्तर पारिवारिक दायित्व निभाते हैं।
पितरों के मोक्ष का जतन
बीते वर्ष में जब भी घर-परिवार में किसी की मृत्यु होती है तब उसकी चिताभस्म से अवशेष रह गई अस्थियों, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘फूल’ कहा जाता है, को मिट्टी की कुल्हड़ी में सहेज कर रख दिया जाता है। जिन कतिपय समुदायों में शव को गाड़ने का विधान है, उनमें शव को गाड़ने से पूर्व नाखून एवं कुछ केश ले लिए जाते हैं व इन्हें कुल्हड़ में भरकर बाहर रख देते हैं।
सामान्यतः मनुष्य को मृत्यु के अनन्तर की जाने वाली क्रियाएं वनवासियों में भी की जाती हैं। इनकी मान्यता है कि जब तक बेणेश्वर जाकर अस्थि विसर्जन नहीं किया जाता, तब तक मृतात्मा का मोक्ष नहीं होता व आत्मा भटकती रहती है। इस दृष्टि से हजारों-हजार वनवासी माघ पूर्णिमा के बेणेश्वर मेले की बड़ी ही उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं।
बेणेश्वर मेले से ठीक पहले घर-परिवार के लोगों का समूह इकट्ठा होता है व अस्थियों भरी कुल्हड़ियों को साथ लेकर मृतात्मा का नाम पुकार कर अपने साथ चलने का आह्वान किया जाता है। मेले में जाते हुए ये लोग अपने साथ पोटलियों एवं डिब्बों में खाने-पीने का सामान भी लेकर जाते हैं।
माघ पूर्णिमा के एक दिन पहले बेणेश्वर पहुंचने वाले सभी मार्गों पर अस्थि विसर्जन के लिए जाने वाले वनवासी परिवारों का सैलाब उमड़ा हुआ दिखाई देता है। माघ पूर्णिमा को बड़े सवेरे मुँह अंधेरे बेणेश्वर संगम तीर्थ पर हर तरफ हजारों-हजार वनवासी नर-नारियों के झुंड करुण अलाप व मृतात्माओं के आह्वान में व्यस्त दिखाई देते हैं, इससे समूचा परिक्षेत्र गमगीन हो उठता है। लोग मृतात्मा का स्मरण कर रूदन करते हुए विलाप करते हैं इसे ‘दाड़ पाड़ना’ कहा जाता है।
संगम तीर्थ पर लाल या सफेद रंग के वस्त्र से ढकी अस्थि भरी कुल्हड़ी पर पुष्प एवं कुंकुमादि से पूजा की जाती है। इसके बाद संगम तीर्थ में अस्थि कुल्हड़ियां लिए मृतक का पुत्र या आश्रित आगे ही आगे पानी में बढ़ता जाता है व पीछे-पीछे घर-परिवार के अन्य सदस्य भी कतारबद्ध उसके पीछे चलते जाते हैं। नाभि तक जल में उतर कर सब लोग स्नान करते हैं व दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके दिवंगत परिजन की याद में करुण विलाप करते हुए अस्थियों व चिता भस्म को बहती जल धाराओं में प्रवाहित कर देते हैं। इस समय मृत परिजन को स्मरण कर अंतिम प्रणाम किया जाता है। इस क्रिया को ‘फूल पदराना’ कहा जाता है।
धार्मिक मान्यताओं का मनोहारी दिग्दर्शन
लोगों की मान्यता है कि बेणेश्वर में अस्थि विसर्जन के साथ ही आत्मा का इस जन्म का समस्त मोह समाप्त हो जाता है व उसकी पारलौकिक यात्रा शुरू हो जाती है। अस्थि विसर्जन के बाद जल की अंजुलि भरकर तर्पण किया जाता है व सूर्य भगवान को अध्र्य चढ़ाकर अन्य देवी-देवताओं को वंदन करते हैं। स्नान, तर्पण एवं अस्थि विसर्जन के बाद जल से बाहर निकल कर पवित्र वस्त्र धारण करते हैं व मृतात्मा के मोक्ष के निमित्त उत्तर क्रिया अनुष्ठान करवाते हैं। दीप प्रज्ज्वलन व विसर्जन भी करते हैं।
संगम तीर्थ के टापूओं, जल विहीन चट्टानों, नदी तीरों, गोल-मटोल पत्थरों एवं रेतीले क्षेत्रों पर भगत एवं पुरोहित, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘गरु’ अथवा ‘गोरजी’ कहा जाता है, जहां-तहां अपने आसन जमाये बैठेे रहते हैं। गरु संगम तट पर लाल, सफेद कापले (नन्हें वस्त्र) बिछाकर उस पर चावल, गेहूं, कुंकुम, रोली, हल्दी से यंत्र बनाकर अनुष्ठान में व्यस्त दिखाई देते हैं।
अस्थि विसर्जन के लिए आने वाले मेलार्थी यजमान इन गरुओं के सम्मुख अपने-अपने मृत परिजन की मुक्ति के उद्देश्य से उत्तर क्रिया कराते हैं। गरु द्वारा गणेश पूजन व संकल्प के पश्चात मृतात्माओं का आह्वान किया जाता है। कई-कई लोग मुंडन भी करवाते हैं। इस क्रिया के बाद गरु को दान-दक्षिणा व सीधा (भोजन निर्माण हेतु अन्नादि) दिया जाता है।
मीलों पसरा रहता है मेला
करीब एक-डेढ़ किलोमीटर संगम क्षेत्र भर में यही नज़ारा मृतात्माओं के मोक्ष के उत्सुक जीवात्माओं की परम्परागत श्रद्धा को अभिव्यक्त करता है। अस्थि विसर्जन का यह सिलसिला माघ पूर्णिमा को दिन भर अपने चरमोत्कर्ष पर रहता है। अस्थि विसर्जन के उपरांत वनवासी संगम तट की चट्टानों व रेत पर चूल्हा जला कर बड़े-बड़े काले मटकों या पात्रों में परम्परागत, बाकरा, दाल-बाटी या पानीये(मक्का की मोटी रोटी) पकाते हैं। बाकरा विशेष प्रकार का खाद्यान्न होता है, जिसमें गेहूं, चावल आदि को एक साथ मिलाकर पकाया जाता है। इसमें गुड़ या शक्कर मिलाकर मीठा बाकरा तथा मिर्चादि मिलाकर मसालेदार बाकरा बनाया जाता है। समूचे संगम तट पर कण्डों व लकड़ियों के जलने से धूएं के बादल उठते दिखाई देते हैं। यहीं पर पूरे परिवार के लोग एक साथ बैठकर सामूहिक भोजन करते हैं।
संगम तटों पर शुद्ध पानी निकालने के लिए लोगों द्वारा रेत कंकड़ों को निकाल कर खड्डा बनाया जाता है व इसमें से निकला पानी पीने के काम में लिया जाता है। इन जलीय खड्डों को ‘बिलं’ कहते हैं। वारवड़ा(शिशुओं के मुण्डन की बाधा) की रस्में भी यहां पूरी की जाती हैं।
इस सब पारिवारिक दायित्वों से फुर्सत पाकर मेलार्थी मेलास्थल के श्रद्धास्थलों, मंदिरों एवं मेला बाजारों की यात्रा करते हैं। तीनों ही ओर दूर-दूर तक कलनाद करती सरिताओं एवं अथाह जलराशि भरे पवित्र संगम तटीय क्षेत्र के बीचों-बीच सुविस्तीर्ण टापू की सबसे ऊंची पहाड़ी पर प्राचीन बेणेश्वर शिवालय है। मेले का नामकरण भी इसी के आधार पर किया हुआ है।
पौराणिक मिथकों से जुड़ा है यह तीर्थ
यहां विभिन्न देवी-देवताओं के कई मन्दिर हैं जो श्रद्धा और आस्था का ज्वार उमड़ाते हैं। इस महातीर्थ के संबंध में पौराणिक मान्यता है कि इस गुप्त प्रदेश में राजा बलि ने बड़ा भारी यज्ञ किया। उस समय भगवान विष्णु ने तीन पग भूमि का दान इसी स्थल पर लिया। भगवान हरि ने वामन रूप धर कर जिस स्थान पर अपना पग रखा उसे ‘आबूदर्रा’ कहा जाता है। इसकी गहराई अथाह है।
भक्तों का मेला
यह वाल्मीकि मंदिर मेले के दिनों में वनवासी चेतना का धाम बन जाता है, जहां इस अंचल के कोने-कोने से भक्तों की टोलियां अपने-अपने मत-मतांतरों के ध्वज, लोकवाद्य यंत्र लेकर शरीक होती हैं व धार्मिक एवं सामाजिक सुधार के विविध कार्यक्रमों के माध्यम से लोक जागरण को प्रभावी दिशा देती हैं। मेले में ऎटीवाला पाड़ला के देवपुरी महाराज की चित्र लेकर पालकी आती है। यहीं हवनकुंड, धर्मशाला, चुग्गा डालने का चबूतरा आदि हैं। भक्तों द्वारा लगातार यहां भजन लहरियां प्रवाहित की जाती हैं। वाल्मीकि मंदिर पर बड़ी संख्या में लगने वाले रंग-बिरंगे ध्वजों, भक्तों का जमावड़ा और धार्मिक कार्यक्रमों का समन्वय मेले की रंगत को बहुगुणित करता है।
मेला बाजारों का भी है अपना आकर्षण
इस वार्षिक मेले में विस्तृत फैले मेला बाजारों में चारों तरफ असंख्य दुकानें लगती हैं व मनोरंजन के संसाधनों का जमावड़ा होता है। मेला बाजारों में हर वस्तु मिलती है, वहीं मनोरंजन स्थल पर रंगझूले, चकडौल, सर्कस, पिक्चर, मदारियों के कारनामें, मौत का कूआ, जादू, रेल, चिड़ियाघर आदि सभी विधाओं को पाया जा सकता है। मेलार्थी अपने जरूरत की चीजों की खरीद-फरोख़्त करते हैं व मेले का पूरा-पूरा लुत्फ उठाते हैं।
पीठाधीश्वर होते हैं श्रद्धा के केन्द्र
मेला स्थल के प्रमुख राधा-कृष्ण मंदिर में बेणेश्वर धाम के पीठाधीश्वर की गादी लगती है। मेलार्थी यहां आकर महन्त के चरणस्पर्श कर आशीर्वाद ग्रहण करते हैं व कुछ न कुछ चढ़ावा अवश्य चढ़ाते हैं। मेले में जहां-तहां साधु संतों, भक्तों एवं मठ-मंदिरों के पुजारियों आदि को धार्मिक क्रिया-कलापों में व्यस्त देखा जाता है। साधु संत धर्म ध्वजाएं लगाये भजनानंद में व्यस्त रहते हैं।
मुक्ति का महाधाम
बेणेश्वर जहां आनंद का ज्वार उमड़ता है, वहीं मृतात्माओं की मुक्ति का महाधाम है, जो पिछले तीन सौ से अधिक वर्षों से अपनी पावनता का बखान कर रहा है। इसके साथ ही वनवासी अंचल में लगने वाला यह परंपरागत मेला इस क्षेत्र की संस्कृति, सामाजिक रीति-रिवाज, रहन-सहन के अंदाज और वनवासियों के जीवनदर्शन से भली प्रकार रूबरू कराता है और आनंद के साथ जीने की कला के दर्शन से हर किसी को अभिभूत कर देता है।
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