दर असल सूफी संगीत पैदा और पनपा था सिंध प्रदेश की सूफी दरगाहों में। रात रात भर, कई कई कलाकार सूफी संगीत पेश करते थे, जिन्हें सिंधी भी भगत कहते थे। ऐसे ही सूफी संगीत की महारत हासिल है बहुत ही मशहूर गायिका आबिदा परवीन को। आबिदा आपा किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। सूफी गायिकी में इनका विशेष स्थान है। आबिदा जी का गायन खालिस सूफियाना अलमस्त अन्दाज का है।
आइडिया सफल
साठ के दशक में एक सूफी संगीत के एक मशहूर फनकार हुआ करते थे, नाम था हैदर शाह जी, अक्सर सक्खर और लारकाना के सूफी दरगाहों पर पाए जाते थे। इनका सूफी संगीत बहुत पापुलर था। लोग इनको दूर-दूर से सुनने आया करते थे। इनके साथ इनका साथ देती थी, इनकी आठ साल की छोटी बच्ची जिसे आज हम आबिदा परवीन के नाम से जानते हैं। धीरे-धीरे बच्ची की आवाज लोगों को भा गई। इनकी आवाज सुनकर हैदराबाद सिंध के एक प्रोड्यूसर शेख गुलाम हुसैन को इनसे सूफी अंदाज में कलाम रिकार्ड करवाने का विचार आया। आइडिया बहुत अच्छा था, और इसके साथ ही आबिदा आपा का पहला एलबम शाह जो रिसालो दुनिया के सामने आया। उसके बाद से आबिदा ने फिर कभी पीछे पलट कर नहीं देखा। सूफी संगीत थोड़ा अलग किस्म का होता है, इसको समझने के लिए हल्का सा अलग टेस्ट चाहिए होता है। अमीर खुसरो, बुल्ले शाह, सचल सरमस्त, कबीर, वारिस शाह के लिखे सूफी कलामों को आबिदा आपा की आवाज में सुनने का अलग ही लुत्$फ आता है। यदि आपने कभी भी आबिदा को नहीं सुना है तो मेरी गुजारिश है कि आप जरूर सुनिए, शुरुआत के लिए आप कुछ आसान से कलामों को सुन सकते हैं। धीरे- धीरे जैसे-जैसे आप इस रस में डूबने लगेंगे तो हर तरह के गीत आपको पसंद आने लगेंगे। ऐसा नहीं है कि आबिदा ने सि$र्फ सू$फी कलाम गाए हैं, ग•ालों और न•ामों को भी उतना ही खूबसूरती से गाया है। ग•ालों पर भी उनके काफी सारे एलबम मिल जाएंगे। यदि आपको आबिदा जी के लाइव प्रोग्राम की सीडी मिल जाए तो जरुर सुनिएगा। मन प्रफुल्लित हो जाएगा।
जगाया गायकी का जादू
1960 के दशक में जब पाकिस्तान में $फरीदा $खानम और इकबाल बानो $ग•ालों के जूड़ों में चमेली के माफिक गुंथ चुकी थीं, सिंध की दरगाहों पर लरकाना के मुहल्ले अली गौहराबाद के हैदर शाह लोक तानें लगाकर सू$िफयाना गायकी का जादू जगा रहे थे।
ऑडिशन में सफल
हैदर शाह के साथ उसकी आठ-नौ वर्ष की बच्ची भी होती थी, जो चुपचाप एक ओर बैठी, अपने पिता की कला के प्रदर्शन को देखती और दर्शकों के अभिवादन को दिल ही दिल में नापती तौलती रहती थी।
यह उस समय की बात है जब रेडियो पर आवाज के ऑडिशन में सफल होना उतना ही महत्वपूर्ण समझा जाता था जितना कि यूरोप और अमेरिका में किसी नवयुवक को ड्राइविंग लाइसेंस मिलना। हैदर शाह की बेटी भी एक दिन रेडियो पाकिस्तान के ऑडिशन में सफल हो गई और उससे समय-समय पर शाह अब्दुल लतीफ भटाई का कलाम गवाया जाता रहा। हैदराबाद स्टेशन पर शैख़ गुलाम हुसैन म्युजिक प्रोड्यूसर हुआ करते थे। यह उनकी नौकरी नहीं बल्कि उनका जुनून था जो उन्हें सदैव नए प्रयोग के लिए बाध्य करता रहता था।
मील का पत्थर साबित
हैदर शाह की बेटी की आवाज सुनकर शै$ख ग़ुलाम हुसैन को विचार आया कि क्यों न $ग•ाल और लोक गायकी के बीच की जो दूरी है उसे समाप्त किया जाए और $ग•ाल को दरबारी रंग से निकालकर उस पर दरगाह वाला रंग चढ़ाया जाए। यह प्रयोग दोनों के लिए मील का पत्थर साबित हुई। 'शाहजु रेसालूÓ गाने वाली हैदर शाह की बेटी का आबिदा परवीन के नाम से प्रसंशा और लोकप्रियता के पथ पर पहला $कदम था, जिसमें उसे शे$ख गुलाम हुसैन के रूप में एक ऐसे गीतकार पति का साथ मिल गया जो 24 घंटे का शिक्षक और मार्गदर्शक भी था।
यह उस समय की बात है जब रेडियो पर आवाज के ऑडिशन में सफल होना उतना ही महत्वपूर्ण समझा जाता था जितना कि यूरोप और अमेरिका में किसी नवयुवक को ड्राइविंग लाइसेंस मिलना। हैदर शाह की बेटी भी एक दिन रेडियो पाकिस्तान के ऑडिशन में सफल हो गई और उससे समय-समय पर शाह अब्दुल लतीफ भटाई का कलाम गवाया जाता रहा। हैदराबाद स्टेशन पर शैख़ गुलाम हुसैन म्युजिक प्रोड्यूसर हुआ करते थे। यह उनकी नौकरी नहीं बल्कि उनका जुनून था जो उन्हें सदैव नए प्रयोग के लिए बाध्य करता रहता था।
मील का पत्थर साबित
हैदर शाह की बेटी की आवाज सुनकर शै$ख ग़ुलाम हुसैन को विचार आया कि क्यों न $ग•ाल और लोक गायकी के बीच की जो दूरी है उसे समाप्त किया जाए और $ग•ाल को दरबारी रंग से निकालकर उस पर दरगाह वाला रंग चढ़ाया जाए। यह प्रयोग दोनों के लिए मील का पत्थर साबित हुई। 'शाहजु रेसालूÓ गाने वाली हैदर शाह की बेटी का आबिदा परवीन के नाम से प्रसंशा और लोकप्रियता के पथ पर पहला $कदम था, जिसमें उसे शे$ख गुलाम हुसैन के रूप में एक ऐसे गीतकार पति का साथ मिल गया जो 24 घंटे का शिक्षक और मार्गदर्शक भी था।
बैठने का अंदाज निराला
सू$िफयाना रंग में $ग•ाल और कविता गाने वाली स्त्रियों का माइक के सामने बैठने का ढंग इस प्रकार हुआ करता था जैसे स्टेज पर नमा•ा के समय बैठा जाता है, एक हथेली $फर्श पर और दूसरा हाथ शब्दों और सुरों के उतार-चढ़ाव के साथ लगातार सक्रिय। बैठने का यह अंदा•ा सैकड़ों वर्षों के दरबारी परंपरा का नतीजा है।
चिर कड़ा साईयां दा...
चिर कड़ा साईयां दा...
आबिदा की पृष्ठभूमि दरबारी न होकर दरगाह वाली गायकी से थी, इसलिए उसने उठने और बैठने का भी वही ढ़ंग अपनाया जैसे कोई ध्यान की अवस्था में किसी म•ाार के सामने आलती-पालती मारकर बैठे। अपने आप से बे$खबर दोनों हाथ हरकत के लिए आ•ााद और सर का हिलना धमाली रचाने के अंदा•ा में। और इस अदा के साथ जब आबिदा ने झूम 'चिर कड़ा साईयां दा, तेरी कत्तन वाली जीवेÓ या 'इक नुक्ते विच गल मकदी एÓ की तान छेड़ी तो पाकिस्तान के कोने-कोने में यह अलाप संगीत के रसियाओं को मुड़ मुड़ कर देखने पर विवश करती चली गई। आबिदा की गायकी में हर एक के लिए कुछ न कुछ है, जो सीधे सरल श्रोता हैं उन के लिए 'जब से तूने मुझे दीवाना बना रखा है, संग हर शखूश ने हाथों में उठा रखा हैÓ जैसा कलाम ही सिर धुनने के लिए काफी है।
सीमा पार आबिदा
सीमा पार आबिदा
1984 में आबिदा परवीन हैदराबाद से स्थाई रूप से कराची चली गईं। यह वह समय है जब पाकिस्तान ने
बाकी दुनिया को नुसरत $फतेह अली $खान के हवाले कर दिया और कुछ ही समय में संगीत के एक दलाल पीटर गैबरियल द्वारा नुसरत की आवा•ा के शेयर संगीत के स्टॉक एक्सचेंज में तेजी से बिकने लगे। नुसरत के बाद आबिदा परवीन ऐसी दूसरी आवा•ा है जिसने सरकारी इलेक्ट्रानिक मीडिया और व्यवासायिक कैसेट मंडी के घेरे को तोड़ते हुए उत्तरी अमेरिका से सुदूर पूरब तक अपना जादू जगाया।
कोई बीस वर्ष पूर्व तक भारत में तीन पाकिस्तानी नाम संगीत के दूत के रूप में जाने जाते थे—नूरजहां, मेंहदी हसन और गुलाम अली। मगर नुसरत $फतेह अली और आबिदा परवीन ने भारत में वही किया जो लता मंगेशकर और मोहम्मद र$फी की आवा•ा ने पाकिस्तान में किया, अथवा हाईवे•ा पर चलने वाली बसों और ट्रकों, शहरों में एक दूसरे से रेस लगाती गाडिय़ों, ड्रॉईंग रूम और गली-मोहल्ले के चाय$खानों पर कब्जा कर लिया। यह वह दोतरफ संगीत कूटनीति है जिसने उस समय से लोगों के दिलों पर जमी बर्फ को पिघलाने का काम प्रारंभ किया, जब क्रिकेट कटनीति और पर्दे के पीछे की कूटनीति जैसी शब्दावली से कोई परचित नहीं था। हालांकि मोहनजोदड़ो की नृत्य करती हुई कन्या दिल्ली के अजायबघर में है लेकिन मोहनजोदड़ो की आवा•ा आबिदा परवीन के रूप में इस्लामाबाद में रहती है।
ढ़ूंढोगे हमें मुल्कों-मुल्कों, मिलने के नहीं नायाब हैं हम..।
होली और आबिदा
पाकिस्तान की महशहूर सूफी गायिका और भारत में लोकप्रिय आबिदा परवीन, होली का जिक्र छेडऩे पर जैसे किसी और ही दुनिया में खो जाती हैं। होली से जुड़ी पाकी•ाा यादें हैं, यह खुशी जो है वो महबूब के आमद की ख़ुशी है, जो दोनों मुल्कों में एक जैसी ही है। बचपन से मुझे याद है कि हर म•ाहब के लोग इसमें शामिल होते थे।
आबिदा परवीन कहती हैं, होली से जुड़ी पाकी•ाा यादें हैं, यह ख़ुशी जो है वो महबूब के आमद की ख़ुशी है जो दोनों मुल्कों में एक जैसी ही है। बचपन से मुझे याद है कि हर म•ाहब के लोग इसमें शामिल होते थे। वे कहती हैं कि होली के दिन रंगों में रंग जाना और हंगामा मचा देना, ये ख़ूबसूरत यादें हैं। जी चाहता है एक बार फिर सब इक्ठ्ठा हों। अब भी वही मोहब्बत है, वही प्यार है। वही समां फिर से बना लें तो क्या रंग जमेगा सचमुच। आबिदा परवीन ने कहा कि होली के रंग जो हैं वो रब के रंग हैं इसका असल मुकाम तो दुनिया को मोहब्बत और अपनेपन के एक ही धागे में बांधना है।
फकीराना गायकी और दीवानगी
बाकी दुनिया को नुसरत $फतेह अली $खान के हवाले कर दिया और कुछ ही समय में संगीत के एक दलाल पीटर गैबरियल द्वारा नुसरत की आवा•ा के शेयर संगीत के स्टॉक एक्सचेंज में तेजी से बिकने लगे। नुसरत के बाद आबिदा परवीन ऐसी दूसरी आवा•ा है जिसने सरकारी इलेक्ट्रानिक मीडिया और व्यवासायिक कैसेट मंडी के घेरे को तोड़ते हुए उत्तरी अमेरिका से सुदूर पूरब तक अपना जादू जगाया।
कोई बीस वर्ष पूर्व तक भारत में तीन पाकिस्तानी नाम संगीत के दूत के रूप में जाने जाते थे—नूरजहां, मेंहदी हसन और गुलाम अली। मगर नुसरत $फतेह अली और आबिदा परवीन ने भारत में वही किया जो लता मंगेशकर और मोहम्मद र$फी की आवा•ा ने पाकिस्तान में किया, अथवा हाईवे•ा पर चलने वाली बसों और ट्रकों, शहरों में एक दूसरे से रेस लगाती गाडिय़ों, ड्रॉईंग रूम और गली-मोहल्ले के चाय$खानों पर कब्जा कर लिया। यह वह दोतरफ संगीत कूटनीति है जिसने उस समय से लोगों के दिलों पर जमी बर्फ को पिघलाने का काम प्रारंभ किया, जब क्रिकेट कटनीति और पर्दे के पीछे की कूटनीति जैसी शब्दावली से कोई परचित नहीं था। हालांकि मोहनजोदड़ो की नृत्य करती हुई कन्या दिल्ली के अजायबघर में है लेकिन मोहनजोदड़ो की आवा•ा आबिदा परवीन के रूप में इस्लामाबाद में रहती है।
ढ़ूंढोगे हमें मुल्कों-मुल्कों, मिलने के नहीं नायाब हैं हम..।
होली और आबिदा
पाकिस्तान की महशहूर सूफी गायिका और भारत में लोकप्रिय आबिदा परवीन, होली का जिक्र छेडऩे पर जैसे किसी और ही दुनिया में खो जाती हैं। होली से जुड़ी पाकी•ाा यादें हैं, यह खुशी जो है वो महबूब के आमद की ख़ुशी है, जो दोनों मुल्कों में एक जैसी ही है। बचपन से मुझे याद है कि हर म•ाहब के लोग इसमें शामिल होते थे।
आबिदा परवीन कहती हैं, होली से जुड़ी पाकी•ाा यादें हैं, यह ख़ुशी जो है वो महबूब के आमद की ख़ुशी है जो दोनों मुल्कों में एक जैसी ही है। बचपन से मुझे याद है कि हर म•ाहब के लोग इसमें शामिल होते थे। वे कहती हैं कि होली के दिन रंगों में रंग जाना और हंगामा मचा देना, ये ख़ूबसूरत यादें हैं। जी चाहता है एक बार फिर सब इक्ठ्ठा हों। अब भी वही मोहब्बत है, वही प्यार है। वही समां फिर से बना लें तो क्या रंग जमेगा सचमुच। आबिदा परवीन ने कहा कि होली के रंग जो हैं वो रब के रंग हैं इसका असल मुकाम तो दुनिया को मोहब्बत और अपनेपन के एक ही धागे में बांधना है।
फकीराना गायकी और दीवानगी
कहते हैं कि, संगीत को किसी सरहद में नहीं बांधा जा सकता। जो लोग इस बात में यकीन नहीं करते वे जरा सूफी संगीत के साथ अपना नाता जोड़ लें, सारी हकीकत आइने की तरह साफ हो जाएगी। सीधे और सच्चे लफ्•ा, दिल की गहराइयों में उतरने वाली रिद्म और दीवाना बना देने वाली फकीराना गायकी नामुमकिन है कि कोई भी जज्बाती शख्स इस आलम से खुद को बचा ले जाए।
सदियों से सूफी संत मुहब्बत और प्यार का पैगाम लोगों को दे रहे हैं और यही कारण है कि बदलते वक्त में भी सूफी संतों के कलाम उसी शिद्दत के साथ गाए-गुनगुनाए जाते हैं। जैसे वे पहले-पहल गाए गए होंगे। सूफी संगीत में छुपे मुहब्बत और रूहानियत के पैगाम को युवा संगीत प्रेमी भी बखूबी समझते हंै। यही कारण है कि हाल के दौर में अनेक सूफियाना गीतों ने लोकप्रियता की नई इबारत लिखी है। सुर और ताल की दुनिया में इधर सूफी संगीत को लेकर दीवानगी का आलम है। किसी फिल्म में अगर सूफी संगीत से सजा कोई गीत है तो वह तुरंत हिट हो जाता है, भले ही फिल्म चले या नहीं चले। ऐसे गीत लंबे समय तक संगीत प्रेमियों की जुबान पर भी रहते हैं। जाहिर है कि हिंदी फिल्म उद्योग के संगीतकार अपने गीतों में सूफी संगीत की मधुरता बुन रहे हैं।
और बात जब सूफी संगीत की हो तो आबिदा परवीन के जिक्र के बिना अधूरी ही मानी जाएगी। जानेमाने शायर-गीतकार गुलजार कहते हैं कि, नशा इकहरा ही अच्छा होता है, लेकिन तब क्या किया जाए जब कबीर की रचनाओं के साथ आबिदा परवीन की फकीराना गायकी हो! जाहिर है कि दोनों का अपना नशा है जो सुनने वाले के सिर चढ़कर बोलता है। और न सिर्फ कबीर बल्कि अमीर खुसरो, हजरत वारिस शाह, बाबा बुल्ले शाह और हजरत सचल सरमस्त के लिखे सूफी कलामों को आबिदा की आवाज में सुनने का अलग ही लुत्फ आता है।
आबिदा की गायकी में हर एक के लिए कुछ न कुछ है। जो सीधे, सरल श्रोता हैं उनके लिए 'जब से तूने मुझे दीवाना बना रखा है/ संग हर शख्स ने हाथों में उठा रखा हैÓ जैसा कलाम ही सिर धुनने के लिए काफी है। या फिर 'मन लागो यार फकीरी मेंÓ सुन लीजिए। जितनी बार सुनेंगे, डूबते चले जाएंगे। 'ढूंढ़ोगे हमें मुल्कों मुल्कों/ मिलने के नहीं नायाब हैं हमÓ-कुछ इसी अंदाज में आबिदा परवीन ने सरदहों के घेरों को पार करते हुए अपनी गायकी से हर संगीत प्रेमी को दीवाना बनाया है। उनका एलबम 'सूफी क्वीन-द बेस्ट ऑफ आबिदा परवीनÓ इसी सच्चाई से एक बार फिर हमें रूबरू कराता है। चार सीडी के इस एलबम में कुल जमा सत्ताइस बंदिशें हैं जो आबिदा की आवाज में यूं खिल उठती हैं जैसे बसंत के आने पर बगीचे में फूल खिलते हैं। गुलजार इस एलबम के सूत्रधार हैं जो आबिदा की गायकी को कुछ इस तरह बयां करते हैं कि हर बंदिश को सुनने से पहले ही आप उसकी गिरफ्त में आ जाते हैं। 'कबीर बाई आबिदाÓ- यह है पहली सीडी का टाइटल। जाहिर है कि इसमें आबिदा ने कबीर की रचनाओं को अपने खास अंदाज में पेश किया है। 'मन लागो यार फकीरी मेंÓ, 'सोऊं तो सपने मिलें,जागूं तो मन माहींÓ, 'साहिब मेरा एक हैÓ और 'भला हुआ मेरी मटकी फूटी रेÓ जैसी बंदिशों को एक बार फिर सुनिए, आप इनके असर से शायद ही बच पाएं। कुछ ऐसा ही हाल तब होता है जब आप आबिदा की गायकी में बाबा बुल्लेशाह के कलाम सुनते हैं। 'अब लगन लागीÓ और 'बुल्ले नू समझावन आयाÓ जैसे छह कलाम जिस सीडी में संजोए गए हैं उसे टाइटल दिया गया है- 'आबिदा-बाबा बुल्ले शाहÓ। तीसरी सीडी का शीर्षक है- 'आबिदा-मेरे दिल सेÓ। इसमें हजरत वारिस शाह, हजरत सचल सरमस्त, हजरत जहीन शाह, हजरत ख्वाजा गुलाम अली और हजरत शाह अब्दुल लतीफ के कलाम हैं। 'जिस दिन के साजन बिछड़े हैंÓ, 'अजब नैन तेरेÓ, 'हैरान हुआÓ और 'तूने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना हुआÓ जैसे कलाम आप बार-बार सुनना चाहेंगे। एलबम की चौथी सीडी का टाइटल है- 'हीर बाई आबिदाÓ। हीर के जितने भी वर्शन हैं, वे इस एलबम में आबिदा की आवाज में जीवंत हो उठते हैं। सूफी संगीत पसंद करने वाले संगीत प्रेमियों के लिए एक अनुपम एलबम।
लोकप्रिय संगीत
- 'चिर कड़ा साईयां दा, तेरी कत्तन वाली जीवेÓ
- 'इक नुक्ते विच गल मकदी एÓ
'जब से तूने मुझे दीवाना बना रखा है, संग हर शखूश ने हाथों में उठा रखा हैÓ
- ढ़ूंढोगे हमें मुल्कों-मुल्कों, मिलने के नहीं नायाब हैं हम..
- 'जिस दिन के साजन बिछड़े हैंÓ
- 'अजब नैन तेरेÓ
- 'तूने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना हुआÓ।
आबिदा के एलबम
1. 'कबीर बाई आबिदाÓ
2. 'आबिदा-बाबा बुल्ले शाहÓ
3. 'आबिदा-मेरे दिल सेÓ
4. 'हीर बाई आबिदाÓ
पाकिस्तान की 56 साल की आबिदा परवीन एशिया और एशिया से बाहर सूफी गायकी के लिए जानी जाती हैं। सूफी गायन के क्षेत्र में उन्हें नुसरत फतेह अली खान का उत्तराधिकारी भी कहा जाता है। लरकाना के मुहल्ले अली गौहराबाद के हैदर शाह की बेटी आबिदा ने 9 साल की उम्र से ही गाना शुरू किया, जो अभी तक जारी है। उनके पहले अलबम शाह जो रिसालो के बाद से उनकी लोकप्रियता लगातार बढ़ती गई। उनके पति शैख ग़ुलाम हुसैन भी रेडियो प्रोड्यूसर और गीतकार हैं।
मोहब्बत एक तड़प है : आबिदा
सदियों से सूफी संत मुहब्बत और प्यार का पैगाम लोगों को दे रहे हैं और यही कारण है कि बदलते वक्त में भी सूफी संतों के कलाम उसी शिद्दत के साथ गाए-गुनगुनाए जाते हैं। जैसे वे पहले-पहल गाए गए होंगे। सूफी संगीत में छुपे मुहब्बत और रूहानियत के पैगाम को युवा संगीत प्रेमी भी बखूबी समझते हंै। यही कारण है कि हाल के दौर में अनेक सूफियाना गीतों ने लोकप्रियता की नई इबारत लिखी है। सुर और ताल की दुनिया में इधर सूफी संगीत को लेकर दीवानगी का आलम है। किसी फिल्म में अगर सूफी संगीत से सजा कोई गीत है तो वह तुरंत हिट हो जाता है, भले ही फिल्म चले या नहीं चले। ऐसे गीत लंबे समय तक संगीत प्रेमियों की जुबान पर भी रहते हैं। जाहिर है कि हिंदी फिल्म उद्योग के संगीतकार अपने गीतों में सूफी संगीत की मधुरता बुन रहे हैं।
और बात जब सूफी संगीत की हो तो आबिदा परवीन के जिक्र के बिना अधूरी ही मानी जाएगी। जानेमाने शायर-गीतकार गुलजार कहते हैं कि, नशा इकहरा ही अच्छा होता है, लेकिन तब क्या किया जाए जब कबीर की रचनाओं के साथ आबिदा परवीन की फकीराना गायकी हो! जाहिर है कि दोनों का अपना नशा है जो सुनने वाले के सिर चढ़कर बोलता है। और न सिर्फ कबीर बल्कि अमीर खुसरो, हजरत वारिस शाह, बाबा बुल्ले शाह और हजरत सचल सरमस्त के लिखे सूफी कलामों को आबिदा की आवाज में सुनने का अलग ही लुत्फ आता है।
आबिदा की गायकी में हर एक के लिए कुछ न कुछ है। जो सीधे, सरल श्रोता हैं उनके लिए 'जब से तूने मुझे दीवाना बना रखा है/ संग हर शख्स ने हाथों में उठा रखा हैÓ जैसा कलाम ही सिर धुनने के लिए काफी है। या फिर 'मन लागो यार फकीरी मेंÓ सुन लीजिए। जितनी बार सुनेंगे, डूबते चले जाएंगे। 'ढूंढ़ोगे हमें मुल्कों मुल्कों/ मिलने के नहीं नायाब हैं हमÓ-कुछ इसी अंदाज में आबिदा परवीन ने सरदहों के घेरों को पार करते हुए अपनी गायकी से हर संगीत प्रेमी को दीवाना बनाया है। उनका एलबम 'सूफी क्वीन-द बेस्ट ऑफ आबिदा परवीनÓ इसी सच्चाई से एक बार फिर हमें रूबरू कराता है। चार सीडी के इस एलबम में कुल जमा सत्ताइस बंदिशें हैं जो आबिदा की आवाज में यूं खिल उठती हैं जैसे बसंत के आने पर बगीचे में फूल खिलते हैं। गुलजार इस एलबम के सूत्रधार हैं जो आबिदा की गायकी को कुछ इस तरह बयां करते हैं कि हर बंदिश को सुनने से पहले ही आप उसकी गिरफ्त में आ जाते हैं। 'कबीर बाई आबिदाÓ- यह है पहली सीडी का टाइटल। जाहिर है कि इसमें आबिदा ने कबीर की रचनाओं को अपने खास अंदाज में पेश किया है। 'मन लागो यार फकीरी मेंÓ, 'सोऊं तो सपने मिलें,जागूं तो मन माहींÓ, 'साहिब मेरा एक हैÓ और 'भला हुआ मेरी मटकी फूटी रेÓ जैसी बंदिशों को एक बार फिर सुनिए, आप इनके असर से शायद ही बच पाएं। कुछ ऐसा ही हाल तब होता है जब आप आबिदा की गायकी में बाबा बुल्लेशाह के कलाम सुनते हैं। 'अब लगन लागीÓ और 'बुल्ले नू समझावन आयाÓ जैसे छह कलाम जिस सीडी में संजोए गए हैं उसे टाइटल दिया गया है- 'आबिदा-बाबा बुल्ले शाहÓ। तीसरी सीडी का शीर्षक है- 'आबिदा-मेरे दिल सेÓ। इसमें हजरत वारिस शाह, हजरत सचल सरमस्त, हजरत जहीन शाह, हजरत ख्वाजा गुलाम अली और हजरत शाह अब्दुल लतीफ के कलाम हैं। 'जिस दिन के साजन बिछड़े हैंÓ, 'अजब नैन तेरेÓ, 'हैरान हुआÓ और 'तूने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना हुआÓ जैसे कलाम आप बार-बार सुनना चाहेंगे। एलबम की चौथी सीडी का टाइटल है- 'हीर बाई आबिदाÓ। हीर के जितने भी वर्शन हैं, वे इस एलबम में आबिदा की आवाज में जीवंत हो उठते हैं। सूफी संगीत पसंद करने वाले संगीत प्रेमियों के लिए एक अनुपम एलबम।
लोकप्रिय संगीत
- 'चिर कड़ा साईयां दा, तेरी कत्तन वाली जीवेÓ
- 'इक नुक्ते विच गल मकदी एÓ
'जब से तूने मुझे दीवाना बना रखा है, संग हर शखूश ने हाथों में उठा रखा हैÓ
- ढ़ूंढोगे हमें मुल्कों-मुल्कों, मिलने के नहीं नायाब हैं हम..
- 'जिस दिन के साजन बिछड़े हैंÓ
- 'अजब नैन तेरेÓ
- 'तूने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना हुआÓ।
आबिदा के एलबम
1. 'कबीर बाई आबिदाÓ
2. 'आबिदा-बाबा बुल्ले शाहÓ
3. 'आबिदा-मेरे दिल सेÓ
4. 'हीर बाई आबिदाÓ
पाकिस्तान की 56 साल की आबिदा परवीन एशिया और एशिया से बाहर सूफी गायकी के लिए जानी जाती हैं। सूफी गायन के क्षेत्र में उन्हें नुसरत फतेह अली खान का उत्तराधिकारी भी कहा जाता है। लरकाना के मुहल्ले अली गौहराबाद के हैदर शाह की बेटी आबिदा ने 9 साल की उम्र से ही गाना शुरू किया, जो अभी तक जारी है। उनके पहले अलबम शाह जो रिसालो के बाद से उनकी लोकप्रियता लगातार बढ़ती गई। उनके पति शैख ग़ुलाम हुसैन भी रेडियो प्रोड्यूसर और गीतकार हैं।
मोहब्बत एक तड़प है : आबिदा
मकबूल पाकिस्तानी सूफी गायिका आबिदा परवीन की राय में संगीत खुदा का पैगाम है, जो किसी भी सूरत में शरीयत के खिलाफ नहीं है। सुर किसी इंसान ने नहीं बनाए हैं बल्कि इसमें पूरी कायनात की आवा•ा है। मुझे ऐसा लगता है कि शरीयत के पहले सुर वजूद में आ गए थे। शरीयत में कहा गया है कि अ•ाान भी सुरीले तरीके से पढ़ें और सुर तो शरीयत से पहले से हैं। अल्लाह कभी मोहब्बत की मुखालफत नहीं करता और इबादत दरअसल मोहब्बत ही है। जिसे हम आलाप कहते हैं वह दरअसल अल्ला आप हैं। मैं तो समझती हूं दोनों मुल्कों के बीच अमन का पुल बनाने का काम संगीत ही कर सकता है और दोनों मुल्कों की जनता के बीच रिश्ते बेहद अच्छे हैं। शायद हमारे रहनुमा भी इससे वाकिफ हैं, तभी तो हमें हिन्दुस्तान आने का वीजा देते हैं।
आबिदा परवीन ने कहा कि आतंकवाद कोई नई ची•ा नहीं है। यह सब तो काफी वक्त से चला आ रहा है, लेकिन मोहब्बत से बड़ा कोई हथियार नहीं है। इसके बल पर पूरी दुनिया को फतह किया जा सकता है। सूफी संगीत को व्यावसायिक नहीं करेंगे तो इसे पूरे जहां तक किस तरह पहुंचाया जाएगा और फिर कलाकार को भी तो अपना घर चलाना है। मेरी तो ख्वाहिश है कि यह सभी के पास तक पहुंचे। अल्लाह के साथ हर वक्त संबंध रखना चाहिए। यह आपकी नीयत पर निर्भर करता है कि आप खुदा को रूह में किस तरह महसूस करते हैं। सुरों से जुड़ाव की जुस्तजू की कोशिश हर वक्त जारी रहनी चाहिए। लोगों को उस रास्ते पर जाना चाहिए, जहां अल्लाह की करम नवाजिश हो। संगीत को खुदा का पैगाम बताते हुए आबिदा परवीन ने कहा कि परवरदिगार ही इस जहां का असली शहंशाह है। किसी मजलिस में जाने से पहले मौला के आगे दुआ मांगकर बैठती हूं और उसी मौला का करम होता है तो मुझे सुनने वालों की इतनी मोहब्बत मिलती है। हमारे सिंध में कलाम को जिस तरह से पढ़ा जाता है, वह पूरी दुनिया से एकदम अलग है। मैं हर गायक से मुतासिर होती हूं और इसे किसी भी तरह धन से नहीं नापा जा सकता। इससे भी मोहब्बत का लेनदेन होता है। अपने पसंदीदा फनकारों के बारे में उन्होंने कहा कि मुझे किशोरी अमोनकर, परवीना सुल्ताना, उस्ताद अमजद अली खान, बड़े गुलाम अली खान साहब और अमीर खान साहब को सुनना बेहद पसंद है और इनके रिकॉर्ड मैं घंटों सुनती रहती हूं। उन्होंने कहा कि फन का कैनवास बहुत बड़ा है। लायक लोग गलतियां नहीं निकालेंगे तो फनकार में सुधार कैसे होगा। मैं खुदा की बहुत शुक्रगुजार हूं कि मुझे ऐसे लोगों की सरपरस्ती मिली जिन्होंने मौसिकी के लिए पूरी जिंदगी लगा दी।
आबिदा परवीन ने कहा कि आतंकवाद कोई नई ची•ा नहीं है। यह सब तो काफी वक्त से चला आ रहा है, लेकिन मोहब्बत से बड़ा कोई हथियार नहीं है। इसके बल पर पूरी दुनिया को फतह किया जा सकता है। सूफी संगीत को व्यावसायिक नहीं करेंगे तो इसे पूरे जहां तक किस तरह पहुंचाया जाएगा और फिर कलाकार को भी तो अपना घर चलाना है। मेरी तो ख्वाहिश है कि यह सभी के पास तक पहुंचे। अल्लाह के साथ हर वक्त संबंध रखना चाहिए। यह आपकी नीयत पर निर्भर करता है कि आप खुदा को रूह में किस तरह महसूस करते हैं। सुरों से जुड़ाव की जुस्तजू की कोशिश हर वक्त जारी रहनी चाहिए। लोगों को उस रास्ते पर जाना चाहिए, जहां अल्लाह की करम नवाजिश हो। संगीत को खुदा का पैगाम बताते हुए आबिदा परवीन ने कहा कि परवरदिगार ही इस जहां का असली शहंशाह है। किसी मजलिस में जाने से पहले मौला के आगे दुआ मांगकर बैठती हूं और उसी मौला का करम होता है तो मुझे सुनने वालों की इतनी मोहब्बत मिलती है। हमारे सिंध में कलाम को जिस तरह से पढ़ा जाता है, वह पूरी दुनिया से एकदम अलग है। मैं हर गायक से मुतासिर होती हूं और इसे किसी भी तरह धन से नहीं नापा जा सकता। इससे भी मोहब्बत का लेनदेन होता है। अपने पसंदीदा फनकारों के बारे में उन्होंने कहा कि मुझे किशोरी अमोनकर, परवीना सुल्ताना, उस्ताद अमजद अली खान, बड़े गुलाम अली खान साहब और अमीर खान साहब को सुनना बेहद पसंद है और इनके रिकॉर्ड मैं घंटों सुनती रहती हूं। उन्होंने कहा कि फन का कैनवास बहुत बड़ा है। लायक लोग गलतियां नहीं निकालेंगे तो फनकार में सुधार कैसे होगा। मैं खुदा की बहुत शुक्रगुजार हूं कि मुझे ऐसे लोगों की सरपरस्ती मिली जिन्होंने मौसिकी के लिए पूरी जिंदगी लगा दी।
उनके पसंदीदा कलाम के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि कलाम सभी अच्छे होते हैं सूफी संगीत तड़प का नाम है। सूफी शायरी इंसानियत की जड़ों को म•ाबूत करता है, जो दिल नहीं तड़पता, वह दिल नहीं है। दिल को सुरों में ढाला जाना चाहिए, जिसमें पाकिजगी होगी, वहीं से सच्चाई की बात शुरू होती है। मोहब्बत भी एक तड़प ही है। खुदा तो लोगों के दिलों में है, बस उसे बाहर लाने वाला हो।
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