नारायण बारेठ का बी बी सी में आज प्रकाशित विशेष आलेख साभार
नारायण बारेठ
जयपुर से बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
ना कोई उनकी माली हैसियत है और न ही वो बड़ी सामाजिक हस्ती है. लेकिन राजस्थान के भीलवाड़ा में गोपाल जाट और मोहम्मद उमर मंसूरी का ‘राम रहीम सेवा दल’ बुजुर्ग और बे-सहारा औरतो के लिए एक मिसाल बना हुआ है.
वे इन उपेक्षित महिलाओं को तीर्थ यात्रा पर ले जाते है. साथ ही, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में किसी बेटे की मांनिद ख़िदमत भी करते हैं. अभी उनकी देखभाल में 32 महिलाएं हैं.इन महिलाओं की सेवा ख़ुद गोपाल और मंसूरी के लिए तीर्थ बन गया है. इनमें गोपाल भीलवाड़ा में पारचून की दुकान पर साढ़े चार हज़ार मासिक पगार के वेतन भोगी है तो मंसूरी पहले धानमंडी में हम्माल थे, अब वेल्डिंग का काम करते है.
मदद की चाहत
वे धनवान लोगों से मदद की गुहार करते हैं और इन महिलाओं की ख़िदमत करते है. वहां हर जाति-धर्म और सामाजिक दर्जे की महिलाएं हैं.इन महिलाओं की जुबान पर गाँधी का प्रिय भजन 'इश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सम्मति दे भगवान' गुंजता रहता है.
ये महिलाएं गोपाल और मंसूरी के साथ एक बस में सवार होकर हिन्दू धर्म स्थलों और इस्लाम में पवित्र मानी गई इबादतगाहों की यात्रा कर चुकी हैं.
प्रेम देवी ने अजमेर दरगाह में ज़ियारत की तो शरीफान ने हिन्दू तीर्थ पुष्कर में उनका साथ दिया.
इन महिलाओं में ज्यादातर ग़रीब परिवारों से है. किसी को परिवार ने निकाल दिया तो किसी का कोई परवरिश करने वाला नहीं है.
'सगे हैं दोनों'
राम रहीम आश्रम में तीस महिलाएं रहती हैं
मगर गोपाल और मंसूरी इन बेसहारा औरतों के लिए किसी बेटे से कम नहीं हैं.
प्रेम देवी के परिवार में अब कोई नहीं है,'' हम इन दोनों का एहसान नहीं भूल सकते. ये हमें तीर्थ ले जाते है, खाने-पीने का ख्याल रखते है. बीमार हो तो दवा का इंतज़ाम करते है.”
शरीफन के पति अब इस दुनिया में नहीं है और बेटा दुर्घटना में चल बसा. शरीफन की नज़र कमज़ोर है.मगर उनकी निगाह में गोपाल और मंसूरी बेटे की तरह बसे रहते हैं,गोया ये दोनों ही उनकी आँखे हो गई हो.
शरीफन के अनुसार, “हमारे लिए ये बेटे हैं, भाई हैं.ये हमारी ख़िदमत करते हैं.हिन्दू या मुस्लिम की कोई बात नहीं. ये दोनों तो हमारे सगे बेटे जैसे हैं. जब भी ख्याल आता है, इन दोनों के लिये दिल से दुआ निकलती है.”
बोली देवी को बेटों ने उन्हें अपने भाग्य पर छोड़ दिया. वो कहती हैं, “ये दोनों हमें हरिद्वार, रामदेवरा, शिव मंदिर, जोगनिया माता और दरगाहों पर यात्रा करा लाए, ये बड़ा पुण्य का काम है. ये न केवल रोटी देते हैं, बल्कि अपनों से भी ज्यादा ख्याल रखते हैं.”
"कोई दस साल पहले मैंने देखा कि दो-तीन गरीब औरतों को उनकी संतान ने घरों से निकल दिया. वो बे-सहरा थी, मैं उनका सहारा बना.फिर मैंने पांच औरतों के साथ ये काम शुरू किया, आज कोई बत्तीस महिलाएं हैं जिनकी हम सेवा कर रहे हैं. इनमे चौदह मुस्लिम हैं, बाकी हिन्दू हैं"
राम रहीम चलाने वाले गोपाल
कोई दस साल पहले गोपाल जाट ने ये काम शुरू किया था. उन्हें किसी राजनेता ने ऐसी सीख नहीं दी, न ही उन्होंने किसी सियासी पार्टी का 'घोषणा पत्र' पढ़ी. भारत की उदात्त सामाजिक परम्परा की विरासत उन्हें इस मुकाम पर ले गई.
बेसहारा का सहारा
गोपाल इसे तफ़सील से बताते हैं, ''कोई दस साल पहले मैंने देखा कि दो-तीन ग़रीब औरतों को उनकी संतान ने घरों से निकल दिया. वो बे-सहरा थी, मैं उनका सहारा बना.फिर मैंने पांच औरतों के साथ ये काम शुरू किया, आज कोई बत्तीस महिलाएं हैं जिनकी हम सेवा कर रहे हैं. इनमे चौदह मुस्लिम हैं, बाक़ी हिन्दू हैं.”
गोपाल बताते हैं कि वो दानदाताओं के आगे झोली फैलाते हैं, इनके लिए भोजन- सामग्री, कपड़े, दवा आदि का इंतज़ाम करते हैं.
भीलवाड़ा ने साम्प्रदायिक तनाव के लम्हे बहुत देखे हैं. कोई वहां नफ़रत की इबारत लिखता है तो कोई मुहब्बत का पैग़ाम पढ़ता है.
मोहम्मद उमर मंसूरी पहले हम्माली करते थे, बोझा उठाते थे. अब तरक्की हुई तो वेल्डिंग करने लगे.
वो गोपाल की इस सद्भाव यात्रा के प्रमुख सिपाही है. मंसूरी अपनी भूमिका बताते हैं, ''गोपाल जो मुझे काम बताते हैं, मैं करता चला जाता हूं. इससे सुकून मिलता है.धर्म की कोई बात नहीं, राम और रहीम एक ही हैं. ख़ून सबका एक है, अच्छे लोग कभी भेदभाव की बात नहीं करते. इसीलिए हमने 'राम रहीम' नाम रखा ताकि दुनिया को लगे कि हम सब एक है.”
ना कोई धर्म का भेद,न उंच-नीच की दीवारें.ये औरतें मन्दिर, देवरे, दरगाह और खानकाहो पर साथ गईं. किसी ने नहीं कहा कि इश्वर बड़ा है या अल्लाह .क्योंकि माँ का धर्म तो ममता और मानवता होता है. इनमें से एक बेगम कहती है, “हमें कभी यह नहीं लगा कि हम अलग-अलग धर्म के हैं.”
उम्र के इस पड़ाव पर इन औरतों के सामने अँधेरा था. वे एकाकी थीं,उपेक्षित थीं. मगर जब राम और रहीम मिले तो हर माँ के चेहरे की सलवटें रोशनी से भर गई. फिर इन औरतों ने समवेत स्वर में गाया तो लगा आरती और अज़ान की आवाज़ में कोई फ़ासला नहीं होता.
वे इन उपेक्षित महिलाओं को तीर्थ यात्रा पर ले जाते है. साथ ही, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में किसी बेटे की मांनिद ख़िदमत भी करते हैं. अभी उनकी देखभाल में 32 महिलाएं हैं.इन महिलाओं की सेवा ख़ुद गोपाल और मंसूरी के लिए तीर्थ बन गया है. इनमें गोपाल भीलवाड़ा में पारचून की दुकान पर साढ़े चार हज़ार मासिक पगार के वेतन भोगी है तो मंसूरी पहले धानमंडी में हम्माल थे, अब वेल्डिंग का काम करते है.
मदद की चाहत
वे धनवान लोगों से मदद की गुहार करते हैं और इन महिलाओं की ख़िदमत करते है. वहां हर जाति-धर्म और सामाजिक दर्जे की महिलाएं हैं.इन महिलाओं की जुबान पर गाँधी का प्रिय भजन 'इश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सम्मति दे भगवान' गुंजता रहता है.
ये महिलाएं गोपाल और मंसूरी के साथ एक बस में सवार होकर हिन्दू धर्म स्थलों और इस्लाम में पवित्र मानी गई इबादतगाहों की यात्रा कर चुकी हैं.
प्रेम देवी ने अजमेर दरगाह में ज़ियारत की तो शरीफान ने हिन्दू तीर्थ पुष्कर में उनका साथ दिया.
इन महिलाओं में ज्यादातर ग़रीब परिवारों से है. किसी को परिवार ने निकाल दिया तो किसी का कोई परवरिश करने वाला नहीं है.
'सगे हैं दोनों'
राम रहीम आश्रम में तीस महिलाएं रहती हैं
मगर गोपाल और मंसूरी इन बेसहारा औरतों के लिए किसी बेटे से कम नहीं हैं.
प्रेम देवी के परिवार में अब कोई नहीं है,'' हम इन दोनों का एहसान नहीं भूल सकते. ये हमें तीर्थ ले जाते है, खाने-पीने का ख्याल रखते है. बीमार हो तो दवा का इंतज़ाम करते है.”
शरीफन के पति अब इस दुनिया में नहीं है और बेटा दुर्घटना में चल बसा. शरीफन की नज़र कमज़ोर है.मगर उनकी निगाह में गोपाल और मंसूरी बेटे की तरह बसे रहते हैं,गोया ये दोनों ही उनकी आँखे हो गई हो.
शरीफन के अनुसार, “हमारे लिए ये बेटे हैं, भाई हैं.ये हमारी ख़िदमत करते हैं.हिन्दू या मुस्लिम की कोई बात नहीं. ये दोनों तो हमारे सगे बेटे जैसे हैं. जब भी ख्याल आता है, इन दोनों के लिये दिल से दुआ निकलती है.”
बोली देवी को बेटों ने उन्हें अपने भाग्य पर छोड़ दिया. वो कहती हैं, “ये दोनों हमें हरिद्वार, रामदेवरा, शिव मंदिर, जोगनिया माता और दरगाहों पर यात्रा करा लाए, ये बड़ा पुण्य का काम है. ये न केवल रोटी देते हैं, बल्कि अपनों से भी ज्यादा ख्याल रखते हैं.”
"कोई दस साल पहले मैंने देखा कि दो-तीन गरीब औरतों को उनकी संतान ने घरों से निकल दिया. वो बे-सहरा थी, मैं उनका सहारा बना.फिर मैंने पांच औरतों के साथ ये काम शुरू किया, आज कोई बत्तीस महिलाएं हैं जिनकी हम सेवा कर रहे हैं. इनमे चौदह मुस्लिम हैं, बाकी हिन्दू हैं"
राम रहीम चलाने वाले गोपाल
कोई दस साल पहले गोपाल जाट ने ये काम शुरू किया था. उन्हें किसी राजनेता ने ऐसी सीख नहीं दी, न ही उन्होंने किसी सियासी पार्टी का 'घोषणा पत्र' पढ़ी. भारत की उदात्त सामाजिक परम्परा की विरासत उन्हें इस मुकाम पर ले गई.
बेसहारा का सहारा
गोपाल इसे तफ़सील से बताते हैं, ''कोई दस साल पहले मैंने देखा कि दो-तीन ग़रीब औरतों को उनकी संतान ने घरों से निकल दिया. वो बे-सहरा थी, मैं उनका सहारा बना.फिर मैंने पांच औरतों के साथ ये काम शुरू किया, आज कोई बत्तीस महिलाएं हैं जिनकी हम सेवा कर रहे हैं. इनमे चौदह मुस्लिम हैं, बाक़ी हिन्दू हैं.”
गोपाल बताते हैं कि वो दानदाताओं के आगे झोली फैलाते हैं, इनके लिए भोजन- सामग्री, कपड़े, दवा आदि का इंतज़ाम करते हैं.
भीलवाड़ा ने साम्प्रदायिक तनाव के लम्हे बहुत देखे हैं. कोई वहां नफ़रत की इबारत लिखता है तो कोई मुहब्बत का पैग़ाम पढ़ता है.
मोहम्मद उमर मंसूरी पहले हम्माली करते थे, बोझा उठाते थे. अब तरक्की हुई तो वेल्डिंग करने लगे.
वो गोपाल की इस सद्भाव यात्रा के प्रमुख सिपाही है. मंसूरी अपनी भूमिका बताते हैं, ''गोपाल जो मुझे काम बताते हैं, मैं करता चला जाता हूं. इससे सुकून मिलता है.धर्म की कोई बात नहीं, राम और रहीम एक ही हैं. ख़ून सबका एक है, अच्छे लोग कभी भेदभाव की बात नहीं करते. इसीलिए हमने 'राम रहीम' नाम रखा ताकि दुनिया को लगे कि हम सब एक है.”
ना कोई धर्म का भेद,न उंच-नीच की दीवारें.ये औरतें मन्दिर, देवरे, दरगाह और खानकाहो पर साथ गईं. किसी ने नहीं कहा कि इश्वर बड़ा है या अल्लाह .क्योंकि माँ का धर्म तो ममता और मानवता होता है. इनमें से एक बेगम कहती है, “हमें कभी यह नहीं लगा कि हम अलग-अलग धर्म के हैं.”
उम्र के इस पड़ाव पर इन औरतों के सामने अँधेरा था. वे एकाकी थीं,उपेक्षित थीं. मगर जब राम और रहीम मिले तो हर माँ के चेहरे की सलवटें रोशनी से भर गई. फिर इन औरतों ने समवेत स्वर में गाया तो लगा आरती और अज़ान की आवाज़ में कोई फ़ासला नहीं होता.
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