शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

मरूधरा का महान संत कवि इसरा परमेश्वरा


कवि संत ईसरदास बारहठ की 554 वें जन्मोत्सव पर विशोश आलेख 


मरूधरा का महान संत कवि इसरा परमेश्वरा 

चन्दनसिह भाटी 


बाडमेर जिले में भक्ति रस कें कवि संत ईसरदास की मान्यता राजस्थान एवं गुजरात में रही संत रोहडिया भाखा के चारण कवि ईसरदास का जन्म बाडमेर के भादरेस में विक्रम संवत 1595 में हुआ था।इनके जन्म संवत की पुश्टि करने वाला यह दोहा बडा प्रसिद्ध हैं 
पनरासौ पिचयाणवै ,जन्मो ईसरदास। 
चारण वरण चकोर में ,इण दिन हुवौ उजास॥ 
चारण जाति में कवि ईसरदास का नाम के प्रति बडी श्रद्घा और आस्था हैं।उनके जन्म स्थल भादरेस में भव्य मन्दिर इसका प्रमाण हैं। जहॉ प्रति वशर बडा मेला लगता हैं। 
ईसरदास प्रणीत भक्ति रचनाओं में हरिरस,बाल लीला ,छोटा हरिरस,गुण भागवतहंस,देवियाण,रास कैला,सभा पर्व,गरूड पुराण,गुण आगम,दाण लीला आदि लोक.प्रसिद्ध.रचनाऐं हैं। 
हरिरस ग्रन्थ को अनूठे रसायन की संज्ञा दी गई हैं। 
सरब रसायन में सरस,हरिरस सभी ना कोई। 
हेक घडी घर में रहे,सह घर कंचन होस॥ 
हरिरस ग्रन्थ को सब रसों का सिरमौर बताया बताया गया हैं। 
हरिरस हरिरस हैक हैं,अनरस अनरस आंण। 
विण हरिरस हरि भगति विण,जनम वृथा कर जाण॥ 
हरिरस एकोपासना का दिव्य आदार प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ हैं जिसमें सगुण और निर्गुण भक्ति का समन्वय का भक्ति के क्षैत्र में उत्पन्न वैशम्य को मिटानें का स्तुल्य प्रयास किया गया हैं। 
हरि हरि करंता हरख कर,अरे जीव अणबूझ। 
पारय लाधो ओ प्रगट,तन मानव में तूझ॥ 
नारायण ना विसरिये,नित प्रत लीजै नांम। 
जे साधो मिनखां जनम,करियै उत्तम काम॥ 
ईसरदास के मध्य कालीन साहित्य में वीर ,भक्ति टौर श्रृंगार रस की ि़त्रवेणी 
का अपूर्वयसंगम हुआ हैं।इनके साहित्य में वीर रस के साथ साथ भक्ति की भी उच्च कोटि की रचनाऐं प्रस्तुत की हैं।भक्ति कवि ईसरदास का हरिरस भक्ति की महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं तो तो उनकी रचना हाळा झाळा री कुण्डळियॉ वीर रस की सर्वश्रैश्ठ कृतियों में गिनी जाती हैं। यह छोटी पचना होते हुऐ भी डिंगळ का वीर रसात्मक काव्य कृतियों में सर्वश्रैश्ठ मानी जाती हैं।काव्य कला की दृश्टि यें इनके द्घारा रचे गये गीत भी साधारण महत्व कें नही हैं।उनकें उपलब्ध गीतों के नाम इस प्रकार हेैं गीत सरवहिया बीजा दूदावत रा ,बीत करण बीजावत रा,गीत जाम रावळ लाखावत रा,आदि। ईसरदास उन गीत रचियताओं में से हैं ,जो अपने भावों को विद्धतापूर्ण ंग से प्रकट करतें हुऐं भी व्यर्थ के भाब्द जंजाल तथा पांडिल्य प्रदार्न से दूर रहे हैं। ईसरदास का रचनाकाल 16 वीं भाताब्दी का प्रथम चरण हैं।इस समय में पुरानी पिचती राजस्थान ने अपना रूवतंत्र रूप निर्माण कर लिया था।अत; भाशा के अध्ययन की स्फूट गीत रचनाऐंब डा महत्व रखती हैं। ईसरदास मुख्यत; भक्तकवि हैं।इसलिए उन्होने अपनी वीर ेरसात्मक रचनाओं में किसी प्रकार के अर्थ लाभ का व्यवहारिक लगाव न रखते हुऐ सर्वथा स्वतंत्र और सच्ची अभिव्यक्ति प्रदान की हैं। 
नक्र तीह निवाण निबळ दाय नावै,सदा बसे तटि जिके समंद। 
मन वीजै ठाकुरै न मानै,रावळ ओळगिये राजिंद॥ 
भेट्यो जैह धणी भाद्रेसर,चक्रवत अवर चै नह चीत। 
वस विळास मळेतर वासी,परिमळ बीजै करै न प्रीत ॥ 
सेवग ताहरा लखा समोभ्रम,अधिपति बीजा थया अनूप। 
श्रइ कि करै अवर नदि रावळ,रेखा नदी तणा गज रूप॥ 
क्वि तो राता धमळ कळोधर,भवठि भंजण लीळ भुवाळ। 
लुहवै सरै बसंता लाजै,माण्सरोवर तणा मुणाल॥ 

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