क्योँ जीतेंगे जसवंत सिंह ..देखे खास रिपोर्ट
राष्ट्रपति चुनाव में अंतिम समय तक अनिर्णय ओर असमंजस में रहने का परिणाम भाजपा ने अपने नेतृत्व वाले राजग के अंदर संप्रग के उम्मीदवर प्रणब मुखर्जी को लेकर विभाजन के रूप में भुगता और कटु आलोचनाएं झेलीं. यकीनन पार्टी ने इससे सबक लिया और उपराष्ट्रपति के नाम पर सर्वसम्मति से जसवंत सिंह की उम्मीदवारी की घोषणा के साथ राष्ट्रपति चुनाव की अनेकता एकता में बदल गई.
इस प्रकार तत्काल यह मानने में हर्ज नहीं है कि उपराष्ट्रपति चुनावद्वारा अगले लोकसभा चुनाव की दृष्टि से राजग ने एकजुटता का संदेश दिया है और राष्ट्रपति चुनाव में अलग-अलग मतदान से निकले संदेश पर पूर्णविराम लगा है. इस नाते यह उपराष्ट्रपति चुनाव भारत के राजनीतिक इतिहास का पहला ऐसा चुनाव होता दिख रहा है जिससे भविष्य की राजनीति की दिशा का संकेत मिल सकता है.
निर्वाचक मंडल के रूप में दोनों सदनों की सदस्य संख्या देखते हुए जसवंत सिंह और वर्तमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के बीच मुकाबले के परिणाम को लेकर इस समय किसी को संदेह नहीं है. निर्वाचन नियमानुसार मतदान करने वाले सांसदों के आधे से एक अधिक जिसके पक्ष में मतदान करेंगे उसकी विजय हो जाएगी.
कुल 790 के निर्वाचक मंडल में यदि मतदान बिल्कुल राजनीतिक समीकरण के अनुरूप हुआ तो हामिद अंसारी के पक्ष में बहुमत आ जाएगा. किंतु मुकाबले का राजनीतिक महत्व है. आखिर संप्रग ने अंसारी को दोबारा मैदान में उतारकर इतिहास रचा है. केवल डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिन्हें दोबारा उपराष्ट्रपति बनाया गया था.
वह भी इसलिए, क्योंकि जवाहरलाल नेहरू की अनिच्छा के बावजूद कांग्रेस पार्टी का बहुमत डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को राष्ट्रपति के रूप में दूसरा कार्यकाल देना चाहता था. प. नेहरू राधाकृष्णन को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, इसलिए उन्हें दूसरा कार्यकाल देना मुनासिब समझा गया. हालांकि राधाकृष्णन ने आरंभ में इंकार किया, लेकिन अंतत: मान गए.
हामिद अंसारी निश्चय ही इस समय स्वयं को महान शिक्षाविद् एवं भारतीय सभ्यता-संस्कृति के प्रकांड विद्वान डॉ. राधाकृष्णन की पंक्ति में खड़ा पाकर गौरवबोध से भरे होंगे. उपराष्ट्रपति बनने के बाद उनके लिए अगली बार राष्ट्रपति पद तक पहुंचने की उम्मीद फिर कायम हो सकती है.
किंतु वे न भूलें कि संप्रग ने उन्हें मजबूरी में दोबारा कार्यकाल दिया है. अगले लोकसभा चुनाव में अल्पसंख्यक खासकर मुसलमान मतों को अपने पक्ष में लाने के लिए कांग्रेस ने हामिद अंसारी को बनाए रखने का निर्णय लिया है.कांग्रेस के पास यह संदेश देने का आधार होगा कि अगर राष्ट्रपति नहीं बनाया तो उपराष्ट्रपति बनाए रखा.
सच यह है कि हामिद अंसारी का कार्यकाल अन्य पूर्व उपराष्ट्रपतियों की तुलना में प्रशंसनीय नहीं रहा है. राज्यसभा में मार्शल का प्रयोग एवं 2011 के अंत में लोकपाल विधेयक पर बहस के दौरान सदन की कार्यवाही अनिश्चित काल तक स्थगित करने के निर्णय ने उन्हें विवादास्पद बना दिया. इसके पहले के रिकॉर्ड में उपराष्ट्रपति के विवादित होने का प्रसंग शायद ही मिलेगा.
व्यक्तित्व के तौर पर तुलना करें तो जसवंत का एक वरिष्ठ राजनेता के रूप में बेहतर रिकॉर्ड है और कंधार में सरकार के निर्णय के अनुसार हवाई जहाज पर बंधकों को लाने के लिए तीन आतंकवादियों को साथ लेकर जाने की भूमिका के अलावा सामान्य राजनीति की दृष्टि से कोई नकारात्मक बिन्दु उनके राजनीतिक करियर का नहीं है. भाजपा में होते हुए भी उन्हें पुराने जनसंघी श्रेणी की विचारधारा से आबद्ध नहीं माना जाता है.
संविधान के प्रावधान एवं व्यवहार को देखते हुए सामान्यत: उपराष्ट्रपति की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण नहीं लगती कि उस पद के लिए ऐसी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की कल्पना की जाए. किंतु यह सच नहीं है. तीन ऐसे पहलू हैं जिनके आधार पर उपराष्ट्रपति पद के महत्व का प्रतिपादन होता है.
पहला, राज्यसभा के पदेन सभापति होने के कारण उपराष्ट्रपति की मुख्य भूमिका सदन के संचालन की है. विखंडित राजनीति के दौर में सरकार के लिए राज्यसभा के सभापति की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है. हालांकि एक बार सभापति के पद पर बैठने के बाद दल और विचार की सीमा से ऊपर उठकर आचरण की उम्मीद की जाती है और ज्यादातर सभापति इस कसौटी पर खरे उतरे हैं.
बावजूद इसके यह सामान्य धारणा है कि अगर सभापति अपने अनुकूल हों तो सरकार के लिए विधेयकों को पारित कराना थोड़ा आसान हो जाता है और बहस के दौरान उभरी प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटने में भी सुविधा होती है. हालांकि यह सोच दुर्भाग्यपूर्ण है, पर वर्तमान राजनीति की सोच का यही कटु सच है. ऐसा न हो तो फिर सर्वसम्मति से कोई उपराष्ट्रपति चुन लिया जाए, क्योंकि सभापति की कुर्सी पर बैठने के बाद भूमिका निष्पक्ष होगी. जाहिर है, भारतीय राजनीति के पतन ने इस आम धारणा के विपरीत संदेह का मनोविज्ञान निर्मित किया है.
दूसरा, आजादी के बाद सामान्यत: उपराष्ट्रपति को अगले राष्ट्रपति के रूप में देखा जाता रहा है. आरंभ के तीनों उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन, जाकिर हुसैन और वराह गिरि वेंकट गिरि उपराष्ट्रपति के बाद राष्ट्रपति बने. हालांकि यह परंपरा टूटी और गोपाल स्वरूप पाठक, बासप्पा दानप्पा जत्ती व मो. हिदायतुल्ला को राष्ट्रपति बनने का सौभाग्य नहीं मिला किंतु इसका कारण तत्कालीन राजनीति थी.
गोपाल स्वरूप पाठक को इंदिरा गांधी तत्कालीन कांग्रेस की सिंडिकेट राजनीति के कारण पसंद नहीं करतीं थीं. 1977 में जनता पार्टी की सरकार के समय जत्ती कार्यवाहक राष्ट्रपति थे. जनता पार्टी उन्हें उम्मीदवार नहीं बना सकती थी. हिदायतुल्ला जनता पार्टी द्वारा निर्वाचित थे, इसलिए कांग्रेस उन्हें मौका नहीं दे सकती थी. बाद में फिर आर. वेंकटरमण, शंकर दयाल शर्मा एवं के. आर. नारायण राष्ट्रपति पद तक पहुंचे.
कृष्णकांत से यह परंपरा फिर टूटी और उनके बाद भैरोसिंह शेखावत और अब हामिद अंसारी को लगातार यह अवसर नहीं मिला. इन तीनों को भी विखंडिज राजनीति की विवशता के कारण ही मौका नहीं मिला. किंतु कौन जानता है, आगे फिर उस परंपरा का पालन हो. इसलिए आज भी उपराष्ट्रपति पद को राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने की पहली सीढ़ी के रूप में देखा जाना अस्वाभाविक नहीं है.
उप राष्ट्रपति की महत्ता का तीसरा पहलू है राष्ट्रपति के निधन, हटाए जाने या इस्तीफे के कारण कार्यवाहक राष्ट्रपति की भूमिका निभाना. भारत के इतिहास में ऐसा तीन बार हुआ है.
1969 में डॉ. जाकिर हुसैन के आकस्मिक निधन के बाद बी. बी. गिरि कार्यवाहक राष्ट्रपति बने और 1976 में फखरुद्दीन अली अहमद की मृत्यु के बाद बासप्पा दानप्पा जत्ती. वह आजादी के बाद भारतीय राजनीति का अत्यंत महत्वपूर्ण या युगांतकारी चरण था.
आपातकाल का अंत उनके कार्यकाल में हुआ और 1977 के आम चुनाव के बाद केन्द्र में पहली बार गैर कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार अस्तित्व में आई. यहां तक उनकी भूमिका खास नहीं थी, किंतु जब जनता पार्टी सरकार ने नौ राज्यों की कांग्रेस सरकारों को भंग करने का फैसला किया तो उस पर राष्ट्रपति की मुहर आवश्यक थी. जत्ती ने ऐसा करने से इन्कार किया और पहली बार मंत्रिमंडल का प्रस्ताव वापस हो गया.
यह अलग बात है कि बाद में उन्हें ऐसा करना पड़ा, क्योंकि संविधान के अनुसार सरकार के दोबारा निर्णय के बाद उनके पास कोई चारा नहीं था. वैसे मो. हिदायतुल्ला को भी 1982 में 25 दिनों तक राष्ट्रपति बनने का अवसर मिला, लेकिन उस दौरान कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ.
तो यह नहीं माना जा सकता है कि उप राष्ट्रपति का पद महत्वपूर्ण भूमिकाओं से रहित है. जत्ती को तो कल्पना भी नहीं रही होगी कि उन्हें आपातकाल के अंत के निर्णय पर मुहर लगानी होगी और बाद में जनता पार्टी की सरकार के साथ तनाव मोल लेना होगा. किंतु ऐसा हुआ.
देश के लिए ऐसा क्षण कभी भी आ सकता है जब उपराष्ट्रपति को ऐतिहासिक भूमिका निभानी पड़ सकती है. सदन के संचालन में वित्त विधेयक को छोड़कर सारे विधेयकों को कानून बनने से पहले राज्यसभा में पारित होना अनिवार्य है. कई बार तो विधेयक लोकसभा से पहले राज्यसभा में ही पेश कर दिया जाता है और वहां जो कुछ होता है उसकी प्रतिध्वनि लोकसभा में गूंजती है.
इसलिए हमारी कामना यही होगी उपराष्ट्रपति के रूप में हमेशा ऐसे सक्षम, समझबूझ वाले ईमानदार और साहसी व्यक्ति का निर्वाचन हो जो कठिन परिस्थितियों में सदन के संचालन से लेकर अनायास मिलने वाली भूमिकाओं का इस तरह निर्वहन करे कि देश में आदर्श भावना का संचार हो. अंसारी जीतें या जसवंत, ये इस कसौटी पर खरा उतरें, यही अपेक्षा हर भारतीय की होगी.
राष्ट्रपति चुनाव में अंतिम समय तक अनिर्णय ओर असमंजस में रहने का परिणाम भाजपा ने अपने नेतृत्व वाले राजग के अंदर संप्रग के उम्मीदवर प्रणब मुखर्जी को लेकर विभाजन के रूप में भुगता और कटु आलोचनाएं झेलीं. यकीनन पार्टी ने इससे सबक लिया और उपराष्ट्रपति के नाम पर सर्वसम्मति से जसवंत सिंह की उम्मीदवारी की घोषणा के साथ राष्ट्रपति चुनाव की अनेकता एकता में बदल गई.
इस प्रकार तत्काल यह मानने में हर्ज नहीं है कि उपराष्ट्रपति चुनावद्वारा अगले लोकसभा चुनाव की दृष्टि से राजग ने एकजुटता का संदेश दिया है और राष्ट्रपति चुनाव में अलग-अलग मतदान से निकले संदेश पर पूर्णविराम लगा है. इस नाते यह उपराष्ट्रपति चुनाव भारत के राजनीतिक इतिहास का पहला ऐसा चुनाव होता दिख रहा है जिससे भविष्य की राजनीति की दिशा का संकेत मिल सकता है.
निर्वाचक मंडल के रूप में दोनों सदनों की सदस्य संख्या देखते हुए जसवंत सिंह और वर्तमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के बीच मुकाबले के परिणाम को लेकर इस समय किसी को संदेह नहीं है. निर्वाचन नियमानुसार मतदान करने वाले सांसदों के आधे से एक अधिक जिसके पक्ष में मतदान करेंगे उसकी विजय हो जाएगी.
कुल 790 के निर्वाचक मंडल में यदि मतदान बिल्कुल राजनीतिक समीकरण के अनुरूप हुआ तो हामिद अंसारी के पक्ष में बहुमत आ जाएगा. किंतु मुकाबले का राजनीतिक महत्व है. आखिर संप्रग ने अंसारी को दोबारा मैदान में उतारकर इतिहास रचा है. केवल डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिन्हें दोबारा उपराष्ट्रपति बनाया गया था.
वह भी इसलिए, क्योंकि जवाहरलाल नेहरू की अनिच्छा के बावजूद कांग्रेस पार्टी का बहुमत डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को राष्ट्रपति के रूप में दूसरा कार्यकाल देना चाहता था. प. नेहरू राधाकृष्णन को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, इसलिए उन्हें दूसरा कार्यकाल देना मुनासिब समझा गया. हालांकि राधाकृष्णन ने आरंभ में इंकार किया, लेकिन अंतत: मान गए.
हामिद अंसारी निश्चय ही इस समय स्वयं को महान शिक्षाविद् एवं भारतीय सभ्यता-संस्कृति के प्रकांड विद्वान डॉ. राधाकृष्णन की पंक्ति में खड़ा पाकर गौरवबोध से भरे होंगे. उपराष्ट्रपति बनने के बाद उनके लिए अगली बार राष्ट्रपति पद तक पहुंचने की उम्मीद फिर कायम हो सकती है.
किंतु वे न भूलें कि संप्रग ने उन्हें मजबूरी में दोबारा कार्यकाल दिया है. अगले लोकसभा चुनाव में अल्पसंख्यक खासकर मुसलमान मतों को अपने पक्ष में लाने के लिए कांग्रेस ने हामिद अंसारी को बनाए रखने का निर्णय लिया है.कांग्रेस के पास यह संदेश देने का आधार होगा कि अगर राष्ट्रपति नहीं बनाया तो उपराष्ट्रपति बनाए रखा.
सच यह है कि हामिद अंसारी का कार्यकाल अन्य पूर्व उपराष्ट्रपतियों की तुलना में प्रशंसनीय नहीं रहा है. राज्यसभा में मार्शल का प्रयोग एवं 2011 के अंत में लोकपाल विधेयक पर बहस के दौरान सदन की कार्यवाही अनिश्चित काल तक स्थगित करने के निर्णय ने उन्हें विवादास्पद बना दिया. इसके पहले के रिकॉर्ड में उपराष्ट्रपति के विवादित होने का प्रसंग शायद ही मिलेगा.
व्यक्तित्व के तौर पर तुलना करें तो जसवंत का एक वरिष्ठ राजनेता के रूप में बेहतर रिकॉर्ड है और कंधार में सरकार के निर्णय के अनुसार हवाई जहाज पर बंधकों को लाने के लिए तीन आतंकवादियों को साथ लेकर जाने की भूमिका के अलावा सामान्य राजनीति की दृष्टि से कोई नकारात्मक बिन्दु उनके राजनीतिक करियर का नहीं है. भाजपा में होते हुए भी उन्हें पुराने जनसंघी श्रेणी की विचारधारा से आबद्ध नहीं माना जाता है.
संविधान के प्रावधान एवं व्यवहार को देखते हुए सामान्यत: उपराष्ट्रपति की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण नहीं लगती कि उस पद के लिए ऐसी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की कल्पना की जाए. किंतु यह सच नहीं है. तीन ऐसे पहलू हैं जिनके आधार पर उपराष्ट्रपति पद के महत्व का प्रतिपादन होता है.
पहला, राज्यसभा के पदेन सभापति होने के कारण उपराष्ट्रपति की मुख्य भूमिका सदन के संचालन की है. विखंडित राजनीति के दौर में सरकार के लिए राज्यसभा के सभापति की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है. हालांकि एक बार सभापति के पद पर बैठने के बाद दल और विचार की सीमा से ऊपर उठकर आचरण की उम्मीद की जाती है और ज्यादातर सभापति इस कसौटी पर खरे उतरे हैं.
बावजूद इसके यह सामान्य धारणा है कि अगर सभापति अपने अनुकूल हों तो सरकार के लिए विधेयकों को पारित कराना थोड़ा आसान हो जाता है और बहस के दौरान उभरी प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटने में भी सुविधा होती है. हालांकि यह सोच दुर्भाग्यपूर्ण है, पर वर्तमान राजनीति की सोच का यही कटु सच है. ऐसा न हो तो फिर सर्वसम्मति से कोई उपराष्ट्रपति चुन लिया जाए, क्योंकि सभापति की कुर्सी पर बैठने के बाद भूमिका निष्पक्ष होगी. जाहिर है, भारतीय राजनीति के पतन ने इस आम धारणा के विपरीत संदेह का मनोविज्ञान निर्मित किया है.
दूसरा, आजादी के बाद सामान्यत: उपराष्ट्रपति को अगले राष्ट्रपति के रूप में देखा जाता रहा है. आरंभ के तीनों उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन, जाकिर हुसैन और वराह गिरि वेंकट गिरि उपराष्ट्रपति के बाद राष्ट्रपति बने. हालांकि यह परंपरा टूटी और गोपाल स्वरूप पाठक, बासप्पा दानप्पा जत्ती व मो. हिदायतुल्ला को राष्ट्रपति बनने का सौभाग्य नहीं मिला किंतु इसका कारण तत्कालीन राजनीति थी.
गोपाल स्वरूप पाठक को इंदिरा गांधी तत्कालीन कांग्रेस की सिंडिकेट राजनीति के कारण पसंद नहीं करतीं थीं. 1977 में जनता पार्टी की सरकार के समय जत्ती कार्यवाहक राष्ट्रपति थे. जनता पार्टी उन्हें उम्मीदवार नहीं बना सकती थी. हिदायतुल्ला जनता पार्टी द्वारा निर्वाचित थे, इसलिए कांग्रेस उन्हें मौका नहीं दे सकती थी. बाद में फिर आर. वेंकटरमण, शंकर दयाल शर्मा एवं के. आर. नारायण राष्ट्रपति पद तक पहुंचे.
कृष्णकांत से यह परंपरा फिर टूटी और उनके बाद भैरोसिंह शेखावत और अब हामिद अंसारी को लगातार यह अवसर नहीं मिला. इन तीनों को भी विखंडिज राजनीति की विवशता के कारण ही मौका नहीं मिला. किंतु कौन जानता है, आगे फिर उस परंपरा का पालन हो. इसलिए आज भी उपराष्ट्रपति पद को राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने की पहली सीढ़ी के रूप में देखा जाना अस्वाभाविक नहीं है.
उप राष्ट्रपति की महत्ता का तीसरा पहलू है राष्ट्रपति के निधन, हटाए जाने या इस्तीफे के कारण कार्यवाहक राष्ट्रपति की भूमिका निभाना. भारत के इतिहास में ऐसा तीन बार हुआ है.
1969 में डॉ. जाकिर हुसैन के आकस्मिक निधन के बाद बी. बी. गिरि कार्यवाहक राष्ट्रपति बने और 1976 में फखरुद्दीन अली अहमद की मृत्यु के बाद बासप्पा दानप्पा जत्ती. वह आजादी के बाद भारतीय राजनीति का अत्यंत महत्वपूर्ण या युगांतकारी चरण था.
आपातकाल का अंत उनके कार्यकाल में हुआ और 1977 के आम चुनाव के बाद केन्द्र में पहली बार गैर कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार अस्तित्व में आई. यहां तक उनकी भूमिका खास नहीं थी, किंतु जब जनता पार्टी सरकार ने नौ राज्यों की कांग्रेस सरकारों को भंग करने का फैसला किया तो उस पर राष्ट्रपति की मुहर आवश्यक थी. जत्ती ने ऐसा करने से इन्कार किया और पहली बार मंत्रिमंडल का प्रस्ताव वापस हो गया.
यह अलग बात है कि बाद में उन्हें ऐसा करना पड़ा, क्योंकि संविधान के अनुसार सरकार के दोबारा निर्णय के बाद उनके पास कोई चारा नहीं था. वैसे मो. हिदायतुल्ला को भी 1982 में 25 दिनों तक राष्ट्रपति बनने का अवसर मिला, लेकिन उस दौरान कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ.
तो यह नहीं माना जा सकता है कि उप राष्ट्रपति का पद महत्वपूर्ण भूमिकाओं से रहित है. जत्ती को तो कल्पना भी नहीं रही होगी कि उन्हें आपातकाल के अंत के निर्णय पर मुहर लगानी होगी और बाद में जनता पार्टी की सरकार के साथ तनाव मोल लेना होगा. किंतु ऐसा हुआ.
देश के लिए ऐसा क्षण कभी भी आ सकता है जब उपराष्ट्रपति को ऐतिहासिक भूमिका निभानी पड़ सकती है. सदन के संचालन में वित्त विधेयक को छोड़कर सारे विधेयकों को कानून बनने से पहले राज्यसभा में पारित होना अनिवार्य है. कई बार तो विधेयक लोकसभा से पहले राज्यसभा में ही पेश कर दिया जाता है और वहां जो कुछ होता है उसकी प्रतिध्वनि लोकसभा में गूंजती है.
इसलिए हमारी कामना यही होगी उपराष्ट्रपति के रूप में हमेशा ऐसे सक्षम, समझबूझ वाले ईमानदार और साहसी व्यक्ति का निर्वाचन हो जो कठिन परिस्थितियों में सदन के संचालन से लेकर अनायास मिलने वाली भूमिकाओं का इस तरह निर्वहन करे कि देश में आदर्श भावना का संचार हो. अंसारी जीतें या जसवंत, ये इस कसौटी पर खरा उतरें, यही अपेक्षा हर भारतीय की होगी.
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