मंगलवार, 17 जुलाई 2012

दरकती नींव सूचना के अधिकार कानून की

दरकती नींव सूचना के अधिकार कानून की
क्या मुख्यमंत्री ने जानी हैं इस कानून की वर्तमान हालत ?

बाड़मेर ! जिस तरीके से सूचना के अधिकार कानून की बातें हुई और इस कानून को लागो किया गया उसके मुताबिक़ कानून की पालना अब तक राजस्थान के बाड़मेर जिले में नहीं हो सकी हैं सीधा सा एक कारण यहाँ सामने आ रहा हैं कि वोट बैंक के आगे ये कानून असहाय और बेबस हैं यहाँ पर बाड़मेर जिले के दो मामले इस कानून की असली स्थिति को खोलने के लिए काफी हैं राजस्थान में अगड़ों और पिछड़ों की राजनीति ने किस तरह दलितों को सिर्फ इस्तेमाल किया है और उनकी अपनी राजनीतिक पहचान नहीं बनने दी है, इसका मज़बूत उदाहरण है राजस्थान के बाड़मेर ज़िले के मंगलाराम की कहानी , मंगलाराम एक ट्रक ड्राइवर है. जाति से दलित है. बाड़मेर ज़िले की धोरीमन्ना पंचायत के बामनोर गांव के रहनेवाले इस शख्स ने गुनाह किया कि इसने पंचायत में होने वाले घोटालो की सूचना मांगने की हिम्मत कर डाली ! सूचना के अधिकार के तहत पंचायत के खर्चे का हिसाब मांगने वाले मंगलाराम बताते हैं कि सूचना मांगने से बौखलाए सरपंच ने उनपर जानलेवा हमला करवाया. दोनों पैरों में कई जगह हड्डी टूटी है. आज लगभग दो साल से ज्यादा समय बीतने के बाद भी वो बैसाखी का सहारा लेकर चल रहे हैं
इसके बाद जब लगातार कई दिनों तक कलेक्ट्रेट के सामने धरनों का दौर चला , कई डाली संगठनों ने आवाज़ उठाई तो प्रशासन की अनुशंषा के बाद हमले की राज्य स्तरीय जाँच हुई जिसमें 11 लाख की अनियमितता पाई गई लेकिन स्थानीय विधायक के दबाव और इसके बाद राजनीतिक प्रभाव के चलते मामले की दोबारा ज़िलास्तरीय जाँच करवाए जाने के आदेश जारी हो गए , ज़िला स्तरीय जाँच में अनियमितता पहले की तुलना में महज 10 प्रतिशत रह गई, पर किसी भी अनियमितता पर कोई कार्रवाई नहीं की गई, कह दिया गया कि जो काम अधूरे हैं या नहीं किए गए हैं, उनको पूरा करने के आदेश दे दिए गए हैं सबसे बड़ी दुखद बात तो यह हैं कि आरोपी सरपंच के खिलाफ अभी तक प्राथमिकी तक दर्ज नहीं हो सकी है, न्याय की गुहार लगाते मंगलाराम ने 65 दिन का धरना भी दिया, मुख्यमंत्री से मिले पर सब बेकार साबित हुआ
स्थानीय दलित विधायक ने बहुमत वाले दूसरे संप्रदाय के सरपंच का साथ दिया और मंगलाराम अपनों के हाथों ठगे गए , उनका साथ देने वालों का कहना है कि प्रशासन उन्हें धमकाया और कहा कि ब्लैकमेल के आरोप में अंदर कर दिए जाओगे वरना जो हुआ उसको भूल जाओ ! ऐसी ही एक और कहानी सूचना के अधिकार के दूसरे सिपाही की ,
पंचपदरा पंचायत के साजीअली गांव का अंबेश, अंबेश से सूचना देने के नाम पर 35 हज़ार जमा कराए गए, बदले में मिले साढ़े 17 हज़ार पन्ने जिनमें से एक भी उसके द्वारा मांगी गई सूचना से संबंधित नहीं, राजनीतिक दबाव और स्थानीय प्रशासन की धमकियां झेलता अंबेश अब राजस्थान हाईकोर्ट के दरवाज़े पर खड़ा है और मांग रहा हैं न्याय कि क्या सोचना माँगना कोई गुनाह हैं ! क़ानून कहता है कि बीपीएल व्यक्ति को सूचना बिना किसी शुल्क के मिलनी चाहिए पर अंबेश से 35 हज़ार वसूले गए, गरीब दलित कर्ज लेकर बेकार सूचनाओं की रद्दी सिर पर ढो रहा है.
दलित होने की क़ीमत
अंबेश के मामले में शोषण पिछड़ों के द्वारा हो रहा है, पिछड़ी जाति के लोग गांव और पंचायत में राजनीतिक वर्चस्व के साथ मज़बूत स्थिति में हैं. ऐसे में अनियमितताओं को उजागर करने की मंशा से मांगी गई सूचना उत्पीड़न के नए तरीके पैदा कर रही है.
पर मंगलाराम का मामला एक और सच उजागर करता है.
दलित विधायक दलितों के संघर्ष के साथ न खड़ा होकर बहुमत और प्रभावशाली संप्रदाय के लोगों के साथ खड़ा है. ज़ाहिर है, अपने समाज का हित यहाँ निजी हित के आगे बौना है.
राज्य में पिछले कुछ वर्षों में दलितों को राजनीतिक और सामाजिक रूप से सिर उठाने पर उत्पीड़न झेलना पड़ा है या फिर जानें भी गंवानी पड़ी हैं.
इसके कई उदाहरण समय समय पर सामने आते रहे हैं
आंकड़े भी बताते हैं कि राज्य में दलितों के प्रति हिंसा में पिछले 10 वर्षों में बढ़ोत्तरी हुई है , इसके कई कारण हैं. पहला, कि दलितों में जागरूकता बढ़ी है इसलिए ज़्यादा मामले दर्ज होने शुरू हुए हैं. दूसरा यह कि अपने अधिकारों के प्रति दलितों का संघर्ष और प्रयास तेज़ हुए हैं. तीसरा कारण यह है कि दलितों ने जैसे-जैसे सिर उठाना शुरू किया है, शोषण, उपेक्षा और उत्पीड़न के नए-नए तरीके भी सामने आने लगे हैं !
दलित राजनीति
यहाँ अहम सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है कि राज्य विधानसभा में अनुसूचित जाति-जनजाति के 56 विधायक होते हुए भी दलितों के शोषण उत्पीड़न की सुध लेने वाला, आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं है, बाड़मेर ज़िले के ही एक दलित सामाजिक कार्यकर्ता और इसी इलाके के शिव कस्बे के पूर्व प्रधान उदाराम बताते हैं, “हमें यह समझना पड़ेगा कि बड़े राजनीतिक दलों का नेतृत्व किन जातियों के हाथों में है. बड़ी पार्टियां हमारे समाज से ऐसे लोगों को ही आरक्षित सीटों पर प्रत्याशी बनाती हैं जो कि दलितों के राजनीतिक संघर्ष से उठे लोग न होकर उनकी ही छत्रछाया में नेता बने कमज़ोर और अवसरवादी लोग हैं. ये लोग इन राजनीतिक दलों के लिए कठपुतलियों की तरह होते हैं.”
इसकी वजह बताते हुए वो कहते हैं कि पिछड़े राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक वर्चस्व बनाकर अब मज़बूत स्थिति में हैं. और आगे निकलने की कोशिशों में वो संसाधन और सत्ता अगड़ों से तो छीनने से रहे, दलित ही उनको सबसे असहाय और कमज़ोर नज़र आता है इसलिए गांव में मेड़बंदी से लेकर राजनीति और आर्थिक मोर्चों पर वे दलितों को निशाना बना रहे हैं.
ज़ाहिर है, सत्ता पर काबिज जातियों से कामकाज में पारदर्शिता और भागीदारी की मांग करते दलित जितनी मज़बूती से सिर उठा रहे हैं, संघर्ष भी उतना पैना होता जा रहा है. फिर भी, दलितों में जागरूकता, एकजुटता और संघर्षों ने सकारात्मक ज़मीन तैयार करनी शुरू कर दी है. मंगलाराम जैसे हौसले और आत्मविश्वास से ही अधिकारों की ये लड़ाई खड़ी हो रही है और बढ़ रही है.

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