रविवार, 4 मार्च 2012

स्वर्णनगरी में होली के दिन बादशाह व जिंदा-ङ्क्षजदी के स्वांग रचने की चली आ रही है परंपरा होली के दिन दुर्ग के व्यासा पाड़ा में सजेगा दरबार तो चैनपुरा में बनेंगे जिंदा-जिंदी


एक तरफ सजता है बादशाह का दरबार तो दूसरी तरफ जिंदा-जिंदी के स्वांग



स्वर्णनगरी में होली के दिन बादशाह व जिंदा-ङ्क्षजदी के स्वांग रचने की चली आ रही है परंपरा
होली के दिन दुर्ग के व्यासा पाड़ा में सजेगा दरबार तो चैनपुरा में बनेंगे जिंदा-जिंदी



जैसलमेर
स्वर्णनगरी जैसलमेर में होली का त्यौहार अपनी अनूठी परंपराओं के चलते काफी लोकप्रिय है। स्वर्णनगरी में होली की धूम फाल्गुन शुक्ला एकम से चैत्र कृष्ण एकम तक चलती है। गेरियों की ग्यारस से निकलने वाली गेरों की धूम तथा नगर अराध्य लक्ष्मीनाथ में फाग की धूम के साथ ही धूलंडी के दिन दो निराली परंपराओं का निर्वाह अभी भी हो रहा है। एक तरफ भगवान शंकर और पार्वती का स्वांग तो दूसरी तरफ दुर्ग के व्यासा पाड़ा में सजता है बादशाह का दरबार।

दुर्ग में सजता है दरबार:होली पर बादशाह का दरबार सजाने की एक दिलचस्प परंपरा है। सोनार दुर्ग के व्यासा पाड़ा में व्यास जाति के पुष्करणा ब्राह्मण ही होली पर बादशाह बनते है। इतिहासकार नंदकिशोर शर्मा बताते है कि इस संबंध में प्रचलित कथा के अनुसार महारावल लक्ष्मण के काल में पंजाब का एक ब्राह्मण रामरक्ष दिल्ली से भागकर जैसलमेर राज्य में शरण मांगता है। व्यास जाति का वह ब्राह्मण पेशे से वैद्य था। उसने दिल्ली के तत्कालीन बादशाह के साध्य रोग का इलाज किया था। इससे प्रसन्न होकर बादशाह अपनी पुत्री की शादी उससे करना चाहता था। इस शर्त पर रामरक्ष राजी न था और वहां से भाग निकला। जैसलमेर के महारावल से उसे सम्मान देकर यहां के कुल पुरोहित की पुत्री से शादी भी करवा दी। जब यह संदेश बादशाह तक पहुंचा तो रामरक्ष को पकडऩे के लिए जैसलमेर में सैनिक भेजे। संयोग से उस दिन धूलंडी थी। महारावल को विवाद टालने का बहाना मिल गया। उसे होली के स्वांग के रूप में बादशाह बनाकर बिठा दिया गया। जिससे संतुष्ट होकर सैनिक वहां से चले गए। रामरक्ष के एक पुत्र भी था उसे शहजादा बना दिया गया था। उसी दिन से होली के अगले दिन बादशाह का दरबार सजाने की परंपरा चल पड़ी।

बादशाही बरकरार-शहजादा सलामत: धूलंडी के दिन व्यासा पाड़ा में समस्त लोग एकत्र होकर सर्व सम्मति से बादशाह व शहजादे का चुनाव करते है। जिसके बाद व्यासा पाड़ा में बादशाह का दरबार सजाया जाता है। दरबार सजने के बाद बादशाह व शहजादे को पालकी पर बिठा कर व्यासा पाड़ा से जैन मंदिर, कुंड पाड़ा होते हुए सवारी निकाली जाती है। रास्ते में लोगों द्वारा बादशाह का स्वागत किया जाता है। इस दौरान बादशाह पर कोई भी गुलाल नहीं छिड़कता है। साथ ही बादशाही बरकरार व शहजादा सलामत का जयघोष किया जाता है। कालांतर में इसके साथ बादशाह बनने वाले को पूरी जाति को गोठ(पार्टी) देने की परंपरा जुड़ गई लेकिन वह आवश्यक नहीं है।

जिंदा-जिंदी का करते है पूजन

एक तरफ दुर्ग में बादशाह का दरबार सजता है वहीं दूसरी तरफ नगर के चैनपुरा मौहल्ला में जिंदा जिंदी का स्वांग रचाया जाता है। गिरधर लाल पुरोहित ने बताया कि धूलंडी के दिन दो युवकों को जिंदा-जिंदी बनाया जाता है। जिन्हें शिव व पार्वती का रूप माना जाता है। जिंदा-जिंदी के साथ ही चैनपुरे की गैर निकलती है जो पहले पूरे मौहल्ले में घुमती है। हर परिवार द्वारा उनका पूजन किया जाता है तथा गैरियों द्वारा हालरा(खुशी व उल्लास के गीत) गाए जाते है। साथ ही गोठ के लिए सहयोग राशि भी एकत्र की जाती है। शेष त्नपज १५

चैनपुरे की गैर दुर्ग से आने वाली लक्खूबीरे की गेर के साथ मिलकर महारावल के निवास पहुंचती है। वहां से चैनपुरे व लक्खूबीरे की गेर दुर्ग स्थित लक्ष्मीनाथ मंदिर जाती है जहां लक्ष्मीनाथजी के हालरा गाने के बाद गैर समाप्ति की घोषणा होती है। इसी के साथ धूलंडी का त्यौहार भी खत्म होता है।

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