बुधवार, 28 दिसंबर 2011

मीराबाई कृष्ण-भक्ति शाखा की प्रमुख कवयित्री

मीराबाई कृष्ण-भक्ति शाखा की प्रमुख कवयित्री हैं।
 उनका जन्म १५०४ ईस्वी में जोधपुर के पास मेड्ता ग्राम मे हुआ था कुड्की में मीरा बाई का ननिहाल था। उनके पिता का नाम रत्नसिंह था। उनके पति कुंवर भोजराज उदयपुर के महाराणा सांगा के पुत्र थे। विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहान्त हो गया। पति की मृत्यु के बाद उन्हे पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया किन्तु मीरां इसके लिये तैयार नही हुई | वे संसार की ओर से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। कुछ समय बाद उन्होंने घर का त्याग कर दिया और तीर्थाटन को निकल गईं। वे बहुत दिनों तक वृन्दावन में रहीं और फिर द्वारिका चली गईं। जहाँ संवत १५६० ईस्वी में वो भगवान कृष्ण कि मूर्ति मे समा गई । मीराबाई ने कृष्ण-भक्ति के स्फुट पदों की रचना की है

कृष्णभक्ति शाखा की हिंदी की महान कवयित्री मीराबाई का जन्म संवत् 1504 में जोधपुर में kurki नामक गाँव में हुआ था। इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं विवाह के थोड़े ही दिन के बाद उनके पति का स्वर्गवास हो गया था। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन- प्रति- दिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।

कृष्णभक्ति शाखा की हिंदी की महान कवयित्री मीराबाई का जन्म संवत् १५७३ में जोधपुर में चोकड़ी नामक गाँव में हुआ था। इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं।

विवाह के थोड़े ही दिन के बाद आपके पति का स्वर्गवास हो गया था। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन- प्रति- दिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।

मीराबाई का घर से निकाला जाना

मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग आपको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र लिखा था :-

स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई। बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।। घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई। साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।। मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई। हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।

मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया:-

जाके प्रिय न राम बैदेही। सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।। नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ। अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।


मीरा द्वारा रचित ग्रंथ

मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की--

- बरसी का मायरा - गीत गोविंद टीका - राग गोविंद - राग सोरठ के पद

इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन "मीराबाई की पदावली' नामक ग्रन्थ में किया गया है।


मीराबाई की भक्ति

मीरा की भक्ति में माधुर्य- भाव काफी हद तक पाया जाता था। वह अपने इष्टदेव कृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रुप में करती थी। उनका मानना था कि इस संसार में कृष्ण के अलावा कोई पुरुष है ही नहीं। कृष्ण के रुप की दीवानी थी--

बसो मेरे नैनन में नंदलाल। मोहनी मूरति, साँवरि, सुरति नैना बने विसाल।। अधर सुधारस मुरली बाजति, उर बैजंती माल। क्षुद्र घंटिका कटि- तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल। मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल।।



मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं -

गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।


इन्होंने अपने बहुत से पदों की रचना राजस्थानी मिश्रित भाषा में की है। इसके अलावा कुछ विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में भी लिखा है। इन्होंने जन्मजात कवियित्री न होने के बावजूद भक्ति की भावना में कवियित्री के रुप में प्रसिद्धि प्रदान की। मीरा के विरह गीतों में समकालीन कवियों की अपेक्षा अधिक स्वाभाविकता पाई जाती है। इन्होंने अपने पदों में श्रृंगार और शांत रस का प्रयोग विशेष रुप से किया है।


मन रे पासि हरि के चरन। सुभग सीतल कमल- कोमल त्रिविध - ज्वाला- हरन। जो चरन प्रह्मलाद परसे इंद्र- पद्वी- हान।। जिन चरन ध्रुव अटल कींन्हों राखि अपनी सरन। जिन चरन ब्राह्मांड मेंथ्यों नखसिखौ श्री भरन।। जिन चरन प्रभु परस लनिहों तरी गौतम धरनि। जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।। दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।



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