पोकरण से १३ किलोमीटर दूर रामदेवरा में हिन्दू, मुस्लिम एकता एवं पिछडे वर्ग के उत्थान के लिए पहल कर क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए प्रसिद्ध संत बाबा रामदेव की श्रद्धा में डूबे लगभग 15लाख अनुयाई भक्ति सागर में गोते लगा रहे हैं। देश में ऐसे अनूठे मंदिर कम ही हैं जो हिन्दू मुसलमान दोनों की आस्था के केन्द्र बिन्दु हैं। बाबा रामदेव का मंदिर इस दृष्टि से भी अनुपम है कि वहां बाबा रामदेव की मूर्ति भी है और मजार भी। यह मंदिर इस नजरिये से भी सैकडों श्रद्धालुओं को आकृष्ट करता है कि बाबा के पवित्रा राम सरोवर में स्नान से अनेक चर्मरोगों से मुक्ति मिलती है। इन्हीं रामसा पीर का वर्णन लोकगीतों में ’’आँध्यां ने आख्यां देवे म्हारा रामसापीर‘‘ कह कर किया जाता है। श्रद्धालु केवल आसपास के इलाकों से ही नहीं आते वरन् गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से भी सैंकडों की संख्या में आते हैं। आधुनिक परिवहन सुविधाओं के बावजूद बीकानेर और जोधपुर जैसे इलाकों से १००-२०० किलोमीटर पैदल चल कर आने वाले भक्तजन भी आस्था की अलग ही कहानी कहते नजर आते हैं। प्रतिवर्ष भादवा शुक्ला द्वितीया से चलने वाला यह मेला भादवा शुक्ला एकादशी को सम्पन्न होता है। इस बार मेला २३ सितम्बर तक चलेगा। इन दिनों पैदल और वाहनों से सैंकडों यात्राी प्रतिदिन मेला स्थल पर पहुंच रहे हैं। बाबा रामदेव १४०९ विक्रम संवत की शुक्ल पंचमी को तोमर वंशीय अजमल जी और मैणादे के यहां जन्मे थे। किंवदन्ती है कि ये भगवान श्री कृष्ण का अवतार थे। श्रद्धालु इनके जन्म की कथा को कुछ यूँ बयान करते हैं। दिल्ली के शासक अनंगपाल के पुत्रा नहीं था। पृथ्वीराज चौहान उनकी पुत्राी का पुत्रा था। एक बार अनंगपाल तीर्थयात्राा को निकलते समय पृथ्वीराज चौहान को राजकाज सौंप गये। तीर्थयात्राा से लौटने के बाद पृथ्वीराज चौहान ने उन्हें राज्य पुनः सौंपने से इन्कार कर दिया। अनंगपाल और उनके समर्थक दुखी हो जैसलमेर की शिव तहसील में बस गये। इन्हीं अनंगपाल के वंशजों में अजमल और मेणादे थे। निसंतान अजमल दम्पत्ति श्री कृष्ण के अनन्य उपासक थे। एक बार कुछ किसान खेत में बीज बोने जा रहे थे कि उन्हें अजमल जी रास्ते में मिल गये। किसानों ने निसंतान अजमल को शकुन खराब होने की बात कह कर ताना दिया। दुखी अजमल जी ने भगवान श्री कृष्ण के दरबार में अपनी व्यथा प्रस्तुत की। भगवान श्री कृष्ण ने इस पर उन्हें आश्वस्त किया कि वे स्वयं उनके घर अवतार लेंगे। बाबा रामदेव के रूप में जन्में श्री कृष्ण पालने में खेलते अवतरित हुए और अपने चमत्कारों से लोगों की आस्था का केन्द्र बनते गये। लोक भावनाओं के अनुसार उन्होंने पीरों को उनके बर्तन मक्का मदीना से मंगवा कर चमत्कृत किया, भैरव राक्षस के आतंक से रामदेवरा के लोग को मुक्त कराया, बोयता महाजन के डूबते जहाज को बचाया। सगुना बाई के बच्चों को जीवित करना, अंधों को दृष्टि प्रदान करना और कोढयों को रोगमुक्त करना उनके अन्य चमत्कारों में से कुछ थे इसलिए आज भी लोग उनसे मनौतियाँ मांगते हैं और मनौती पूरी होने पर भेंट चढाते हैं। यहां माघ महिने में भी मेला भरता है जिसमें आस-पास के गांवों के लोग इकट्ठे होते हैं। रामदेवरा अथवा रूंणीचा धाम असल में रामदेव जी की कार्यस्थली रही है। यहीं उन्होंने रामसर तालाब खुदवाया, यहीं समाधि ली और अपने ३३ वर्ष के छोटे से जीवन में दीनदुखियों और पिछडे लोगों के कल्याण के लिए काम करके देवत्त्व प्राप्त किया। रामदेवरा किसी समय जोधपुर राज्य का गांव था जो जागीर में मंदिर को दे दिया गया था। इस गांव के ऐतिहासिक व प्रामाणिक तथ्य केवल यही तक ज्ञात हैं कि इसकी स्थापना रामदेवजी की जन्म तिथि और समाधि दिवस के मध्य काल में हुई होगी। वर्ष १९४९ से यह फलौदी तहसील का अंग बन गया और बाद में जैसलमेर जिले की पोकरण तहसील बन जाने पर उसमें शामिल कर दिया गया। रामदेव जी के विवाह की गाथा लोकगीतों में आती है पर संतान व अन्य तथ्यों की पुष्टि नहीं होती। इनका विवाह निहाल दे नामक महिला से हुआ था। डाली बाई और हरजी भाटी इनके अनन्य भक्तों में से थे। डालीबाई का मंदिर रूंणीचे में बाबा की समाधि के पास बना है। कहते हैं कि डालीबाई बाबा रामदेव को टोकरी में मिली थी। रामदेवजी के वर्तमान मंदिर का निर्माण १९३१ में बीकानेर के महाराजा श्री गंगासिंह जी ने करवाया था। इस पर उस समय ५७ हजार रुपये की लागत आई थी। भादवा शुक्ला द्वितीया से भादवा शुक्ला एकादशी तक भरने वाले इस मेले में सुदूर प्रदेशों के व्यापारी आकर हाट व दूकानें लगाते हैं। पैदल यात्रिायों के जत्थे हफ्तों पहले से बाबा की जय-जयकार करते हुए अथक परिश्रम और प्रयास से रूंणीचे पहुंचते हैं। लोकगीतों की गुंजन और भजन कीर्तनों की झनकार के साथ ऊँट लढ्ढे, बैलगाडयां और आधुनिक वाहन यात्रिायों को लाखों की संख्या में बाबा के दरबार तक पहुंचाते हैं। यहां कोई छोटा होता है न कोई बडा, सभी लोग आस्था, भक्ति और विश्वास से भरे, रामदेव जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करने पहुंचते हैं। यहां मंदिर में नारियल, पूजन सामग्री और प्रसाद की भेंट चढाई जाती है। मंदिर के बाहर और धर्मशालाओं में सैकडों यात्रियों के खाने-पीने का इंतजाम होता है। प्रशासन इस अवसर पर दूध व अन्य खाद्य सामग्री की व्यवस्था करता है। विभिन्न कार्यालय अपनी प्रदर्शनियां लगाते हैं। प्रचार साहित्य वितरित करते हैं और अनेक उपायों से मेलार्थियों को आकृष्ट करते हैं। मनोरंजन के अनेक साधन यहां उपलब्ध रहते हैं। श्रद्धासुमन अर्पित करने के साथ-साथ मेलार्थी अपना मनोरंजन भी करते हैं और आवश्यक वस्तुओं की खरीददारी भी। निसंतान दम्पत्ति कामना से अनेक अनुष्ठान करते हैं तो मनौती पूरी होने वाले बच्चों का झडूला उतारते हैं और सवामणी करते हैं। रोगी रोगमुक्त होने की आशा करते हैं तो दुखी आत्माएं सुख प्राप्ति की कामना और यू एक लोक देवता में आस्था और विश्वास प्रकट करता हुआ यह मेला एकादशी को सम्पन्न हो जाता है।
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