गुरुवार, 15 सितंबर 2011

मेहरानगढ़ दुर्ग... कीर्कित्त और वीरता तथा मान-मर्यादा का प्रतीक जोधपुर दुर्ग

मारवाड़ के राठौड़ों की कीर्कित्त और वीरता तथा मान-मर्यादा का प्रतीक जोधपुर दुर्ग का निर्माण राव जोधा ने करवाया था। राज्यभिषेक के समय राठौड़ राव जोधा की राजधानी मंड़ोर में थी, परंतु सामरिक व सैनिक दृष्टि से मण्डोर के असुरक्षित होने के कारण जोधा ने नवीन दुर्ग एंव नगर की स्थापना का निश्चय कर लिया। दुर्ग की पहाड़ी के तीन ओर नगर विस्तार हेतु समतल स्थान है, वहां नगर बसा हुआ है। इसी दृष्टि से उन्होंने पहाड़ी श्रृंखला के इस छोर पर दुर्ग निर्माण का कार्य आरंभ करवाया।
यह कार्य वृक्ष लग्न, स्वाति नक्षत्र, ज्येष्ठ सुदि ११, शनिवार संवत् १५१५ दिनांक १२ मई, १४५९ को आरंभ हुआ।शहर के समतल भाग से ४०० फुट ऊँची पहाड़ी पर अवस्थित जोधपुर दुर्ग चारों ओर फैले विस्तृत मैदान को अधिकृत किए हुए है। पहाड़ी की ऊँचाई कम होने के कारण ऊँची-ऊँची विशाल प्राचीरों के बीच दीर्घकार बुजç बनवाई गई हैं तथा पहाड़ी को चारों ओर से काफी ऊँचाई तक तराशा गया है जिससे किले की सुरक्षा में वृद्धि हो। महलों के भाग में ऊँचाई १२० फुट ही रह गई है। किले का विशाल उन्नत प्राचीर २० फुट से १२० फुट तक ऊँची है जिसके मध्य गोल और चौकोर बुजç बनी हुई हैं। इनकी मोटाई १२ फुट से ७० फुट तक रखी गयी है। प्राचीर ने १५०० फुट लंबी तथा ७५० फुट चौड़ी भूमि को घेर रखा है। पहाड़ी की चोटी पर बनी मजबूत दीवारों के शीर्ष भाग पर तोपों के मोर्चे बने हैं। यहां कई विशाल सीधी उठी हुई बुजç खड़ी की गई हैं। प्राय: छ: किलोमीटर का भू-भाग इस व्यवस्था से सुरक्षित है।


नीचे के समतल मैदान से एक टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता ऊपर की ओर जाता है। इस रास्ते द्वारा कुछ घुमाव पार करने पर किले का विशाल फाटकों वाला प्रथम सुदृढ़ दरवाजा आता है। आगे चलकर छ: दरवाजे और हैं। १७०७ ई० में महाराजा अजीतसिंह ने मुगलों पर अपनी विजय के स्मारक के रुप में फतेहपोल का निर्माण करवाया था। अमृतपोल का निर्माण राव मालदेव ने करवाया, और महाराजा मानसिंह ने १८०६ ई० में जयपोल का निर्माण करवाया था। "राव जोधा का फलसा' किले का अंतिम द्वार है। लोहापोल पर कुछ वीर रमणियों के छाप लगे हुए है जो उनके सती होने के स्मारक के रुप में आज भी विद्यमान हैं।किले की प्राचीर के नीचे दो तालाब हैं जहाँ से सेना जल प्राप्त करती थी। किले के मध्य में एक कुंड है जो ९० फुट गहरा है तथा इसे पहाड़ी की चट्टानों के मध्य खोदकर बनाया गया था। किले के अन्त: भाग में शानदार अट्टालिकाओं और प्रसादों का समूह है जो वस्तु कला का उत्कृष्ट नमूमा है। लाल पत्थरों से निर्मित ये प्रसाद वस्तुकला के उत्तम उदाहरण हैं। इन प्रसादों का निर्माण समय-समय पर होने के कारण इनमें विभिन्न वस्तु शैलियों का समावेश अपने आप हो गया है। उत्कृष्ट कलाकृतियों से अलंकृत पत्थर की काटी हुई जालियाँ से सजे हुए ये प्रासाद कला के उत्तम नमूने है।किले की ओर वाले पार्श्व भाग की प्राचीर विशेष रुप से मोटी और ऊँची है। बुजाç की परिधि यहीं सर्वाधिक है। इस प्राचीर के शीर्ष भाग पर लगी भीमकाय तोपें अब भी किले की रक्षा के तत्पर प्रतीत होती हैं। इन तोपों में कालका, किलकिला और भवानी नामक तोपें बहुत बड़ी और भारी हैं।


राजपूतों के इतिहास में राढौड़ अपनी वीरता और शौर्य के लिए बडे प्रसिद्ध रहे हैं। जोधपुर दुर्ग पर आक्रमणों का प्रांरभ राव बीकाजी के समय हुआ। राव जोधा ने बीकाजी को स्वतंत्र शासक स्वीकार कर उन्हे छत्र व चंबर देने की बात कही थी, परंतु जोधा की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी सूरसिंह ने ये वस्तुएं बीकाजी को नही दी। फलत: बीकाजी ने जोधपुर पर चढ़ाई कर दी। मारवाड़ राज्य के आन्तरिक कलह के परिणाम स्वरुप मुगलों को मारवाड़ पर अधिकार करने का अवसर मिला। मालदेव के समय १५४४ ई० में शेरशाह सूरी ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि किलेदार बरजांग तिलोकसी ने बड़ी बहादुरी से दुर्ग की रक्षा करने का प्रयत्न किया, फिर भी शेरशाह दुर्ग पर अधिकार करने में सफल हो गया। लेकिन मालदेव ने शक्ति संगठित करके पुन: दुर्ग पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।


मालदेव की मृत्यु के बाद मारवाड़ राज्य में उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर संघर्ष छिड़ गया एंव यह राज्य आंतरिक कलह में डूब गया। इससे जोधपुर की शक्ति काफी क्षीण हो गई। अब मुगलों ने जोधपुर पर अधिकार करने के उद्देश्य से वि.स. १६२१ के चैत्र माह में हुसैन कुली खाँ के नेतृत्व में सेना भेजी। राव चन्द्रसेन ने चार लाख रुपये देकर संधि कर ली तथा मुगल सेना वापस लौट गई। लेकिन मुगलों ने जोधपुर पर पुन: आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के समय राव चन्द्रसेन ने ६६० सैनिकों सहित किले में रहकर रक्षात्मक युद्ध किया। लेकिन वह शक्तिशाली मुगल सेना का सामना लंबे समय तक नही कर पाया। अत: उसने मुगलों से संधि कर जोधपुर दुर्ग उन्हें सौंप दिया। अकबर के काम में मोटा राजा उदय सिंह ने मुगलों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। अत: जोधपुर दुर्ग उसे लौटा दिया गया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें