गुरुवार, 4 अगस्त 2011

नाम कमाया है थारपारकर गौवंश ने








डॉ. दीपक आचार्य, जिला सूचना एवं जन सम्पर्क अधिकारी, जैसलमेर


ग्राम्य संस्कृति और परम्पराओं से भरे राजस्थान में कृषि और पशुपालन लोक जीवन का परम्परागत मूलाधार रहा है। प्रदेश के कई हिस्सों में आज भी जनजीवन बड़ी संख्या में पशु धन के भरोसे ही है।
    प्रदेश में विभिन्न किस्मों से भरे पशुओं की अलग-अलग हिस्सों में अपनी विशिष्ट पहचान है। पश्चिमी राजस्थान में थारपारकर गौवंश सदियों से सामाजिक और आर्थिक विकास का आधार रहा है। थारपारकर गौवंश के संरक्षण और संवर्धन की दृष्टि से जैसलमेर जिले के चाँधन में अवस्थित पशु अनुसंधान केन्द्र दशकों से बेहतर भूमिका का निर्वाह कर रहा है।
    जैसलमेर जिला मुख्यालय से चालीस किलोमीटर दूर चाँधन स्थानीय जलवायु की अनुकूलताओं,  विस्तृत परिक्षेत्रा और पानी की उपलब्धता की वजह से पशुपालन की दृष्टि से श्रेष्ठ माना गया है और इसी को देखते हुए सन् 1964 में यहां यह पशु अनुसंधान केन्द्र स्थापित किया गया है जो गायों की परम्परागत थारपारकर नस्ल के संरक्षण व संवर्द्धन का बड़ा भारी संस्थान है। प्राचीन मिथकों से जुड़ी है थारपारकर गाय
      थारपारकर गौवंश के साथ प्राचीन भारतीय परम्परा के मिथक भी जुड़े हुए हैं। इस गाय के स्वरूप को देखकर लोक मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण के पास यही गाय थी जो अब पश्चिमी राजस्थान की कामधेनु के रूप में मान्य है।
     देशी गौवंश में थारपारकर का कोई मुकाबला नहीं है। मूलतः यह नस्ल कराची (पाकिस्तान ) के पास थारपारकर जिले की है। सरहदी होने से पश्चिमी राजस्थान में इस गौवंश का प्रभाव ज्यादा है। थारपारकर नस्ल की गाय को दूर से ही पहचाना जा सकता है। श्वेत रंग, पूर्ण विकसित माथा, कानों की तरफ झुके हुए मध्यम सिंग, सामान्य कद-काठी वाली इन गायों को औसतन वजन साढ़े तीन से पौने चार फीट होता है।
      शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम होने के साथ ही सबसे कम खर्च में सर्वाधिक दूध देने वाली यह गाय क्षेत्रीय ग्रामीणों के लिए जीवन निर्वाह का सम्बल है।
पूरे देश में है मांग
         आजादी के बाद इस महत्वपूर्ण नस्ल के संरक्षण व संवर्द्धन की आवश्यकता महसूस की गई। इसके लिए आबोहवा, भूमि की उपलब्धता, चारा-पानी आदि के लिहाज से जैसलमेर जिले को उपयुक्त मानकर चाँधन में इस केन्द्र की स्थापना की गई है। आरंभिक दौर में इसका नाम  ’’बुल मदर फॉर्म ’’  था।
        थारपारकर नस्लीय गौवंश की मांग पूरे देश में है। नागालैण्ड, मणिपुर, असम, मेघालय, पश्चिमी बंगाल और सिक्किम जैसे कुछ राज्यों को छोड़ कर भारतवर्ष में सभी राज्यों में इसे श्रेष्ठ देशी गाय के रूप में स्वीकारा गया है। देश के पशुपालन व डेयरी संस्थानों में इसकी काफी मांग हमेशा बनी रहती है।
      केन्द्र की योजना है कि क्षेत्रा भर में अधिकाधिक गाँवों में शुद्ध थारपारकर नस्ल के साण्ड उपलब्ध हो ताकि इस नस्ल का गौवंश संरक्षित व संवर्धित होता रहे। इस समय जैसलमेर जिले  के बीस गाँवों में थारपारकर नस्ल के साण्ड दिए हुए हैं। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना में थारपारकर नस्ल सुधार के लिए इस वर्ष 7.5 करोड़ की कार्ययोजना तैयार की गई है।
दूध उत्पादन में अव्वल है थारपारकर गाय    
        थारपारकर नस्ल की सामान्य से सामान्य गाय एक समय में 4-5 लीटर दूध देती है। इस केन्द्र पर एक दिन में 23 लीटर दूध देने का रिकार्ड भी है। चाँधन केन्द्र में इस कुल 261 गौवंश है। इनमें 85 साण्ड, 74 गायें तथा 100 बछड़ियाँ हैं जिनमें 30 माँ बनने वाली हैं। विस्तृत परिक्षेत्रा में विभिन्न ब्लॉकों में विभक्त इस केन्द्र में सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। वर्तमान में केन्द्र में 9 गायें ऐसी हैं जो एक समय में 1.6 से 4 लीटर दूध देती हैं जबकि 31 गायें रोजाना 8 लीटर से अधिक दूध देती हैं।
करीब दो हजार हैक्टेयर क्षेत्रा में पसरे हैं फॉर्म
       केन्द्र के पास कुल एक हजार 961 हैक्टेयर क्षेत्रा में फैले हुए 6 बड़े-बड़े फार्म हैं। इनमें चाँधन में 276 हेक्टर में पसरे दो फार्म हैं, जबकि धायसर में 155 हैक्टेयर, भैरवा में 125 हैक्टेयर, देवीकोट में एक हजार हैक्टेयर तथा भोजक व पारेवर में 200-200 हेक्टेयर का फार्म है। इसमें  विस्तृत चारागाह है जहाँ मरुस्थल की अत्यंत पौष्टिक सेवण घास का उत्पादन होता है। सेवण यहाँ के पशुओं के लिए सर्वाधिक प्रिय घास है जिसमें 16 प्रतिशत तक प्रोटीन होता है। कम बरसात में भी पैदा हो जाने वाली सेवण घास 4 से 5 फीट तक ऊँची होती है। प्रति हेक्टेयर इसकी 60 से 65 क्विंटल पैदावार होती है। रिजका और बरसीम के मुकाबले यह कहीं उन्नीस नहीं है।
       थारपारकर गौवंश फार्म में इस समय रोजाना औसत साढे़ चार क्विन्टल दूध होता है जिसे अनुबंध के अनुसार 24 रुपए 5 पैसे प्रति लीटर की दर से बेचा जाता है। इससे केन्द्र को रोजाना 9 हजार 600 रुपए की आमदनी होती है।
नाम कमाया है थारपारकर गौवंश ने
       चाँधन केन्द्र का गौवंश अपनी उन्नत नस्ल की छाप छोड़ने में भी पीछे नहीं है। जयपुर में हुई देशी गायों की दुग्ध दोहन प्रतिस्पर्धा में इस केन्द्र की 512 नम्बर की गाय ने एक ही समय में 14.1 लीटर दूध देकर पुरस्कार पाया। इसी दौरान यहाँ के साण्ड को द्वितीय व बछड़ी को तृतीय पुरस्कार के लिए चुना गया।
       थारपारकर नस्ल के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए संचालित इस केन्द्र में गतिविधियों का लगातार मूल्यांकन होता है। केन्द्र के एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रभारी अधिकारी डॉ. राहुलसिंह पाल के मुताबिक थारपारकर नस्ल का गौवंश अधिकतम तापमान, सूखे को बर्दाश्त कर लेता है तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता भी खूब होती है। इस केन्द्र से उन्नत नस्ल का थारपारकर वंश किसानों और विकास संस्थाओं को उपलब्ध कराया जाता है। इस वर्ष चाँधन केन्द्र के थारपारकर नस्ल के 7 साण्ड नेशनल डेयरी  इंस्टीट्यूट करनाल भेजे जा रहे हैं।
       केन्द्र में पशुओं के सुरक्षित विकास व स्वास्थ्य संरक्षण की सभी अत्याधुनिक सुविधाएँ एवं उपकरण उपलब्ध हैं। वहीं बेहतर तकनीकि स्टॉफ भी मौजूद है। अब चाँधन पशु अनुसंधान केन्द्र में पशुपालन में डिप्लोमा सुविधा भी आरंभ कर दी गई है।

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