रविवार, 28 अगस्त 2011

पान की लाली को लील गया गुटखा


पान की लाली को लील गया गुटखा




मारवाद के मीठे पान कभी शान और शौकत के प्रतीक रहे हैं। बाडमेर के लोग कभी पान के जबरदस्त शौकिन रहे हैंमगर अन शैकिनों पर भी गंअखे का असर चढ गया।जिसके कारण ना केवल पान की षान में कमी आई हैं बल्कि पान का व्यासाय भी दम तोड रही हैं।पान के साथ जुडी परम्पराऐं ,संस्कृति और किदवन्तिया भी इसके साथ ही समाप्त होने के कगार पर हैं।

बाडमेर में पिछले साठ सालों सें पान का व्यवसाय करने वाले मूलजी का परिवार आज भी पान के इस व्यापार को ढो रहा हैं।मूलजह भारत पाकिस्तान विभाजन सें पहले थार क्षैत्र के एक मात्र पान के बडे व्यवसायी थे।और आज भी मूलजी का पोता भरत अपने पुश्तेनी व्यवसाय को सम्भालें हैं।मूलजी के पोते भरत कुमार नें बताया कि एक दशक पूव्र तक पान के प्रति लोगों की जबरदस्त दीवानगी थी।उस वक्त में प्रति दिन बीस से तीस हजार पान बाउमेर जिले में बेचते थे।उस वक्त बाडमेर में पान की सतर से अधिक छोटी बउी दुकानें थी।भरत ने बताया कि उस वक्त प्रात कालीन रेल से सुबह चार बजे पान आते थेंपान के व्यवसायी सीधे रेल पर ही अपना माल लेने आ जातें क्योकि अन्हे डर था कि डिमाण्ड अधिक होने के कारण शायद उन्हे पान मिले या नही मिले।उस वक्त बाडमेर के नारायणजी पान वाले,जगदीश खत्री,श्यामजी पान वाले हीराभाई पान वाले ,बसन्त पान वाला ,झामन पान वाला बेहतरीन पान बनाने वालों में शुमार थे।जहॉ एक हजार से अधिक पान प्रतिदिन बिकते थे।शंष दुकानों में भी 500 से 700 पान प्रतिदिन बिकते थे।बेल के इन पान को लकी मीठी तथा रैली श्रेणी में बांटा जाता था।उस वक्त लकह पान की जबरदस्त मांग थी।सुबह ग्यारह बजे से दोपहर दो बजे तक साय। सात बजे से रात 11 बजे तक पान के शौकिनों की दुकानों पर भीड लगी रहती थी।पान के इन्तजार में लोग धण्टों बतियाते रहते थे।



ये लोग बेहतरीन पान बनाने की मिशाल थै।समय के साथ ये लोग दुनिया छोड चुके हैं।इनमे से जगदीश ,टौर झामन आज भी अपनी साख बनाऐ हुऐं है। कहना अतिश्योक्ति ना होगा कि पान की कुछ शान इन लोगों नें बनाऐं रखी हैं।आज बाडमेर में पान की महज आठ दस दुकानें हैं।पान दुकान चलाने वालें राजू भाई का कहना है कि मेरी पुश्तेनी पान की पेढी हैं।पहले मेरे पिताजी श्यामजी पान लगाते थें।उन्हे आज भी श्यामजी पान वाला के नाम से लोग जानते हैं।पान का वयवसाय खत्म सा हो गया हैंे।पान के कद्रदान थोडे से बचे हैं।गुटखें के प्रचलन नें पान कह लाली को खतम कर दिया ।

भरत का कहना है कि वह दौर सूनहरा था।हमारा भी व्यवसाय के प्रति जबरदस्त मोह था।प्रति पान दस पैसा मजदूरी मिल जाती थी।1996 सें पान का संक्रमण काल शुरू हुआ था जब पहली वार गुटखा बाजार में आया।तेजह से बढते गुटखे के प्रचलन नें पान व्यवसाय को चौपट कर दिया।आज पान की बिक्री चालीस हजार प्रतिदिन से धटकर महज दस हजार सें भी कम रह गयी हैं।वही गुटखे के दस लाख पाउच प्रतिदिन बिक रहे हैं।



कभी पान लबों की शान हुआ करता था।चूना,कत्था,सुपारी ,लौंग ,इलायची,किमाम,बेलगम, सौंफ ,गुलकन्द कें मिश्रण का पान खाते ही पान के शोकिनों को नई उमंग ओर तरोताजगी का सुखद अहसास होजाता था।इसके साथ ही जर्दायुक्त पान का प्रचलन बराबर था।इसके अलावा बनारसी पान ,कलकती पान,सिन्धी पान,मीठा पान तथा रैली पान का भ्सी बराबर मांग थी।मगर जबसें गुटखे का प्रचलन शुरू हुआ हैं तब से पान आम आदमी से दूर हो गया।आज पान की बजाय गुटखें कें सैकडों ब्राण्ड प्रचलन में हैं।बहाहाल कभी सामाजिक सरोकारों तथा परम्पराओं का प्रतीक रहा पान की लाली होंठों सें दूर हो गई
हैं

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