"अलीमा" बन जगा रही है "अलख"
बाड़मेर। अलीमा (बीए के समकक्ष) की उपाधि प्राप्त जैनब व फातिमा चाहती है कि यह उपाधि सिर्फ उन तक ही सीमित नहीं रहे। इसी संकल्प के साथ इन दोनों ने अल्पसंख्यक वर्ग की बालिकाओं को अलीमा बनाने का बीड़ा उठाया है। इन दोनों बहनों की मेहनत रंग लाने लगी है और करीब सौ बालिकाएं शिक्षा से जुड़ी है।
सीमावर्ती क्षेत्र के अल्पसंख्यक समुदाय शिक्षा को जागरूकता बहुत कम है। यहां पुरूष कम तादाद में पढ़े-लिखे हैं तो अधिकांश महिलाएं अगूंठा छाप। ऎसे वर्ग में दारूल उलूम फैजे गौसभा संस्थान खारची के मदरसे में कोई मुस्लिम महिला बच्चों को पढ़ाए तो अचरज होना लाजमी है। यहां दो बहनें फातिमा और जैनब बतौर शिक्षक बालिका शिक्षा की अलख जगा रही है।
मूलत: गोरामाणियों की ढाणी नगर गुड़ामालनी की निवासी दोनों बहनों के गांव में भी अधिकांश अल्पसंख्यक बालिकाएं अनपढ़ है। ऎसे में उनके पिता अब्दुल रऊफ ने इस सोच का बदला और अपनी बड़ी बेटी जैनब को कुछ साल पहले गुजरात के धरोल कच्छ जिला जामनगर पढ़ने को भेजा।
इसके बाद उसकी छोटी बेटी फातिमा को वहां पढ़ाया। दोनों ने वहां से आलीमा की डिग्री प्राप्त की और अब वे खारची में बतौर शिक्षक सेवा दे रही है। उनके आने का असर यह रहा कि इस मदरसे में वर्तमान में करीब सौ बालिकाएं शिक्षा हासिल कर रही है। इसमें से दो बालिकाएं शहरबानो व लतीफा जो खारची से करीब साठ किमी दूर गांव जूनेजो की बस्ती कोटड़ा से यहां आकर पढ़ रही है, वर्तमान में कक्षा ग्यारहवीं की छात्राएं हैं। उनके अलावा कई बालिकाएं अन्य गांवों से यहां आकर शिक्षा अध्ययन कर रही हैं।
जमाने के साथ भी
इस मदरसे ने जमाने के साथ चलने का निर्णय किया। इसके चलते यहां बालिकाओं न केवल मजहबी तालिम व दीनी तालिम दी जाती है वरन् कम्प्यूटर शिक्षा से भी जोड़ा गया है। यहां की बालिकाएं कम्प्यूटर में भी दक्ष है।
बदलने लगी है सोच
तालिम के बिना समाज की तरक्की संभव नहीं है। अल्पसंख्यक वर्ग में विशेषकर बालिकाओं की तालिम कम है। जैनब व फातिमा के आने के बाद बालिका शिक्षा को लेकर लोगों की सोच बदलने लगी है।
- मौलवी ताज मोहम्मद
बाड़मेर। अलीमा (बीए के समकक्ष) की उपाधि प्राप्त जैनब व फातिमा चाहती है कि यह उपाधि सिर्फ उन तक ही सीमित नहीं रहे। इसी संकल्प के साथ इन दोनों ने अल्पसंख्यक वर्ग की बालिकाओं को अलीमा बनाने का बीड़ा उठाया है। इन दोनों बहनों की मेहनत रंग लाने लगी है और करीब सौ बालिकाएं शिक्षा से जुड़ी है।
सीमावर्ती क्षेत्र के अल्पसंख्यक समुदाय शिक्षा को जागरूकता बहुत कम है। यहां पुरूष कम तादाद में पढ़े-लिखे हैं तो अधिकांश महिलाएं अगूंठा छाप। ऎसे वर्ग में दारूल उलूम फैजे गौसभा संस्थान खारची के मदरसे में कोई मुस्लिम महिला बच्चों को पढ़ाए तो अचरज होना लाजमी है। यहां दो बहनें फातिमा और जैनब बतौर शिक्षक बालिका शिक्षा की अलख जगा रही है।
मूलत: गोरामाणियों की ढाणी नगर गुड़ामालनी की निवासी दोनों बहनों के गांव में भी अधिकांश अल्पसंख्यक बालिकाएं अनपढ़ है। ऎसे में उनके पिता अब्दुल रऊफ ने इस सोच का बदला और अपनी बड़ी बेटी जैनब को कुछ साल पहले गुजरात के धरोल कच्छ जिला जामनगर पढ़ने को भेजा।
इसके बाद उसकी छोटी बेटी फातिमा को वहां पढ़ाया। दोनों ने वहां से आलीमा की डिग्री प्राप्त की और अब वे खारची में बतौर शिक्षक सेवा दे रही है। उनके आने का असर यह रहा कि इस मदरसे में वर्तमान में करीब सौ बालिकाएं शिक्षा हासिल कर रही है। इसमें से दो बालिकाएं शहरबानो व लतीफा जो खारची से करीब साठ किमी दूर गांव जूनेजो की बस्ती कोटड़ा से यहां आकर पढ़ रही है, वर्तमान में कक्षा ग्यारहवीं की छात्राएं हैं। उनके अलावा कई बालिकाएं अन्य गांवों से यहां आकर शिक्षा अध्ययन कर रही हैं।
जमाने के साथ भी
इस मदरसे ने जमाने के साथ चलने का निर्णय किया। इसके चलते यहां बालिकाओं न केवल मजहबी तालिम व दीनी तालिम दी जाती है वरन् कम्प्यूटर शिक्षा से भी जोड़ा गया है। यहां की बालिकाएं कम्प्यूटर में भी दक्ष है।
बदलने लगी है सोच
तालिम के बिना समाज की तरक्की संभव नहीं है। अल्पसंख्यक वर्ग में विशेषकर बालिकाओं की तालिम कम है। जैनब व फातिमा के आने के बाद बालिका शिक्षा को लेकर लोगों की सोच बदलने लगी है।
- मौलवी ताज मोहम्मद
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