मंगलवार, 2 अगस्त 2011

राजस्थान दर्शन भाग ......श्री नाकोडा तीर्थ बाड़मेर


श्री नाकोडा तीर्थ


राजस्थान के पश्चिमी क्षेत्र के बाड़मेर जिले के बालोतरा औद्योगिक कस्बे से १२ किलोमीटर दूर पर्वतीय श्रृंखलाओं के मध्य प्राकृतिक नयनाभिराम दृश्यों, प्राचीन स्थापत्य एवं शिल्पकला कृतियों के बेजोड़ नमूनों, आधुनिक साज सज्जा से परिपूर्ण विश्वविख्यात जैन तीर्थ श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ आया हुआ है। राजस्थान का इतिहास अपने त्याग, बलिदान, देशभक्ति एवं शूरवीरता के लिए जगत में स्थान बनाए हुए है। इस प्रदेश के साहित्य, शिल्प एवं स्थापत्य कला में जैन धर्मावलंबियों का विशेष योगदान रहा है। प्रत्येक क्षेत्र में सूक्ष्म शिल्पकलाकृतियों, गगनचुंबी इमारतों के रूप में अनेक जैन तीर्थ स्थल बने हुए हैं। इन धार्मिक श्रृंखलाओं में कड़ी जोड़ने वाला श्वेतांबर जैन तीर्थ नाकोड़ा पार्श्वनाथ आज प्राचीन वैभव सुंदर शिल्पकला, दानदाताओं की उदारता, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, त्याग मुनिवरों का प्रेरणा केंद्र, तपस्वियों की साधना भूमि, पुरातत्व विशेषज्ञों की जिज्ञासा स्थल, जैनाचार्यों द्वारा उपदेश देकर निर्मित अनेक जैन बिम्ब, सैकड़ाें प्राचीन एवं नवनिर्मित जिन प्रतिमाओं का संग्रहालय, पार्श्व प्रभु के जन्म कल्याणक मेले की पुण्य भूमि आज आधुनिक वातावरण से परिपूर्ण देश का गौरव बनी हुई है, साथ ही जन-जन की आस्था के रूप में विख्यात है। तीर्थ के अधिष्ठापक देव भैरुजी के अद्भुत चमत्कारों व मनोवांछित फल प्रदायक से देश के कोने-कोने से श्रद्धालुओं का हजारों की संख्या में आवागमन होता है। ऐतिहासिक नाकोड़ा स्थल का प्राचीन इतिहास से गहरा संबंध है। वि. स. ३ में इस स्थान के उदय होने का आभास मिलता है, यद्यपि इस संबंध में कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है, फिर भी कुछ प्रचीन गीतों, भजनों एवं चारण, भाटों की जनश्रुति के अनुसार वीरमदेव एवं नाकोरसेन दोनों बंधुओं ने क्रमशः वीरमपुर, वीरपुर एवं नाकार नगरों की स्थापना की थी। आचार्य एयुलि भद्रसुरि की निश्रा में वीरमपुर में श्री भगवान चंद्रप्रभु की एवं नाकार में सुविधिनाथ की जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई गई थी। नाकोड़ा तीर्थ के मुख्य भगवान पार्श्वनाथ मंदिर का विशाल शिखर है तथा आजू-बाजू दो छोटे शिखर हैं। मंदिर में मूल गंभारा, गूढ मंडप, सभा मंडप, नवचौकी, श्रृंगार चौकी और झरोखे बने हुए हैं, जो देखने में साधारण से हैं उन्हें संगमरमर पाषाणों की बारीक शिल्पकलाकृतियों से सजाा गया है। मंदिर में तीर्थोंद्धारक खतरगच्छ आचार्य कीर्तिरत्न सुरिजी की पीत्त पाषाण की प्रतिमा विराजमान है, जिस पर सं. १३५६ का शिलालेख विद्यमान है, इनके ठीक सामने तीर्थ के अधिष्ठायक देव भैरुजी की मनमोहक आकर्षक प्रतिमा प्रतिष्ठित है , जिनके चमत्कारों से इस तीर्थ की दिनोंदिन ख्याति हो रही है। मंदिर में निर्माण संबंधित शिलालेख सं. १६३८, १६६७, १६८२, १८६४ एवं १८६५ के भी मौजूद हैं। मुख्य मंदिर के पीछे ऊंचाई पर प्रथम तीर्थंकर आदेश्वर भगवान का शिल्पकलाकृतियों का खजाना लिए हुए मंदिर विद्यमान है। इस मंदिर का निर्माण वीरमपुर के सेठ मालाशाह की बहिन लाछीबाई ने करवाकर इसकी प्रतिष्ठा सं. १५१२ में करवाई। उस समय इस मंदिर में विमलनाथ स्वामी की प्रतिमा थी, लेकिन अब मूलनायक के रूप में श्वेत पाषाण की राजा संप्रति के काल में बी ऋषभदेव भगवान की प्रतिमा विराजमान है।
मंदिर के विशाल शिखर व खंभों पर विभिन्न आकृतियों की सुंदर प्रतिमाएं शिल्पकला के बेजोड़ नमूने को श्रद्धालु घंटों तक निहारने के बावजूद थकान महसूस नहीं करते। इसके समीप भारत पाक विभाजन के समय सिधु प्रदेश के हानानगर से आई प्रतिमाओं का भव्य चौमुखा मंदिर कांच की कारीगरी का बेजोड़ नमूना है। तीर्थ का तीसरा मुख्य मंदिर १६ वें तीर्थंकर भगवान शांतिनाथजी का है, जिसका निर्माण सुखमालीसी गांव के सेठ मालाशाह संखलेचा ने अपनी माता की इच्छा पर करवाया। मंदिर के खंभों पर आबू व देलवाड़ा के मंदिरों की कारीगरी का आभास मिलता है। सूरजपोल में प्रवेश करते ही बाईं ओर सफेद संगमरमर की बारीक नक्काशीदार सीढ़यों से मंदिर का मुख्य मार्ग है तथा मंदिर के मुख्य मार्ग पर कलात्मक पटवों की हवेली जैसलमेर जैसे झरोखे बनाए हुए हैं। इस मंदिर की प्रतिष्ठा वि.स. १५१८ में गुरुदेव श्री जिनदत्त सूरि म. सा. ने एक बड़े महोत्सव में करवाई। मंदिर के प्रवेश द्वार बारीक नक्काशीदार के ठीक ऊपर श्रृंगार चौकी बनी हुई है जहां पीत पाषाण से निर्मित देव पुतलिकाएं विभिन्न वाद्य यंत्रों, नृत्य मुद्राओं के साथ संगीतमय उत्सव की झांकी प्रस्तुत करती हैं। इसी के पास नवचौकी के नीचे ही एक पीत पाषाण पर बारीकी कलाकृतिाें के बीच लक्ष्मीदेवी की मूर्ति उत्कीर्ण है। मंदिर के मूल गंभारे में भगवान शांतिनाथ की ३४ इंच प्रतिमा के दाईं ओर भगवान सुपार्श्वनाथजी की २७ इंच व बाईं ओर भगवान चंद्रप्रभुजी की २७ इंच प्रतिमा विराजमान है, जहां की उत्कृष्ट स्थापत्य कला को निहारते हुए सभी पुलकित हो उठते हैं। मूल गंभारे के बाईं ओर गोखले (आलेय) में दादा जिनदत्तसूरिजी विराजमान हैं, जिनकी निश्रा में इस मंदिर की प्रतिष्ठा हुई थी। ऐसे यशस्वी दादा गुरुदेव के पावन पागलिये बाईं ओर के गोखले में सफेद संगमरमर पर स्वर्ण निर्मित हैं। इन प्रतिमाओं एवं पगलियों की प्रतिष्ठा २००८ में दादा जिनदत्त सूरिजी म.सा. ने करवाई थी। मंदिर के पिछवाड़े में श्रीपाल मेयनासुंदरी भव्य अनुपम चौमुखा मंदिर है। इसके आगे चलने पर श्रृंखलाबद्ध खंभों की कतार के मध्य विविध चित्रों के माध्यम से भगवान शांतिनाथजी के १२ भवों के पठों को कलात्मक चित्रों द्वारा उल्लेखित किया गया है। सूरजपोल के बाहर एक ओर महावीर स्मृति भवन स्थित है, जब महावीर स्वामी का २५०० वां निर्वाण महोत्सव वर्ष १९७५ में मनाया गया था तब ट्रस्ट मंडल द्वारा इस भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। इशके भीतर भगवान श्री महावीर स्वामी की आदमकद प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमा के दोनों ओर भव्य सुसज्जित हाथी अपने मुंह से चंवर ढुलाते, धुपकरते, कलश से जल चढ़ाते, पुष्प अर्जित करते व दीप प्रज्वलित करते दर्शाए गए हैं और साथ ही भगवान की आरती वंदना करते नर-नारी दिखाए गए हैं।
इस आधुनिक भवन निर्माण कला और सुसज्जित विशाल हॉल में दोनों ओर आकर्षक चित्रों के माध्यम से भगवान श्री महावीर स्वामी के जीवन काल की घटनाओं का चित्रण किया गया है। सुरजपोल के ठीक सामने टेकरी पर पूर्व की ओर दादा श्री जिनदत्त सूरिजी म.सा. की दादावाड़ी स्थित है। इसका निर्माण व प्रतिष्ठा संवत २००० में हुई। दादावाड़ी की सीढ़यों पर चढ़ने से पूर्व सफेद संगमरमर के पाषाण का कलात्मक तोरण द्वार है जिसे शिल्पकारों ने अपने अथक कला एवं श्रम से सजाया एवं संवारा है। दादावाड़ी में श्री जिनदत्त सूरिजी, मणिधारी स्री जिनचंद्रसूरिजी, श्री जिनकुशलसूरीजी व श्री युगप्रधान श्री चंद्रसूरिजी के छोटे चरण प्रतिष्ठित हैं। दादावाड़ी से नीचे उतरते सम एक ओर सफेद संगमरमर का श्रृंखलाबद्ध भव्य नवनिर्मित मंगल कलश दृष्टिगोचर होता है। दादावाड़ी के पीछे आचार्य लक्ष्मी सूरिजी भव्य सफेद संगमरमर का गुरु मंदिर श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र है, इसके आगे श्री कीर्तिरत्नसुरिजी की दादावाड़ी स्थित है। दादावाड़ी के आगे बिखरे खंडहरों की बस्ती एवं कुछ टूटे फूटे मंदिर आज भी प्राचीन वैभव, शिल्पकला एवं इतिहास का स्मरण कराते हैं। मुख्य मंदिर के पीछे १२०० फीट की उंची पहाड़ी पर सफेद रंग की आभा से सुशोभित श्री जिनकुशलसूरिजीकी दादावाड़ी स्थित है। प्राकृतिक थपेड़ाें मुगल शासकों की आक्रमण नीति के अलावा इस तीर्थ की विनाश की एक करुण कहानी भी रही है। सेठ मालाशाह संखलेचा कुल के नानक संखलेचा को स्थानीय शासक पुत्र ने उनकी लंबी सिर की चोटी को काटकर अपने घोड़े के लिए चाबुक बनाने की ठानी। सेठ परिवार ने इसे अपना अपमान समझकर इस स्थान को छोड़कर जैसलमेर की ओर चल दिए, यह घटना १७ वीं शताब्दी की है। उपर्युक्त घटना से वहां का संपूर्ण समाज यहां से विदा हो गया, जिससे तीर्थ की व्यवस्था एवं विकास दो सौ वर्ष तक रुका रहा, उसके बाद में साध्वी सुंदरश्री ने आकर इसके चहुंमुखी विकास में नई जान फूंकी। साध्वी श्री प्रतिमा सांवलिया पार्श्वनाथ जिनालय में विराजमान हैं। तीर्थ के विकास में आचार्य हिमाचलसूरिजी एवं आचार्य जिनकांतिसागर सूरिश्वरजी म.सा. के सहयोग को भी नहीं भुलाया जा सकता। मुख्य मंदिर के समीप सफेद संगमरमर के पाषाण की पेढ़ी एवं सभागार है, जहां पौष दशमी मेले एवं अन्य बैठकों का आयोजन के साथ ट्रस्ट मंडल द्वारा विभिन्न समारोह इसी प्रांगण में आयोजित किए जाते हैं। श्री जैन श्वेतांबर नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ ट्रस्ट मंडल तीर्थ की संपूर्ण सुरक्षा, रख-रखाव, नवनिर्माण, यात्रियों को पूर्ण सुविधाएं, साधु-साध्वियों को पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध करवाने में हर समय सक्रिय रहते हैं। यात्रियों की सुविधा के लिए तीर्थ पर कमरों की लंबी श्रृंखलाओं के साथ भव्य सुविधायुक्त श्रीपाल, भवन, महावीर भवन, आदेश्वर भवन, पार्श्व यात्री निवास के साथ विशाल धर्मशालाएं बनी हुई हैं, उसके बावजूद यात्रियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए ट्रस्टी मंडल द्वारा और धर्मशालाएं बनाना प्रस्तावित है। तीर्थ पर विशाल भैरव भोजनशाला बनी हुई है तथा मेले के समय विशाल भू-भाग में फैले नवकारसी भवन का उपयोग किया जाता है।

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