गुरुवार, 21 जुलाई 2011

आज थार माण्ड से सूना हो गया,मुफलिसी से हारी माण्ड गायिका रुकमा देवी


विकलांगता से नहीं,मुफलिसी से हारी माण्ड गायिका रुकमा देवी







बाड़मेर  पष्चिमी राजस्थान के थार रेगिस्तान की खास पहचान माण्ड गायिकी को लोक गायिका रुखमों ने नई उॅचाईयां प्रदान की हैं।थार की थळी की एकमात्र माण्ड गायिका रुखमों विकलांग होते हुए भी माण्ड गायिकी की सरताज मल्लिका रेषमा,अलनजिला बाई,मांगी बाई,गवरी देवी की कतार में अपना विषिष्ठ स्थान बनाया हैं।बाड़मेर के छोटे से गॉव जाणकी में लोक गायक बसरा खान के घर जन्मी रुखमा का जीवन मुफलिसी में गुजरा।आज रुखमों ने अपनी जिन्दगी की अन्तिम सांस ली।रूकमा की मौत के साथ थार   में माण्ड गायिकी कीएक परमपरा का अन्त हो गया।


रुखमों की दादी अकला देवी तथा माता आसी देवी अविभाजित भारत के थार क्षेत्र की ख्यातनाम माण्ड़ गायिका थी।थार क्षैत्र में उनका कोई सानी ना था।उनकी माता माण्ड गायिकी की जीती जागती उदाहरण थी।आसी बाई के सुरिले कण्ठों ने उन्हे ख्याति दिलाई थी। परिवार में लोक संस्कृति और लोक गायिकी के खजाने ने रुखमों के मन में लोक गीत संगीत के प्रति उनकी रुचि बढा दी थी।


रुखमों ने अपनी माता से माण्ड गायिकी की बारिकीयां सीखी।रुखमों के पिता लोक गायक थे।परिवार में लोक गीत संगीत के माहौल से रुखमों की दीवानगी गायिकी के प्रति बढती गइर्।ंसीखने की ललक ने बहुत जल्द रुखमों ने लोक गायिकी एवम संगीत की कला सीख ली।

माण्ड का नाम आते ही मर्मस्पर्षी गीत केसरिया बालम आऔ नी पधारो म्हारे देस के स्वर गॅूज उठते हैं तथा उस नायिका का मान-मनुहार,मिलन की ललक और विरह वेदना साकार हो उठती हैं जिसकी प्रियतम के लौट आने कीप्रतिक्षा में  दिन रात गिनते गिनते उंगलियों की रेखाएं घिस जाती 
हैं और तन इतना क्षीण हो जाता हैं कि उंगली ी े 
 की अंगुठी से बांह निकल जाती हैं।


मन की कथा -व्यथा को अभिव्यक्त करने,संयोग तथा वियोग श्रृंगार के विविध पहलुओं को उजागर करने ,हरदय की गहन अनुभूतियों,मन के हुळास ओैर समृतियों की डोर पकड़े ये लोक गीत यों तो गायक श्रोता दोनो की मन-वीणा को झंकृत कर देते हैं किन्तु यदि गायक का कण्ठ सुरिला एवं स्वरलचकदार हो तो श्रोता सहज ही गीत की अअत्मा से साक्षात्कार कर उद्धेलित हो उठता हैं।गीतमें छिपें मर्म सेतादात्म्य स्थापित
 कर वह भाव लोक में विचरण करने लगता हैं।


कोई छः दषक पहले थार की थळी में जन्मी रुखमों भी ऐसी गायिका हैं,जिन्हें ना केवल हजारों लोक गीत कण्ठस्थ हें,बल्कि अपनी मौलिक षैली में खटके और मुर्कियों का प्रयोग कर उन्होने माण्ड गायिकी को नई उॅचाईयां प्रदान की हैं।माण्ड समारोह हो या अन्य कार्यक्रम,रुखमों के सूरीले कण्ठ की उपस्थिति से दर्षक भाव विभोर हो उठते है।ं


रुखमों को लोक गीत संगीत की षिक्षा अपने परिवार से परम्परागत रुप से मिली हैं।अपने माता-पिता के साथ गांवो के उच्च घरानेंा में गाते गात लोक गीतों की जुबान सीखी।रुखमों में सीखने की गजब की ललक को देखते हुए उनके पिता ने लोक गायिकी के परम्परागत उस्तादों के पासे लोक गीतों की बारिकीयां सीखने भेजा।जल्द रुखमों ने लोक गीतो की विषिष्ठ षैली सीख ली।रुखमों ने स्ािानिय कार्यक्रमों में लोक माण्ड गायिकी षुरु की,इसके बाद उन्होने पीछे मुड़कर नहीं देखा।रुखमों की लोक गायिकी में गजब की कषक थी,जिसके चलते उनकी ख्याति जल्द चरोऔरफौल गईं। 


 दलित समाज की परम्पराओं को तोड़ कर माण्ड गायिकी को थार के मरुस्थल से सात समुन्द्र पार विदेषो में ख्याति दिलाने वाली क्षैत्र की पहली माण्ड गायिका रुकमा देवी जिसे थार की लता कहा जाता है,आर्थिक अभाव में मुफलिसी के दौर से गुजर रही हैं।संदुक भरे सम्मान और पुरस्कार उसे दो वक्त की रोटी नहीं दे पा रहे। रुकमा विकलांगता के आगे कभी नहीं हारी मगर अब मुफलिसी के आगे हार बैठी।


थार की थळी के लोक गीतों को अपने सुरीले कण्ठों से सात समुन्द्र पार सरिता बहाने वाली रुकमा को दाद तो  खूब मिली मगर दो वक्त चुल्हा जले ईतनी कमाई नहीं।दोनो पैरो से विकलांग रुकमों की गायिकी में गजब कषिष हैं।ढोल की थाप पर जब वह माण्ड षैली में केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देस गाती हैं तो 
लोक गीत संगीत प्रेमी मदमस्त हो जाते यही कारण है कि रुकमा की माण्ड गायिकी ने सात समन्दर पार ख्याति अर्जित की।लगभग चालीस से अधिक देषो में अपनी माण्ड गायिकी की छटा बिखेरने वाली रुकमों ने समस्त राजस्थान व भारत के प्रमुख षहरों में हजारों कार्यक्रम किये।


दोनो पांवों से विकलांग रुखमा देवी इस वक्त बाड़मेर से पैंसठ किलोमीटर दूर रामसर गांव के छोर पर बिना दरवाजों के कच्चे झौंपड़े में रह रही हैं।लोक गीत संगीत की पूजा करने वाली रुकमा देवी ने अपने जीवन के पचास साल माण्ड गायिकी को परवान चढाने में निकाल दिये।े।अनपढ,विकलांग,विधवा,पिछड़ी,और दलित र्वग की महिला कलाकार को देष विदेष में मान सम्मान खूब मिला, राष्टृीय देवी अहिल्या सम्मान,सत्य षांति सम्मान,भोरुका सम्मान,कर्णधार सम्मान, सहित अनेक सम्मान प्रमाण पत्रों ताम्रपत्र लोह पत्र के सम्मान से रुकमा की संदुक भरी पड़ी हैं। अन्तराष्टृीय स्तर पर ख्याती अर्जित करने वाली रुकमा देवी के नाम से इन्टरनेट पर साईटें भरी पड़ी हें।


इतना नाम होने के बावजूद रुकमा अपने रहने के लिये एक आषियाना नहीं बना सकी।रामसर गांव के एक कोने में मुफलिसी का दौर गुजार रही है।रुकमा देवी ने बताया किमाण्ड गायिका होने की कीमत चुका रही हूॅ,खाने को दो वक्त की रौटी का इंतजाम नहीं हैं।सरकार की तरफ से कोई सहायता नहीं मिली।बीपीएल में चयन तक नहीं हैं।विधवा एवं विकलांग होने के बावजूद पेंषन नहीं मिलती।सरप।च कहता हैं कि रुकमा अन्तराष्टृीय कलाकार हैं,उसके क्या कमी।उम्र के इस पड़ाव में यजमानों के यहॉ मांगने नहीं जा सकती।एक कलाकार के जीवन का अन्त इतना बुरा हो सकता हैं सोचा ना था।


दोनो पांवो से विकलांग रुखमों ने कभी हिम्मत नहीं हारी।घर-परिवार की जिम्मेदारियॉ निभाने के साथ साथ अपनी प्रतिभा को जिन्दा रखना सबसे बड़ी चुनोती थी,रुखमों के सामने,।रुखमों ने अब तक सैकड़ो कार्यक्रम देष-विदेष मदेकर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा दिया। रुखमों ने लोक गायिकी के पारम्परिक मोलिकता को बनाए रखां।रुखमों का मानना हैं कि लोक गीतो की भाषा से खिलवाड़ करना,,उनकी धुन और लय में आधूनिक परिर्वतन करना तथा उनका फिल्मीकरण करना गलत हैं।इससे लोक गीतों की मौलिकता नष्ट होती हैं।लोक गीत अपनी विषिष्ठ षैली के कारण ही संगीत प्रमियो का इसकी तरफ अब तक रुझान बना हुआ हैं।
ें 


रु खमों के माण्ड़ गायिकी में सिद्धहस्ती के परिणामस्वरुप विदेषी संगीत प्रेमी माण्ड गायिकी सीखने रुखमों के पास आते हैं।रुखमों की षार्गिद आस्टृेलिया निवासी सेरहा मेडी ने रुखमा से माण्ड गायिकी सीख जवाहर कला केन्द्र जयपुर में अपनी प्रस्तूति केसरिया बालम  दे कर सबको चौंका दिया।मेडी न ेजब मंच पर रुखमों के साथ केसरिया  बालम,चूड़ियॉ और पणिहारन लोक गीतों की प्रस्तुतियां देकर श्रोताओं को मद मस्त कर दिया।रुखमों के लिये यह कार्यक्रम हार्टलैण्ड प्रोगा्रम यादगार बन गया। मेडी  ने दस दिन तक रुखमों के सानिध्य में रामसर उनके टूटे फूटे झोंपड़े में रहकर माण्ड गायिकी सीखी।मेडी ने पहली र्मतबा थार महोत्सव में रुखमों के साथ माण्ड गायन कर ख्याति अर्जित की।


विख्यात मल्लिका सारा भाई्र ने रुखमेों के जीवन पर डिस्कवरी चैनल पर एक घण्टै का वृत चित्र प्रसारित कर उनकी ख्याति में चार चान्द लगा दिए।




जीवन के इस पड़ाव में रुकमा को दर्द था कि उनकी माण्ड गायिकी की विरासत उसके साथ खत्म हो जाएगी।इस कला को वह सिखाना चाहती हैं मगर कोई आगे नहीं आ रहा हैं।रुकमा की इस विरासत को उसकी छोटी बहु हनीफा अपनाने का प्रयास कर रही हैं।ताकि रुकमा की विरासत जिन्दा रहे।आज थार माण्ड से सूना हो गया।



1 टिप्पणी:

  1. आज रूखमों के बगैर थार सूना पड़ गया... उनके बिना थार के संगीत की कल्पना ही नहीं की जा सकती। रूखमों ने भारत ही नहीं विदशों में भी सैकड़ों कार्यक्रम किए लेकिन उसका फायदा सरकारी और गैर-सरकारी दलालों ने उठाया, नतीजन रूखमों हमेशा फाकाकशी ही करती रही। दरअसल रूखमों को तो उनके अपने ही छल गए...
    मुझे आज भी याद है जब बाड़मेर में एक बार पिताजी ने इनके कार्यक्रम में (शायद थार महोत्सव में) तालियां बजाते लोगों के बारे में कहा था कि- 'मिनखां रो कईं है, ए तो अबार ताली बजार न चलया जाईं। पण तालियां सूं पेट तो कोनी भरे, मन भले भर जावे।' यही शिकायत मित्रों की भी थी।
    रूखमों से पहली बार संस्कृतिकर्मी भुवनेश जैन और कमलेश नामा के मार्फत मिला और अंतिम बार भगवान बारूपाल और समंदर मंगणियार के मार्फत जयपुर में। पर हर बार अकेले में उनकी आँखे में गहराता सूनापन ही अधिक दिखा। सूनापन माँड के उत्तराधिकार को लेकर, सूनापन पेट की आग की खातिर।
    सच में पेट की आग से बड़ी कोई आग नहीं। अंततः वही आग उन्हें लील गई। कई बार लगता है कि लोक कलाकार और फाकाकशी जैसे एकमेव हो चुके है। उनकी स्मृतियों को विनम्र श्रद्धांजलि... सलाम उनकी अदम्य-जिजीविषा को, सलाम उनके हुनर को, सलाम उनकी सृजनधर्मिता को और आभार आपकी कलमकारी का जिसने उन्हें यूं गुमनामी न रहने दिया... वे हमेशा जीवित रहेंगी, थार के कण-कण में, थारवासियों की, आपकी और हमारी स्मृतियों में...

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