श्रीनाथद्वारा
श्रीवल्लभाचार्य के सम्प्रदाय का श्रीनाथ द्वारा मंदिर वैष्णव और वल्लभ सम्प्रदाय ही नहीं समूचे हिंदू समाज के लिए महत्व रखता है। राजस्थान के उदयपुर शहर से 30 मील की दूरी पर स्थित प्रसिद्ध एकलिंगजी स्थान से मात्र 17 मील उत्तर में स्थित है यह विश्व प्रसिद्ध मंदिर।
अन्य मंदिरों से भिन्न, यहाँ पुष्टिमार्ग के नियमानुसार ही समय-समय पर श्रीनाथ जी की मूर्ति के दर्शन कराए जाते हैं। वल्लभाचार्य को ही गोवर्धन पर्वत (मथुरा) पर श्रीनाथजी की मूर्ति मिली थी। उसी मूर्ति को पहले घिसार फिर यहाँ स्थापित किया गया है।
वल्लभाचार्य के द्वितीय पुत्र विट्ठलनाथ के कुल सात पुत्रों की पूजन की मूर्तियाँ अलग-अलग थी। यह वैष्णवों में सात स्वरुप के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके बड़े पुत्र गिरिधरजी तिलकायत थे। इसी से उनके वंशल नाथद्वारे के गुसाईजी टिकायत या तिलकायत महाराज कहलाने लगे। श्रीनाथजी की मूर्ति गिरिधरजी के पूजन में रही।
मान्यता अनुसार औरंगजेब ने जब हिंदुओं की मूतियाँ तोड़ने की आज्ञा दी, तब श्रीनाथजी की मूर्ति तोड़ दिए जाने के भय से दामोदरजी, जो गिरिधरजी के पुत्र थे प्रतिमा को लेकर सन 1669 (विक्रम संवत 1726) में गोवर्धन से निकल गए तथा कई स्थानों से होते हुए चांपासणी गाँव (जोधपुर राज्य) में पहुँचे।
बाद में मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा राजसिंह के निवेदन से मूर्ति को सन 1671 (विक्रम संवत 1728) को मेवाड़ ले आए जहाँ बनास नदी के किनारे सिहाड़ गाँव के पास वाले खेड़े में लाकर उसकी प्रतिष्ठा कर दी गई।
श्रीवल्लभाचार्य के सम्प्रदाय का श्रीनाथ द्वारा मंदिर वैष्णव और वल्लभ सम्प्रदाय ही नहीं समूचे हिंदू समाज के लिए महत्व रखता है। राजस्थान के उदयपुर शहर से 30 मील की दूरी पर स्थित प्रसिद्ध एकलिंगजी स्थान से मात्र 17 मील उत्तर में स्थित है यह विश्व प्रसिद्ध मंदिर।
अन्य मंदिरों से भिन्न, यहाँ पुष्टिमार्ग के नियमानुसार ही समय-समय पर श्रीनाथ जी की मूर्ति के दर्शन कराए जाते हैं। वल्लभाचार्य को ही गोवर्धन पर्वत (मथुरा) पर श्रीनाथजी की मूर्ति मिली थी। उसी मूर्ति को पहले घिसार फिर यहाँ स्थापित किया गया है।
वल्लभाचार्य के द्वितीय पुत्र विट्ठलनाथ के कुल सात पुत्रों की पूजन की मूर्तियाँ अलग-अलग थी। यह वैष्णवों में सात स्वरुप के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके बड़े पुत्र गिरिधरजी तिलकायत थे। इसी से उनके वंशल नाथद्वारे के गुसाईजी टिकायत या तिलकायत महाराज कहलाने लगे। श्रीनाथजी की मूर्ति गिरिधरजी के पूजन में रही।
मान्यता अनुसार औरंगजेब ने जब हिंदुओं की मूतियाँ तोड़ने की आज्ञा दी, तब श्रीनाथजी की मूर्ति तोड़ दिए जाने के भय से दामोदरजी, जो गिरिधरजी के पुत्र थे प्रतिमा को लेकर सन 1669 (विक्रम संवत 1726) में गोवर्धन से निकल गए तथा कई स्थानों से होते हुए चांपासणी गाँव (जोधपुर राज्य) में पहुँचे।
बाद में मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा राजसिंह के निवेदन से मूर्ति को सन 1671 (विक्रम संवत 1728) को मेवाड़ ले आए जहाँ बनास नदी के किनारे सिहाड़ गाँव के पास वाले खेड़े में लाकर उसकी प्रतिष्ठा कर दी गई।
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