सोमवार, 27 जून 2011

राजस्थान दर्शन भाग 2......चित्तोड़ गढ़


रणनीति के दृष्टिकोण से चित्तौड़गढ़ का राजधानी के रुप में महत्व
चित्तौड़गढ़ का किला राजपूताने में हमेशा एक विशेष महत्व रखता है। इसे मेवाड़ के गुहिलवंशियों की पहली राजधानी के रुप में सम्मान प्राप्त है, जिसे उन्होंने मौर्यवंश के अंतिम शासक मानमोनी को हराकर अपने अधिकार में कर लिया था। यह दुर्ग अरावली की पहाड़ी पर उत्तर से दक्षिण की ओर लंबाई में बना है, जिसमें बीच में समतल भूमि आ जाने के कारण एक कुंड, तालाब, मंदिर, महल आदि सभी एक निश्चित निर्माण-योजना के तहत समय-समय पर बनते रहे हैं। कुछ जलाशय तो ऐसे हैं जो निरन्तर जलापूर्ति के साधन के रुप में काम आते रहे हैं। इस गढ़ के सम्बन्ध में प्रचलित एक कहावत है जो इस दुर्ग के महत्व को बताता है।

गढ़ तो चित्तौड़गढ़ और सब गढ़ैया
वास्तव में इस दुर्ग का निर्माण अभी भी हमें विस्मय व रोमांच से भर देता है। लेकिन रणनीतिक दृष्टिकोण से देखने पर पता चलता है कि अपने भौगोलिक कारणों से यह दुर्ग युद्ध के लिए रणथंभौर और कुभलगढ़ जैसे दुर्गों की तरह उपयुक्त नहीं था। नि:संदेह किला सुदृढ़ था। पहाड़ी के किनारे-किनारे उदग्र खड़े चट्टानों की पंक्ति थी जिसके ऊपर एक ऊँचा और सुदृढ़ प्रकार बना हुआ था। साथ ही साथ दुर्ग में प्रवेश करने के लिए लगातार सात दरवाजे कुछ अन्तराल पर बनाए गये थे। इन सब कारणों से किले में प्रवेश कर पाना तो शत्रुओं के लिए बहुत ही मुश्किल था। परन्तु यह विस्तृत मैदान के बीच एक लम्बी पहाड़ी पर बना है जो अन्य पर्वत श्रेणियों से पृथक हो गया है। अतएव शत्रुओं द्वारा उसका घेरा डालकर किले में इस्तेमाल होने वाला रसद पहुँचाना सुगमता से रोक दिया जाता था। इस दुर्ग का जब-जब घेरा डाला गया तब-तब गढ़ में भोजन-सामग्री विद्यमान रहने तक ही गढ़ सुरक्षित रहा। भोजनादि सामग्री खत्म होते ही राजपूतों को विवश होकर युद्ध के लिए किले का द्वार खोल देना पड़ता था। लेकिन प्रायः शत्रुओं की बड़ी सेना होने की स्थिति में उन्हें हार का सामना करना पड़ता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि चित्तौड़गढ़ का राजधानी के रुप में चयन रणनीति की दृष्टि से उचित नहीं था और यही कारण था कि महाराणा उदय सिंह ने उदयपुर को अपनी राजधानी बनाई, जो चारों तरफ पर्वतों से घिरे होने के कारण ज्यादा सुरक्षित था।





वर्तमान में चित्तौड़गढ़ जंक्शन से किले के ऊपर तक पक्की सड़क बनी हुई है। करीब सवा मील जाने पर गम्भीरी नदी आती है, जिसपर अलाउद्दीन खिलजी के शाहजादे खिज्र खाँ का सन् १३०३ (वि. सं. १३६०) में बनवाया हुआ पत्थर का एक सुदृढ़ पुल है। कुछ लोगों का मानना है कि यह पुल राणा लक्ष्मण सिंह के पुत्र अरिसिंह ने, जो अलाउद्दीन के साथ लड़ाई में मारा गया था, ने बनवाया था, लेकिन ज्यादातर विद्वान इससे सहमत नहीं हैं, क्योंकि इस पुल के निर्माण में कई हिन्दु और जैन मंदिरों को गिराकर उसके पत्थरों का इस्तेमाल किया गया है। साथ ही इसकी निर्माण शैली भी मुसलमान (सारसेनिक) है। नदी के जल प्रवाह के लिए दस मेहरावें बनी हैं, जिसमें नौ के ऊपर के सिरे नुकीले हैं। नदी के पश्चिमी तट से छठे का अग्रभाग अर्धवृत्ताकार है।
पुल से थोड़ी दूर जाने पर कोट से घिरा हुआ चित्तौड़ का कस्बा आता है जिसको तलहटी (तलहट्टिका) कहते हैं। कस्बे में जिले की कचहरी है, जिस के पास से किले की चढ़ाई प्रारम्भ हो जाती है। दुर्ग के अंतिम प्रवेश तक कुल सात दरवाजे बनाये गये हैं। इसमें प्रवेश के रास्ते से लेकर अन्दर के परिसर तक कई एक इमारतें हैं, जिनका संक्षिप्त उल्लेख इस प्रकार है-

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