भगवान जगन्नाथ जगतपति हैं। संपूर्ण सृष्टि का संचालन उनकी शक्ति से होता है। आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की द्वितीया (वर्ष 2015 में 18 जुलाई-शनिवार) भगवान की रथयात्रा निकाली जाती है।
इस रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा अपने रथों पर भ्रमण करते हैं। यह बहुत प्राचीन परंपरा है। उल्लेखनीय है कि एक निश्चित अंतराल के बाद भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की प्रतिमाएं भी बदली जाती हैं।
इस बार भी ये प्रतिमाएं बदली गई हैं। नए प्रतिमाआें की विधिवत रूप से पूजा कर उन्हें भ्रमण करवाया जाएगा। इन प्रतिमाओं को तैयार करने की विधि और उससे जुड़ी परंपराएं न केवल बहुत पुरानी हैं बल्कि वे अनोखी भी हैं।
ये प्रतिमाएं नीम की लकड़ी से तैयार की जाती हैं। चूंकि भगवान जगन्नाथ श्याम वर्ण के हैं। अतः लकड़ी का रंग भी उन्हीं के अनुकूल होना चाहिए। वहीं बलभद्र और सुभद्रा का रंग गोरा है इसलिए उनकी प्रतिमाओं का रंग उन्हीं के जैसा होना जरूरी है। तभी उस लकड़ी का चयन मूर्ति निर्माण के लिए होता है।
मूर्ति के लिए जिस पेड़ का चयन किया जाता है उसके भी विशेष नियम हैं। अगर इनमें से एक भी बात पूरी नहीं होती तो उससे भगवान की मूर्ति का निर्माण नहीं किया जाता।
पेड़ में होनी चाहिए इतनी खूबियां
मूर्ति निर्माण के लिए उस पेड़ में चार प्रमुख शाखाएं होनी चाहिए। चूंकि भगवान शेष शैया पर शयन करते हैं। अतः उस पेड़ की जड़ में सांप का बिल भी होना चाहिए। पेड़ के पास कोई तालाब, चींटियों की बांबी और श्मशान भी होना जरूरी है।
वह पेड़ किसी तिराहे के पास होना चाहिए। अगर तिराहे के पास नहीं है तो उसका तीन ओर से पहाड़ों से घिरा होना जरूरी है। उसके पास सहौदा, बेल आदि का पेड़ होना चाहिए। इतनी शर्तें पूरी होने के बाद ही उस वृक्ष से प्रतिमाएं बनाई जाती हैं।
ये प्रतिमाएं निश्चित अंतराल के बाद बदली जाती हैं। हिंदू पंचांग पद्धति के अनुसार जिस वर्ष दो आषाढ़ आते हैं उसी वर्ष प्रतिमाओं को बदला जाता है।
तिथियों के अनुसार यह संयोग 14 वर्ष बाद भी आ सकता है और 19 वर्ष बाद भी। इस साल दो आषाढ़ होने के कारण ये प्रतिमाएं बदली गई हैं। इससे पहले 1996 में प्रतिमाएं परिवर्तित की गई थीं।