चार महीने के शिशु की हत्या के आरोप में सऊदी अरब में काम कर रही एक श्रीलंकाई महिला का सिर कलम कर दिया गया है.
बच्चे का ख़्याल रखने वाली इस महिला रिज़ाना नफ़ीक ने वर्ष 2005 में उसकी हत्या के आरोप को हमेशा ग़लत बताया.रिज़ाना के समर्थकों के मुताबिक बच्चे की हत्या के वक्त वो 17 वर्ष की थीं. अब मानवाधिकार संगठनों ने उन्हें दिए दंड को बच्चों के अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों का उल्लंघन बताया है.
श्रीलंका सरकार ने भी सऊदी अरब की निंदा करते हुए कहा है कि क्षमा याचना की उनकी सभी अपील अनसुनी कर दी गईं.
सऊदी अरब के गृह मंत्रालय ने बुधवार को कहा कि रिज़ाना को इसलिए मारा गया क्योंकि बच्चे की मां के साथ बहस होने के बाद उन्होंने बच्चे की हत्या कर दी थी.
अनुवाद की दिक्कतें
रिज़ाना के मां-बाप ने सऊदी अरब के शाह अब्दुल्लाह से अपनी बेटी को माफ़ करने की कई अपील की थीं.
रिज़ाना को वर्ष 2007 में चार महीने के शिशु, नाइफ़ अल-कुतहैइबी, की हत्या का दोषी पाया गया था. दो साल पहले वो ही उसकी देख-रेख कर रहीं थी.
रिज़ाना के मुताबिक उनका पहला बयान दबाव में लिया गया और उन्हें अनुवादक की सुविधा भी मुहैया नहीं कराई गई.
बीबीसी संवाददाता चार्ल्स हैविलैंड वर्ष 2010 में रिज़ाना के घर गए थे, जहाँ उन्होंने उनके स्कूली दस्तावेज़ देखे. अगर ये सही हैं तो बच्चे की हत्या के समय रिज़ाना नाबालिग थीं और सऊदी अरब में काम करने के लिए एजेंटों ने उनके पासपोर्ट में जन्म तिथि की फर्जी जानकारी दी थी.
घरेलू नौकरों की सुरक्षा
रिज़ाना नफ़ीक के पासपोर्ट में लिखी जन्म तिथि के मुताबिक हत्या के समय वो 23 वर्ष की थीं.
मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक दोषी क़रार किए जाने से पहले रिज़ाना को वक़ील भी नहीं दिया गया.
ह्यूमन राइट्स वॉच की निशा वारिया के मुताबिक सऊदी अरब उन तीन देशों में से एक है जो किसी अपराध मे दोषी पाए गए बच्चों को भी जान से मार देता है.
निशा कहती हैं, “रिज़ाना नफ़ीक भी सऊदी अरब की न्यायिक प्रक्रिया की खामियों का शिकार बन गई हैं.”
इस सज़ा के बाद श्रीलंका में बढ़ती ग़रीबी और देश छोड़ मध्य-पूर्व में काम करने वाले नागरिकों की सुरक्षा पर बहस तेज़ हो गई है.
श्रीलंका की संसद में बुधवार को रिज़ाना की याद में एक मिनट का मौन रखा गया.
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) द्वारा जारी ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि घरों में काम करने वाले नौकरों को ज़्यादा सुरक्षा देने की ज़रूरत है.
आईएलओ की रिपोर्ट के मुताबिक घरेलू नौकरों में से केवल 10 फ़ीसदी पर ही अन्य कामकाजी लोगों की तरह श्रम क़ानून लागू होते हैं.