रविवार, 16 सितंबर 2018

*राजस्थान विधानसभा चुनाव 2018: ये हैं अहम जातियां, जिनके हाथों में रहती है सत्ता की चाबी*

*राजस्थान विधानसभा चुनाव 2018: ये हैं अहम जातियां, जिनके हाथों में रहती है सत्ता की चाबी*

नई दिल्लीः चार से पांच महीने बाद राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियां सत्ताधारी भाजपा और कांग्रेस अपने परंपरागत वोट बैंक को साधने में व्यस्त हैं, लेकिन इस बार गणित कुछ उलझा हुआ दिख रहा है. भाजपा और कांग्रेस को समर्थन करने वाली अहम जातियां इस बार अपने-अपने दलों से बिदकती दिख रही हैं. दरअसल, राज्य में राजपूत, जाट, गुर्जर और मीणा समुदाय राजनीतिक रूप से सबसे मुखर जातियां हैं. ये जातियां ही तय करती हैं कि राज्य की सत्ता किसके पास होगी. राज्य की आबादी में इन चारों की हिस्सेदारी करीब 30 फीसदी है. पिछले चुनाव में भाजपा की सीएम वसुंधरा राजे इन चार में से तीन जातियों राजपूत, जाट और गुर्जर को साधने में सफल रही थीं.

राजपूत राज्य में राजपूत समाज को परंपरागत रूप से भाजपा का समर्थक माना जाता है. राजस्थान के सबसे बड़े राजपूत नेता भैरों सिंह शेखावत और जसवंत सिंह थे. उन्होंने जनसंघ के समय से इस जाति को अपने से जोड़कर रखा. 1980 में भाजपा की स्थापना के बाद शेखावत ने दो बार राज्य की बागडोर संभाली. वह 1990 से 1992 और 1993 से 1998 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे. अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद 1992 में उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गई थी. इससे पहले आपातकाल के बाद 1977 में राज्य में जनता पार्टी की सरकार बनी तो उस वक्त भी वह सरकार के मुखिया बने. तब से राजपूत समुदाय भाजपा से खास तौर पर जुड़ा हुआ है. राज्य की 200 सदस्यीय विधानसभा में हर बार राजपूत समुदाय से 15-17 विधायक निर्वाचित होते रहे हैं. इसमें से अधिकतर भाजपा के विधायक होते हैं. मौजूदा विधानसभा में राजपूत समुदाय के 27 विधायक हैं जिसमें से 24 भाजपा के हैं. राज्य की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी करीब 5 से 6 फीसदी है और ये राज्य की 100 सीटों पर जीत-हार तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं.

लेकिन, इन दिनों राजपूत समुदाय भाजपा से नाराज है. पिछले साल गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के एनकाउंटर के विरोध में समुदाय के लोगों ने हिंसक विरोध प्रदर्शन किया था. इस दौरान कई राजपूत नेताओं के खिलाफ मामले दर्ज किए गए थे. समुदाय के लोगों का कहना है कि सरकार में उनके नेता उनका साथ नहीं दे रहे हैं और उनके खिलाफ दर्ज मामले वापस नहीं लिए जा रहे हैं, जबकि इस साल दो अप्रैल को दलितों की ओर से कराए गए भारत बंद के दौरान हुई हिंसा के बाद दर्ज मामले वापस लिए जा चुके हैं. अनुसूचित जाति के नेता के इस मामले में सरकार पर दबाव बनाने में कामयाब रहे.

ये हैं नाराजगी के कारण  रिपोर्ट के मुताबिक श्री राजपूत सभा के अध्यक्ष गिरिराज सिंह लोटवाड़ा का कहना है कि हमारे खिलाफ दर्ज मामले को लेकर हमारे नेता चुप हैं. इसके बाद जोधपुर के समराऊ गांव में जाट समुदाय के लोगों द्वारा राजपूतों के घरों में की गई लूट से भी उनमें नाराजगी है. उनका आरोप है कि इस पूरी घटना के दौरान पुलिस मूकदर्शक बनी रही. अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक हाल ही में जब राजे राजपूतों की संस्था श्री क्षत्रीय युवक संघ की बैठक में गईं तो उनके खिलाफ नारेबाजी की गई. वहां पर भाजपा के दिग्गज नेता रहे जसवंत सिंह के समर्थन में नारे लगे. जसंवत सिंह को भाजपा से निकाल दिया गया है. उनकी तबीयत खराब है और वह कोमा में हैं.

 अजमेर और अलवर लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार के पीछे की सबसे बड़ी वजह राजपूतों द्वारा उनके (भाजपा) खिलाफ प्रचार करना था.

 राजपूत समुदाय भाजपा नहीं, निजी तौर पर वसुंधरा राजे से नाराज है. जसवंत सिंह का टिकट काटने के साथ वसुंधरा राजे से राजपूतो की नाराजगी आनंदपाल प्रकरण के साथ ही जैसलमेर में चतुर सिंह एनकाउंटर और वर्तमान में केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह को भाजपा प्रदेशाध्यक्ष बनाने से रोकने को, राजपूत समुदाय अपने खिलाफ मानता है. राजपूत समुदाय ऐसा सोचने लगा है कि वसुंधरा उनको कमजोर कर रही है. राज्य में इस समुदाय के राजनीतिक झुकाव के बारे में बात करते हुए राठौर कहते हैं कि जनसंघ के समय से आम राजपूत उसके साथ रहे हैं, जबकि इस समुदाय के राजा-महाराज कांग्रेस के करीब थे. आज राजपूतों में ऐसी राय बनती जा रही है कि विधानसभा में वसुंधरा के खिलाफ, लेकिन लोकसभा में पीएम नरेंद्र मोदी को वोट करना है.

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