जयपुर। ढूंढाड़ राज्य में चांदी के झाड़शाही सिक्के और सोने की मोहरों की ढलाई का कारखाना सिरह ड्योढ़ी बाजार में राम प्रकाश सिनेमा के सामने था। चांदी की टकसाल के नाम से मशहूर कारखाना सवाई जयसिंह द्वितीय के समय बना था। महाराजा ईश्वरी सिंह के समय तक आमेर की टकसाल में सिक्कों की ढलाई होती रही।
मोहरें, चांदी व ताम्बे के अलावा राजा को भेंट करने के नजरी सिक्के टकसाल में ढलते थे। सिक्कों का निर्माण कराने के लिए मनोहरलाल पन्नागीर सहित कई स्वर्णकारों को दिल्ली से बुलाकर जयपुर में बसाया गया। इनमें आठवीं पीढ़ी के वंशज कमलेश सोनी आदि स्वर्णकार आज भी टकसाल परिसर में आभूषण बनाते हैं।
ड्राइंग मास्टर अली हसन सिक्कों की डिजाइन तैयार करते थे। यहां मां लक्ष्मी व भैरोंजी महाराज के मंदिर बने हैं। टकसाल के चारों कोनों में भोमियाजी विराजमान है। मंदिर में मां लक्ष्मी की अष्टधातु से बनी मूर्ति भी थी। इस टकसाल के अलावा जंतर-मंतर में सम्राट यंत्र के पूर्व में सिक्के निर्माण का कारखाना होने के सबूत 1930 से 35 तक खुदाई के दौरान मिल चुके हैं।
साभार जितेंद्र सिंह शेखावत
तुरफान व खराद लिखे कमरों में चांदी सोना गलाने की भट्टी मिली थी। ठिकानों की मोहर छाप के दस्तावेज भी टकसाल में मौजूद हैं। ताम्बे के सिक्कों के लिए खेतड़ी की खान से ताम्बा आता और चीन, फ्रांस, दक्षिण अफ्रीका व इंग्लैण्ड आदि देशों से सोना चांदी आता था। सियाशरण लश्करी के मुताबिक आषाढ़ी दशहरा पर महाराजा टकसाल में सोने के हल से मोती की बुवाई का शगुन करने थे।
चांदी सोने के पारखी, तुलारे, पन्नागीर, मुहरकार, नक्काशकार आदि को टकसाल के बाहर जाने की पाबंदी थी। स्वर्णकार समाज के मनीष सोनी ने बताया कि टकसाल में संगीनों का पहरा रहता और मालगाड़ी से आने वाली सोने-चांदी की सिल्लियों को कड़े पहरे में स्टेशन से लाया जाता।
भगवान के पूजन से पहले क्यों बजाते हैं घंटी?
तारकशी विभाग सोने व चांदी पर शुद्धता की छाप लगाता था। शहर के स्वर्णकार सोने की शुद्धता की जांच कराते और बाट, माप व नापने के गज की जांच टकसाल में होती थी। यह विभाग आज भी टकसाल में चल रहा है।
रामराज्य की परम्परा के अनुरूप सिक्कों पर कचनार के झाड़ का चिह्न लगाने की वजह से ढूढाड़ के सिक्कों का नाम झाड़शाही पड़ा। जमाखोरी रोकने के लिहाज से पुराने सिक्के वापस टकसाल में बेचने की व्यवस्था होने से आज जयपुर के पुराने सिक्के मिलना दुर्लभ है।
मोहरें, चांदी व ताम्बे के अलावा राजा को भेंट करने के नजरी सिक्के टकसाल में ढलते थे। सिक्कों का निर्माण कराने के लिए मनोहरलाल पन्नागीर सहित कई स्वर्णकारों को दिल्ली से बुलाकर जयपुर में बसाया गया। इनमें आठवीं पीढ़ी के वंशज कमलेश सोनी आदि स्वर्णकार आज भी टकसाल परिसर में आभूषण बनाते हैं।
ड्राइंग मास्टर अली हसन सिक्कों की डिजाइन तैयार करते थे। यहां मां लक्ष्मी व भैरोंजी महाराज के मंदिर बने हैं। टकसाल के चारों कोनों में भोमियाजी विराजमान है। मंदिर में मां लक्ष्मी की अष्टधातु से बनी मूर्ति भी थी। इस टकसाल के अलावा जंतर-मंतर में सम्राट यंत्र के पूर्व में सिक्के निर्माण का कारखाना होने के सबूत 1930 से 35 तक खुदाई के दौरान मिल चुके हैं।
साभार जितेंद्र सिंह शेखावत
तुरफान व खराद लिखे कमरों में चांदी सोना गलाने की भट्टी मिली थी। ठिकानों की मोहर छाप के दस्तावेज भी टकसाल में मौजूद हैं। ताम्बे के सिक्कों के लिए खेतड़ी की खान से ताम्बा आता और चीन, फ्रांस, दक्षिण अफ्रीका व इंग्लैण्ड आदि देशों से सोना चांदी आता था। सियाशरण लश्करी के मुताबिक आषाढ़ी दशहरा पर महाराजा टकसाल में सोने के हल से मोती की बुवाई का शगुन करने थे।
चांदी सोने के पारखी, तुलारे, पन्नागीर, मुहरकार, नक्काशकार आदि को टकसाल के बाहर जाने की पाबंदी थी। स्वर्णकार समाज के मनीष सोनी ने बताया कि टकसाल में संगीनों का पहरा रहता और मालगाड़ी से आने वाली सोने-चांदी की सिल्लियों को कड़े पहरे में स्टेशन से लाया जाता।
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तारकशी विभाग सोने व चांदी पर शुद्धता की छाप लगाता था। शहर के स्वर्णकार सोने की शुद्धता की जांच कराते और बाट, माप व नापने के गज की जांच टकसाल में होती थी। यह विभाग आज भी टकसाल में चल रहा है।
रामराज्य की परम्परा के अनुरूप सिक्कों पर कचनार के झाड़ का चिह्न लगाने की वजह से ढूढाड़ के सिक्कों का नाम झाड़शाही पड़ा। जमाखोरी रोकने के लिहाज से पुराने सिक्के वापस टकसाल में बेचने की व्यवस्था होने से आज जयपुर के पुराने सिक्के मिलना दुर्लभ है।
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