सोमवार, 25 जनवरी 2016

बाड़मेर शहीद परिजनों को मूलभूत सुविधाओं की दरकार



बाड़मेर शहीद परिजनों को मूलभूत सुविधाओं की दरकार

 ओम प्रकाश सोनी बालोतरा। शहीदों की चिताओं पर लगते है हर बरस मेले, वतन की राह पर मिटने

वालों का यही आखिरी निशां। हर बरस सरहद पर देश सेवा में प्राण न्यौछावर

करने वाले वीर शहीदों को राष्ट्रीय त्यौहार पर याद कर उनकी शहादत को

सम्मान दिया जाता हैैं। कुछ ऐसे ही वीर शहीद है जिन्होंने सेना में न

रहते हुए भी देश की सेवा में बिना स्वार्थ के अपनी कुर्बानी दे दी। मगर

उन वीर शहीद आम लोगों की शहादत पर समय की परत चढ़ गई है। साथ ही गुमनाम

शहीदों के परिजन गुमनामी के अंधेरे में इसी आश से जी रहे हैं कि कभी न

कभी तो उनके लाडलों को भी शहादत का सिला मिलेगा और उनके परिवार वालों को

इज्जत मिलेग
कुछ ऐसी ही कहानी है सन् 1965 में भारत-पाकिस्तान के युद्ध के दौरान सेना

की मदद करने के दौरान शहीद होने वाले सिविलियन लोगों के परिजनों की। लंबा

समय गुजर जाने के बाद भी युद्ध में बहादूरी से सैनिको के समान कंधे से

कंधा मिलाकर सैन्य रसद सामग्री सीमा तक पहंुचाने का काम करते हुए शहीद

होने वाले लोगों के परिजनों को शहीद के परिजन होने का फक्र नही मिला हैं।




9 सितंबर 1965 को तिलवाड़ा निवासी 20 वर्षीय खीमराज सांई भी युद्ध के

दौरान तिलवाड़ा गांव से रसद सामग्री बॉर्डर तक पहुंचाने के लिए सेना की

मदद करने गये थे। इस दौरान बम वर्षा में वे शहीद हो गये। बाद में उन्हें

ससम्मान अंतिम विदाई दी गई थी। उसके बाद से आज तक शहीद हुए खीमराज के

परिजनों को उनकी शहादत के सिले का इंतजार है। शहीद का दर्जा नहीं मिल

पाने से उनके परिजनों को अभी तक किसी प्रकार की कोई सहायता मुहैया नहीं

हो पाई है।




शहीद खीमराज के भाई कानाराम, बालाराम, चैनाराम, बहिन लक्ष्मी, केसी,

पूनी, धापू व अणची का कहना है कि लंबा समय बीत जाने के बाद भी शहीद की

ढाणी तक सरकारें विद्युत कनेक्शन तक नहीं कर पाई है। शहीद के परिजनों को

बी.पी.एल. का भी फायदा नहीं मिला हैं।




कानाराम ने बताया कि 1965 में युद्ध के दौरान खीमराज के समान ही शहीद

होने वाले सिविलियन लोगों को भी शहीद का दर्जा नहीं मिला है। कानाराम,

बालाराम, चैनाराम सरकार की चौखट पर शहीद के दर्जे की मांग को लेकर कई

वर्षों से चक्कर काट रहे हैं, पर कहीं भी सुनवाई तक नहीं हो रही हैं।

शहीद के परिजन गुमनामी के अंधेरे में बस इसी आश में जी रहे हैं कि कभी न

कभी तो सरकार उनकी भी सुध लेगी। शहीद का दर्जा देने का सरकारें केवल

आश्वासन पर आश्वासन ही दे रही हैं। कहीं मदद व पैरवी नहीं हो रही है।

सरकारें भले ही शहीदों को सम्मान व उनके हक प्रदान करने में नाकाम रही

हो, परंतु उन गुमनाम शहीदों के परिजनों में देश भक्ति का जज्बा खत्म नहीं

हुआ हैं। शहीद खीमराज के भाई कानाराम ने बताया कि उनके पुत्रों सहित

पोते-पोतियों को भी वे सेना में भेजने की तैयारी कर रहे हैं। एक आम

नागरिक जब सरहद पर शहीद होता है तो उसे भी शहादत का सिला सरकार को देना

चाहिये और उसके परिजनों को भी शहीद का दर्जा मिले, ताकि घर के लाडले को

खोने वाले परिजन सिर उठा कर फक्र से जी सके। उन्होंने आखिर में 9 सितंबर

1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान रेल द्वारा सैनिकों की रसद

सामग्री पहुंचाने वाले 17 वीर शहीदों को उनकी ओर से सलाम किया।

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