कानपुर। ऎसा कहा जाता है कि न्याय मिलने में देर है लेकिन अंधेर नहीं। पर अब अगर यह देर 30 बरस की हो तो इसे क्या क्रूरता नहीं कहा जाएगा।
यहां के हरजिंदर नगर के रहने वाले उमाकांत मिश्रा के साथ यही हुआ जब 30 साल पहले 57.60 रूपए की एक मामूली रकम के लिए उन्हें सस्पेंड कर दिया गया। इसके 27 साल बाद वे रिटायर भी हो गए और अब उसके 3 साल बाद यह साबित हुआ कि असल में वे निर्दोष थे।
उमाकांत मिश्रा पेशे से एक डाकिए थे। उन्हें डाक विभाग की ओर से नकद 697.60 रूपए मनी-आर्डर के तौर पर बांटने के लिए दिए गए। उमाकांत ने उन रूपयों में से 300 रूपए तो बांट दिए और बची हुई रकम के रूपए उनके अनुसार विभाग में लौटा दिए गए। लेकिन विभाग के अफसरों ने उन पर चोरी का इल्जाम लगा कर उन्हें न सिर्फ सस्पेंड कर दिया बल्कि उन पर पुलिस में एक एफआईआर भी दर्ज करवा दी।
यह वाकया 13 जुलाई 1984 को घटा। इसके बाद हुए घटनाक्रम में उमाकांत के खिलाफ 57 रूपए का गबन करने का केस दर्ज कर उन्हे नौकरी से सस्पेंड कर दिया गया। पुलिस ने भी उन्हें इस मामले में गिरफ्तार कर लिया।
इसके बाद शुरू हुई अदालत की कार्यवाहियां जो कि पूरे 29 साल तक चली व इस दौरान 350 बार सुनवाई की गई। तब कहीं जाकर अब 25 नवंबर को इस मुकदमे का फैसला सुनाया गया।
उमाकांत इस फैसले के आने के बाद अदालत में ही फफक फफक कर रो पड़ा। उसकी पत्नी गीता के मुताबिक ये 30 साल में उनके पूरे परिवार को बदनामी और गरीबी का दंश झेलना पड़ा । इस दौरान उनको अपना घर चलाने के लिए भी कर्ज लेना पड़ा। उन्हें अपनी लड़कियों की शादी के लिए दिया जाने वाले दहेज उधार करके देना पड़ा। उनका इकलौता बेटा गंगा बेरोजगार ही है क्योंकि वह गरीबी की वजह से पढ़ नहीं पाया।
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